भर्तृहरि शतक से कुछ श्लोक



भर्तृहरि कौन थे ?

 जिन यशस्वी सम्राट विक्रमादित्य के नाम से भारत का विक्रम संवत (57 वर्ष ईसा पूर्व) चलता है, राजा भर्तृहरि उनके बड़े भाई तथा उज्जयिनी के राजा थे.

उनके राजपाट छोड़ने तथा संन्यास धारण करने के पीछे एक घटना है. एक बार गुरु गोरक्षनाथ उज्जयिनी आए. राजा भर्तृहरि ने उनका बहुत आदर सत्कर किया. सत्कार से प्रसन्न होकर गुरु गोरक्ष नाथ जी ने राजा को एक फल दिया और कहा कि इस फल को खाने से तुम हमेशा युवा बने रहोगे. राजा ने सोचा कि यदि रानी इस फल को खा ले तो वह हमेशा युवा बनी रहेगी. अत: राजा ने वह फल रानी पिंगला को दे दिया.

रानी पिंगला राजा के अस्तबल के प्रमुख अश्वपाल को प्यार करती थी. रानी ने सोचा – यदि अश्व पाल इस फल को खा ले तो वह हमेशा युवा बना रहेगा. अत: रानी ने वह फल अश्वपाल को दे दिया.

अश्वपाल रानी के अलावा एक नर्तकी से  भी प्यार करता था. उसने सोचा- यदि नर्तकी इस फल को खा ले तो वह हमेशा युवा बनी रहेगी. अत: अश्वपाल ने वह फल नर्तकी को दे दिया.
नर्तकी राजा भर्तृहरि को प्यार करती थी. साथ ही उसने यह भी सोचा कि राजा भर्तृहरि एक धर्मात्मा शासक हैं. वह प्रजा को अपने बच्चे की तरह प्यार करते हैं. ऐसा धर्म परायण राजा यदि इस फल को खा ले तो चिर काल तक उसकी प्रजा सुखी रहेगी. यह सोच कर अगली सुबह वह फल लेकर दरबार मे गई और राजा को वह फल भेंट कर दिया. 

फल देख कर राजा चौंक गए. उन्होने पूछा- तुम्हारे पास यह फल कहां से आया ? नर्तकी  ने बता दिया कि वह फल उसके प्रेमी अश्वपाल ने उसे दिया था. फिर राजा को  गुप्तचरों से विदित हुआ  कि अश्वपाल को वह फल  रानी पिंगला ने दिया था.

रानी के नकली प्रेम का पता लगने पर राजा भर्तृहरि को वैराग्य हो गया. राजपाट छोटे भाई विक्रम को सौंप कर वह गुरु गोरक्ष नाथ जी के शिष्य बन गए. कालांतर मे संन्यास की दीक्षा ले कर संन्यासी हो गए.
 राजा होने के अलावा भर्तृहरि मे उच्च कोटि की काव्य प्रतिभा भी थी . उन्होने शृंगार, नीति और वैराग्य पर क्रमश: सौ सौ श्लोकों की रचना की थी. इन तीन सौ श्लोकों मे जीवन के तीन महत्वपूर्ण दृष्टिकोणों -  यौवनसामाजिक व्यवहार तथा वैराग्य का सजीव वर्णन है. इन तीनों पड़ावों को क्रमश: शृंगार शतक, नीति शतक, तथा वैराग्य शतक कहा जाता है.सभी श्लोक कला पक्ष  तथा भाव पक्ष की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं. आज ढाई हजार साल बाद भी  इनकी प्रासंगिकता ज्यों की त्यों बनी हुई है. 

यहां पर नीति शतक तथा वैराग्य शतक से कुछ  श्लोक चुने  गए हैं. 

1.   नीतिशतक से ;

साहित्य संगीत कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥12

अर्थ – जो मनुष्य साहित्यसंगीतकलासे वंचित होता है वह बिना पूंछ तथा बिना सींगों वाले साक्षात् पशु के समान है । वह बिना घास खाए जीवित रहता है यह पशुओं के लिए निःसंदेह सौभाग्य की बात है ।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥13

अर्थ – जिन मनुष्यों के पास न विद्या  है न उन्होने कोई तपस्या की है, न कभी दान दिया है, न उन्हें ज्ञानार्जन मे ही कोई रुचि है, न उनके व्यवहार मे विनम्रता है न कोई विशेष गुण है, न वे अपने धर्म (कर्तव्य) के प्रति सजग हैं, ऐसे मनुष्य इस नश्वर संसार में धरती पर बोझ हैं तथा मनुष्य रूप में विचरण करने वाले पशु मात्र हैं ।

 यदा किंचिज्जोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
 तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः । 
यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगत
तदा मूर्खोस्मीति ज्वर इव मदोमे व्यपगतः॥8॥  

अर्थ- जब  तक मैं बिल्कुल ही अज्ञानी था तब तक मैं मदमस्त हाथी की तरह अभिमान मे अंधे होकर अपने आप को सर्वज्ञानी समझता था। लेकिन विद्वानो की संगति से जैसे-जैसे मुझे ज्ञान प्राप्त होने लगा मुझे समझ मे आ गया कि मैं तो निरा अज्ञानी हूँ और मेरा अहंकार जो मुझ पर बुखार की तरह चढ़ा हुआ था उतर गया।

