१९८१ का चिकित्सा का नोबेल
पुरस्कार डा रोजर स्पेरी को उनके द्वारा मानव मष्तिष्क की कार्य प्रणाली पर किये गये
शोध के लिए दिया गया था। उन्होंने बताया कि
बोलने, पढ़़ने, देखने, समय की अनुभुति तथा गणितीय क्रियाएं हल करने के लिए सेरेब्रम नामक जो भाग उत्तरदायी है, उसकी कार्यप्रणाली कुछ विचित्र है। सेरेब्रम की आकृति दो अर्द्ध गोलों जैसी
है, जिन्हें दांयां व बांयां गोलार्द्ध कहा जाता है।
बांयां गोलार्द्ध जो ‘‘चेतन’’
कहलाता है सक्रिय होता है तथा कंप्यूटर की भांति क्रम से घटनाओं का विश्लेषण करता है,
संबंधित स्नायुतंत्र जो स्पंदन इस भाग तक जिस समय क्रम से पहुंचाता है,
उसी क्रम से यह चेतन मष्तिष्क उसका विश्लेषण करता है।
दांये गोलार्द्ध की कार्यप्रणाली
इसके विपरीत है। यह भाग सामान्यतः निष्क्रिय रहता है तथा इसी कारण अवचेतन (subconscious)
कहलाता है। स्नायुस्पंदनों का विश्लेषण यह भाग क्रम से, या कहें, कंप्यूटर की भांति न करके, एक साथ व बड़े स्तर पर करता है, समग्र रूप से व्यक्ति
की सृजनात्मक क्षमता इसी अवचेतन के सूक्ष्म अंश के सक्रिय होने के कारण उत्पन्न होती
है किन्तु सृजनात्मक क्षमता (creativity) एक जन्मजात वरदान या
संयोग नहीं है। डा0 बैट्टी अपनी पुस्तक, ‘‘ड्रांइग आन द आर्टिस्ट विद इन’’ में बताते हैं -‘‘यह महत्वपूर्ण नहीं है कि
‘‘विचार’’ सेरेब्रम के कौन से गोलार्द्ध में उत्पन्न हुआ। बात बस इतनी है कि विचारोत्पत्ति
के दो स्थान हैं, दो तरीके हैं और किसी भी तरीके से उत्पन्न विचार
को सूक्ष्म अंर्तदृष्टि व गहन चिन्तन से सृजनात्मक बनाया जा सकता है।’’
फिर भी सृजन क्षमता इतनी
दुर्लभ क्यों है? क्या शिक्षा प्रणाली में कोई अभाव है?
शायद हो । हमारे शिक्षाकेन्द्रो
में अध्ययन का मुख्य आधार पुस्तकों का अध्ययन, लेखन व याद करना
है। आशय यह है कि मष्तिष्क को क्रमबद्ध जानकारी उपलब्ध कराई जाती है, जिसका विश्लेषण विद्यार्थी का मष्तिष्क भी उसी क्रम से कर देता है। विश्लेषण
से भी वही निष्कर्ष निकलते हैं, जिन्हें पुस्तक का लेखक निकलवाना
चाहता था। अतः स्पष्ट है कि चेतन को एक सीमित जानकारी देकर सृजनात्मकता की आशा नहीं
की जा सकती। कुछ लीक से हट कर उत्पन्न करना है तो चिन्तन, अध्ययन,
मनन, किसी माध्यम से होने की अपेक्षा प्रकृति का
ही होना चाहिए अथवा किसी भी स्त्रोत से प्राप्त जानकारी पर तनिक ठहर कर गहन चिन्तन
करते रहने से वह विषय अवचेतन में चला जाता
है, जहां किसी भी क्षण, किसी भी घटना के
कारण कोई चामत्कारिक विचार जन्म ले सकता है। इतना ही नहीं, बल्कि
इस विचार पर एक बार फिर ‘‘चेतन’’ में चिन्तन होना चाहिये । संभव हो तो पुष्टि के लिये प्रयोग इत्यादि की मदद
भी ली जाय, ताकि उत्पन्न विचार की सत्यता में कोई संदेह न रह
जाय।
‘‘चेतन और अवचेतन’’ द्व़ारा
विषय के गहन चिन्तन के परिणामों का आभास हमारे प्राचीन आचार्यों को था। शिक्षा को सूत्रों