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डित स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते ॥41 ॥
अर्थ: जिसके पास धन होता है, वही कुलीन है, वही पण्डित है, वही वेदों का जानकार है और वही गुणवान है । वही श्रेष्ठ वक्ता है और वही दर्शन देने योग्य अर्थात  रूपवान भी है । वास्तव मे ये सभी गुण उस धन मे छिपे हैं जो उसके पास है ।
 वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह ।
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि ॥[14]

अर्थ: खूंखार जंगली जानवरों के साथ जंगल और पहाड़ों मे रहना भी बेहतर है लेकिन मूर्खों के साथ स्वर्ग मे रहना भी उचित नहीं है.

शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदौ दण्डेन गोगर्धभौ ।
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥[11]

अर्थ : आग को पानी से बुझा सकते हैं, छाते से तेज धूप मे भी बच सकते हैं, जंगली हाथी को भी अंकुश की मदद से नियंत्रित किया जा सकता है, गायों और गधों को भी डंडे  से काबू  किया सकता है। असाध्य बीमारी को भी औषधियों से ठीक किया जा सकता है। यहाँ तक की जहर दिए गए व्यक्ति को भी मन्त्रों और औषधियों की मदद से ठीक किया जा सकता है।  इस दुनिया में हर बीमारी का इलाज है लेकिन किसी भी शास्त्र या विज्ञान में मूर्खता का कोई इलाज या उपाय नहीं है।  

केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥[19]

अर्थ : कंगन मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ाते, न ही चन्द्रमा की तरह चमकते हार, न ही सुगन्धित जल से स्नान ; देह पर सुगन्धित उबटन लगाने से भी मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती और न ही फूलों से सजे बाल ही मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत और सुसज्जित वाणी ही मनुष्य की शोभा बढाती है।  

शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥[10]

गंगा स्वर्ग से निकल कर भगवान शिव के जटाओं में बंध जाती है, और वहां से मुक्त होकर हिमालय से होकर धरती पर आती है;  और फिर गंगा मैदानी इलाकों में आती है, और मैदानों में आकर और नीचे जाते हुए अंततः समुद्र में मिल जाती है।  ठीक इसी प्रकार मुर्ख भी अपने जीवन  के साथ करते हैं।  वे हमेशा सबसे सरल मार्ग अपनाते  हुए सबसे निम्न स्तर पर पहुँच जाते हैं।


2. वैराग्य शतक से :

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।7।।  

अर्थ - भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।।
 यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता  साप्यन्यं इच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिद् अन्या धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥

अर्थ - मैं जिसका हर समय  चिन्तन करता हूँ वह रानी  (पिंगला) मेरे प्रति उदासीन है। वह (पिंगला) भी जिसको चाहती है वह (अश्वपाल) तो कोई दूसरी ही स्त्री (राजनर्तकी) में आसक्त है। वह (राजनर्तकी) मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस रानी (पिंगला) को धिक्कार है ! उस (अश्वपाल) को धिक्कार है ! उस (राजनर्तकी) को धिक्कार है ! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भभय
मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम् ।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।।31॥
                                                                    
अर्थ - भोग करने पर रोग का भय, उच्च कुल मे जन्म होने पर बदनामी का भय, अधिक धन होने पर राजा का भय, मौन रहने पर दीनता का भय, बलशाली होने पर शत्रुओं का भय, रूपवान होने पर वृद्धावस्था का भय, शास्त्र मे पारङ्गत होने पर वाद-विवाद का भय, गुणी होने पर दुर्जनों का भय, अच्छा शरीर होने पर यम का भय रहता है। इस संसार मे सभी वस्तुएँ भय उत्पन्न करने वालीं हैं। केवल वैराग्य से ही लोगों को अभय प्राप्त हो सकता है।
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया
वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् ।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।। 16 ।।

अर्थ:  विषयों को जितना भी भोगें एक न एक दिन वे हमे स्वयं छोड़ देंगे. तो फिर हम उन्हे अपनी इच्छा से पहले ही क्यों न छोड़ दें ? जब विषय हमें छोड़ेंगे तो महान दुख होगा. और अगर हम उन्हे स्वयम छोड़ दें तो असीम सुख और शांति मिलेगी ।
वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितैरङ्कितं शिरः।
गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते।। 14 ।।

अर्थ: चेहरा  झुर्रियों से भर गया है, सिर के बाल पक कर सफेद हो गए हैं, शरीर के सभी अंग अब ढीले हो गए - पर यह तृष्णा तो जवान होती जा रही है !
स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ
मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम ।।
स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-
महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं ।। २० ।।

अर्थ:  स्त्रियों के स्तन, मांस की गांठें  हैं, पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है । स्त्रियों का मुंह कफ का घर है, पर कवियों  उसे चन्द्रमा के समान बताया  है,  और उनकी जांघो को, जिनमे पेशाब आदि बहते रहते हैं, श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान बताते  हैं । स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है, पर कवियों ने उसकी कैसी तारीफ की है

(क्रमश:) 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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