व ललित काव्य में इस प्रकार पिरोया जाता था कि कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कथ्य
आ जाय। इन सू़त्रों पर मनन, व गहन चिन्तन करने, तथा प्रकृति के सान्निध्य में प्रत्येक गतिविधि को देखते-परखते हुए निष्कर्षो
तक पहुंचने की व्यग्रता का परिणाम यह होता था कि ‘‘सूत्र’’ में निहित ज्ञान अपने वास्तविक
भावार्थ में शिक्षार्थी के अवचेतन में विद्युत
की भाति कौंध जाता। इस प्रणाली से शिष्य के अवचेतन को चिन्तन करने पर विवश होना ही
पड़ता, तथा उसके सहसा सक्रिय हो उठने की आवृत्ति बढ़ जाती। परिणाम
स्वरूप विलक्षण विचारो का जन्म हो जाता।
‘‘अवचेतन’’ को वांछित स्तर
तक सक्रिय बनाने के प्रयासों का आभास तिब्बती पंरपरा में मिलता है। मन्त्र-तन्त्र,
दिव्यौषधियों के प्रयोग तथा शल्य कर्म द्वारा माथे पर भृकुटियों के बीच
के स्थान की मज्जा व अस्थि काट दी जाती थी फिर विधान के अनुसार वहां पर दिव्यौष्धी
का प्रलेप स्वर्ण निमित शल्य उपकरणों द्वारा किया जाता व उस भाग को स्थाई रूप से उद्दीप्त
करके पुनः यथावत कर दिया जाता, जिसके उपरान्त उस व्यक्ति में
अतीन्द्रिय क्षमता उत्पन्न हो जाती। यह प्रकिया मठों के गुप्त तहखानों में सिद्ध लामाओं
द्वारा संपन्न की जाती। इसे ‘‘तीसरा नेत्र’’ कहा जाता। इस नेत्र के विकसित व सक्रिय
हो जाने के कारण वह साधक इस प्रकृति के उस स्वरूप को भी स्पष्ट देख पाता है जिसे अपनी
ज्ञानेन्द्रियों की सीमित क्षमता के कारण हम नहीं देख पाते।
संभवतः अवचेतन की सक्रियता
का ललाट के इस विशिष्ट स्थान से कोई संबंध है। भगवान शिव के ललाट पर भी ठीक इसी जगह
तीसरा नेत्र होने का उल्लेख है, जो प्रायः बन्द रहता है,
किन्तु महाप्रलय के समय यह खुल जाता है, जिससे
संपूर्ण ब्रह्मांड क्षण मात्र में दुःस्वप्न की भांति नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह
है कि ‘‘अवचेतन’’ की असीम क्षमताओं का अनुभव प्राचीन ऋषि पा चुके थे। वही अवचेतन,
जो किसी भी जानकारी के लिये इन्द्रियों पर नहीं, बल्कि मन पर निर्भर था।
‘‘योग दर्शन’’ में समाधि
की अवस्था तक पहुंचने की प्रकिया को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। प्राणायाम,
धारणा व ध्यान के नियमित अभ्यास से मष्तिष्क को दीर्घकाल तक विचार शून्यता
की स्थिति में रखा जाता है। इससे इन्द्रियों और
चेतन का बाहरी विश्व से संपर्क टूट जाता है, क्योंकि विचार
शून्यता की स्थिति में इन्द्रियों द्वारा चेतन मष्तिष्क को भेजे गये स्नायु-स्ंपदनों
का विश्लेषण नहीं हो पाता। यह ठीक उसी प्रकार है कि एक वायुमण्डलीय दाब मापक किसी कंप्यूटर
को विद्युत संकेत भेज रहा है जिसके विश्लेषण से कंप्यूटर बता रहा है कि वायुमण्डल का
दबाव कितना है। अब यदि अचानक कंप्यूटर की पावर सप्लाई रूक जाय तो कंप्यूटर दबाव पढ़ना
बन्द कर देगा जबकि दाबमापक अब भी विद्युत संकेत भेज रहा है।
समाधि के बाद ‘‘विभूतिपाद’’
की अवस्था आती है। योगदर्शन के अनुसार साधक को इस अवस्था में अणिमा, लघिमा, आदि आठ सिद्धियां प्राप्त हो जाती है। साधक इच्छा
मात्र से शरीर का आकार घटा-बढ़ा सकता है, ब्रहमाण्ड के किसी भी
भाग में होने वाली घटनाओं को प्रत्यक्ष देख सकता है, दूसरे के
मन की बात जान सकता है तथा क्षण मात्र में एक स्थान से अदृश्य होकर कहीं भी प्रकट हो
सकता है, इत्यादि। यदि
संक्षेप में कहें तो उसमें अतीन्द्रिय शक्ति उत्पन्न हो जाती है। साधक के भौतिक शरीर
का नियंत्रण उसके मन के अधीन हो जाने से वह इच्छा मात्र से कुछ भी कर सकता है,
सृजन भी और विनाश भी। दृश्य
जगत को संचालित करने वाले नियम उस पर लागू नहीं होते। स्थूल रूप से भौतिक विश्व में
होते हुए भी वह पराभौतिक विश्व में सहज ही प्रवेश कर जाता है। यह अवस्था बहुत आनन्दप्रद
बताई गई है। इसे पाने के बाद भौतिक जगत में कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता। परिणाम यह
होता है कि साधक के स्वभाव में इस विश्व के प्रति स्थाई विरक्ति भाव आ जाता है,
जो उसके व्यवहार में स्पष्ट दिखाई पड़ता है, तब
वह जगद्गुरू के शब्दों मे कहता है
न मोक्षस्याकांक्षा भवविभव
वांछापि न पुनः।
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि
सुखेच्छापि न पुनः।।
(अर्थात - हे माता,
यह अवस्था इतनी आनन्दप्रद है कि अब मुझे मोक्ष, की भी आकांक्षा नहीं । संसार के संपूर्ण वैभव भी अब नहीं चाहिये। ज्ञान विज्ञान
पाने या अन्य कोई सुख पाने की भी अब कोई इच्छा नहीं है।)
तो क्या ‘‘अवचेतन’’ का संबंध
अतीन्द्रिय अनुभव से है? यदि पराभौतिक विश्व का अस्तित्व है तो
उसकी अनुभूति के लिये हमारे शरीर में क्या कोई व्यवस्था है? इन
प्रश्नों का उत्तर दर्शन व न्याय शास्त्र में ढूंढते हैं -
मानव शरीर को तीन रूपों
में स्थित बताया गया है-स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर।
फिलहाल स्थूल व सूक्ष्म पर ही विचार करते हैं। स्थूल शरीर का संबंध स्थूल जगत (या भौतिक
विश्व) से है, तथा दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेंद्रियों तथा पांच
कर्मेंद्रियों) द्वारा यह स्थूल शरीर इस विश्व से जुड़ा हुआ है। जैसे कोई कंप्यूटर,
दस अलग-अलग प्रकार के संकेत भेजने वाले यंत्रों (sensors) से जुड़ा हो।
यंत्रों की भाति मानव इन्द्रियों
की क्षमता भी सीमित होती है, जैसे कान २0 किलो हर्टज से अधिक आवृत्ति की ध्वनि (पराश्रव्य) नहीं सुन सकते, हमारी आंखें दृश्य प्रकाश के बाहर की तरंगों से (पराबैंगनी तथा अवरक्त) नहीं
देख सकती, हमारी नाक भी हर गंध को नहीं सूंघ पातीं। पक्षी (तोते)
व पशु (कुत्ते) पराश्रव्य तरंगों को सुन लेते हैं, बिल्ली अंधेरे
में भी देख लेती है, तथा चीटियां बहुत दूर से भी सूंघ सकती हैं।
हमारी इन्द्रियों की यही
सीमाएं ही हमारे लिये इस विश्व को सीमित बनाती है। यह विश्व हमारे अनुभव मे उतना ही आता है, जितना हमारी
इन्द्रियां अनुभव करा पाती हैं । किन्तु सच तो यही है कि यह उससे कहीं अधिक विशाल है
। तो फिर शेष विश्व की अनुभूति कैसे हो?
इसके लिये शरण लेनी होगी सूक्ष्म शरीर की, जो अनुभूति
के लिये इन्द्रियों पर आश्रित नहीं होता। सूक्ष्म शरीर ‘‘मन’’ की सहायता लेता है। ‘‘मन’’ को इन्द्रियों
का राजा इसीलिए कहा जाता है कि ‘‘मन’’ में प्रत्येक इन्द्रिय के कार्य करने की क्षमता
है। तथा यह क्षमता असीमित है। उदाहरण के लिये यदि ‘‘मन’’ से देखने का काम लिया जाए
तो फिर कुछ भी नहीं बचता जो देखा न जा सके।
व्यक्ति सर्वदर्शी तथा त्रिकालदर्शी बन जाता है । चाहे वस्तु पास हो या ब्रह्माण्ड
के दूसरे किनारे पर। यही बात सुनने,
आदि पर भी लागू होती है।
‘‘मन’’ क्योंकि सुक्ष्म
शरीर की इन्द्रिय है, अतः मानसिक अनुभूतियों का विश्लेषण ‘‘चेतन’’
मष्तिष्क से होना दुष्कर है यह कार्य ‘‘अवचेतन’’ करता है। असाधारण परिणाम वाले आंकड़ो
का विश्लेषण ‘‘चेतन’’ की सामथ्र्य से बाहर भी होता है।
इस प्रकार सूक्ष्म शरीर
‘‘मन’’ के द्वारा न केवल भौतिक, बल्कि पराभौतिक विश्व से भी अवचेतन
बुद्धि को जोड़ता है। जैसे सुपर कंप्यूटर, साधारण किस्म के दाब
मापक द्वारा भेजे संकेतों को भी आश्चर्यजनक शुद्धि तक पढ़ लेता है, तथा अत्यंत सुग्राही उपकरण द्वारा भेजे गये संकेतों को भी उतनी ही शुद्धता
तक प्रदर्शित कर देता है।
अब हमारा विषय स्थूल से
सूक्ष्म में प्रवेश कर रहा है। पहले इन्द्रियजन्य
अनुभूतियों पर विचार करें।
‘‘चेतन’’ मन द्वारा हमें
दो प्रकार की अनुभूतियां होती है। जिन्हें सुविधा के लिये विचार कहेंगे। पहले प्रकार
के विचार है ‘‘अच्छे’’( positive) तथा दूसरे प्रकार के विचार
हैं ‘‘बुरे’’(negative)। अच्छे विचारों में हैं- आशा,
उत्साह, प्रेम, अहिंसा करूणा,
शान्ति व आनन्द आदि, जबकि बुर विचारों में- निराशा,
खिन्नता, घृणा, हिंसा,
ईर्ष्या, अशान्ति, क्रोध,
दुःख, शोक आदि को रखा जा सकता है। इन विचारों का
चेतना में प्रवेश इन्द्रियों द्वारा ही होता है। उदाहरण के लिये, किसी जरूरत मंद की सहायता करने से ’’आनन्द’’ नामक सुखप्रद विचार चेतना में
उदय होता है। जबकि किसी को कष्ट पहुंचाने से ’’अशान्ति’’ नामक दुःखप्रद अनुभति होती
है।
मनोविज्ञान व मनोचिकित्सा
में इस दिशा में प्रयोग भी किये गये। प्रयोगों के परिणाम बताते है कि स्थूल शरीर पर
विचारों का गहरा प्रभाव पड़ता है। अच्छे विचार का अच्छा तथा बुरे विचार का बुरा प्रभाव,
लगातार चिन्तित रहने वालों को अनिंद्रा, कब्ज,
मानसिक तनाव व रक्तचाप की बीमारियों का शिकार होना पड़ा है। जबकि घोर
बीमारी में भी ‘‘आनन्द’’ व शान्ति जेसे अच्छे विचार चमत्कारी औषधि का प्रभाव छोड़ते
हैं, जिससे असाध्य रोग भी सामान्य इलाज से ठीक हो जाते हैं।
शायद यह भी अन्तिम सत्य
है कि हर मनुष्य अच्छे विचार-विशेषकर ‘‘आनन्द’’ ही पसंद करता है। उसका हर कार्य आनन्द
प्राप्ति की आशा में ही होता है। चाहे वह आनन्द धन संग्रह से प्राप्त करे चाहे हत्या
जैसे जघन्य कार्य से। इस प्रयत्न मे कई बार उचित-अनुचित कर्मो मे भेद नहीं कर पाता।
किन्तु विवेक से कर्मो का सही चयन करके ही आनन्दप्राप्ति का प्रयास करना चाहिये। गीता
में श्री कृष्ण ने जिस कर्म योग की बात कही है, उसके मूल में
यही संदेश है सांसारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी आनन्दानुभति संभव है,
किन्तु कर्मो का चुनाव सही हुआ या गलत कई बार यह निश्चय नहीं हो पाता।
विवेक कहता है यह काम गलत है किन्तु कर्तव्य कहता है, यही उचित
है। इसी द्वंद की स्थिति से उबारने के लिये श्री कृष्ण कहते है -कर्मण्ये वाघिकारस्ते,
मा फलेषु कदाचनः, कि कर्म तक ही तेरा अधिकार है
उसका परिणाम क्या होगा, यह सोचकर कर्तव्य से विमुख न हो‘‘। इस
प्रकार अनासक्त भाव से किया गया कार्य ही आनन्द प्राप्ति कराएगा। किन्तु विवेक की उपेक्षा
फिर भी न की जाय तो अति उत्तम फल मिलेगा। अनासक्त भाव से की गई हत्या कभी शान्ति व
आनन्द नहीं दे सकती। अतः कर्म जितना महत्वपूर्ण है, उचित-अनुचित
का निर्धारण भी यंथासंभव उतना ही आवश्यक है।
आनन्द प्राप्ति ही सारे
दर्शनों का मूल भी है। सैकड़ों विभेद हैं इसके।
सारे धर्म इसी आनंद की प्राप्ति का मार्ग सुझाते हैं। सब संप्रदाय इसी आनंद की प्राप्ति
में संलग्न रहते है। उसी बात को वामपंथी, जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव, निरीश्वरवादी - सभी अपने-अपने ढंग से कहते हैं, लक्ष्य
अन्ततः एक ही है ‘‘परमानन्द’’ की प्राप्ति।
किन्तु ‘‘मन’’ द्वारा अतीन्द्रिय
आनन्द की जो प्राप्ति अवचेतन में होती है, उसकी तुलना नहीं की
जा सकती। प्राणयोगियों का यह राजमार्ग निश्चय ही श्रेष्ठ है। प्राणयोगियों की दृष्टि
में यह जगत ‘‘नश्वर’’ तथा मायाजन्य है। इसका वास्तविक स्वरूप यह नहीं है। अतः इसमें
लिप्त हुए बिना ही परम आनन्द तक पहुंचने की तकनीक का अविष्कार हुआ। जिसके दर्शन ‘‘पातंजल
योग दर्शन’’ में होते हैं। इन्द्रियजन्य अनुभूतियों का प्रयोग किया ही नहीं गया। इसके
विपरीत प्राणायाम, धारणा व ध्यान की एकाग्रता द्वारा केवन ‘‘मन’’
की स्थिरता से सविकल्प समाधि की अवस्था तक पहुंचा गया। निश्चय ही इस स्थिति में अवचेतन
मे कोई बुरा विचार नहीं रह सकता था। चेतन या अवचेतन में जो अवशिष्ट दुर्विचार बचे भी
थे, धीरे-धीरे नष्ट हो गए । ऐसी अनुभूतिविहीन अवस्था मे एकाएक
असीम, अद्भुत व अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति होती है। इसे वाणी
या शब्दो-या भावों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। जिसके लिये सूरदास जी कहते हैं
- ‘‘ज्यों गूंगेहि मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै.. मेरो मन अनत कहां सुख पावै।’’
‘‘अवचेतन’’ और ‘‘मन’’ के
निग्रह से आनन्दानुभुति कराने वाली प्राणयोग की विधि इसलिये श्रेष्ठ है कि इसका आधार
नश्वर जगत की कोई नश्वर वस्तु (या कहें कि इन्द्रियजन्य अनुभूति) नहीं है, किन्तु कठिन होने के कारण यह सर्वसाधारण के लिये अधिक उपयोगी भी नहीं है।
लेकिन यह तो र्निविवाद सत्य
है कि, विधि जो भी हो, अतीन्द्रिय अनुभूति
ही वह बिन्दु है जिस पर पहुंचने के बाद कुछ भी जानना या कुछ भी पाना असंभव नहीं रहता । इस तथ्य को गीता मे भी प्रमाणित किया गया है:-
सुखमात्यन्तिक
यतद्बुद्धि ग्राहयमतीन्द्रियम्। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलित तत्वतः।।२९।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६
‘‘अर्थात शुद्ध व सूक्ष्म
बुद्धि द्वारा ही ग्रहण करने योग्य यह इन्द्रियातीत, अनन्त आनन्द
है। इसे प्राप्त करने के उपरान्त योगी भगवतस्वरूप से चलायमान नहीं होता है।
(समाप्त)
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