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हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक- भारतेंदु हरिश्चंद्र |
साहित्य से
अभिप्राय-
साहित्य
क्या है ? इस प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं । किंतु यदि सकारात्मक दृष्टिकोण
से विचार करें तो उत्तर एक ही मिलेगा- ‘हितस्य भाव साहित्यम्’। संस्कृत की यह सूक्ति, साहित्य की अवधारणा की
व्यापक संदर्भ में सम्यक व्याख्या करती है । अभिप्राय यही है कि वह सब कुछ साहित्य है, जिसमें सभी के हित का भाव निहित हो ।
अभिव्यक्ति
की अनेक विधाएं हो सकती हैं- जैसे चित्रकला, संगीत, अभिनय, नृत्य,
लेखन, गायन
आदि । व्यापक संदर्भ को सीमित करते
हुए जब हम इस उक्ति को भाषा पर लागू करते हैं, तो कहा जा
सकता है कि भाषा के माध्यम से व्यक्त वह हर भाव, हर कामना
साहित्य है, जिसमें लोक कल्याण निहित हो ।
साहित्य
सृजन –
शब्दों
के द्वारा विचारों तथा भावों को व्यक्त करना ‘साहित्य सृजन’ कहलाता है । ऐसे सृजन करने वाले
को हम साहित्यकार कहते हैं । साहित्यकार
समाज का संवेदनशील प्राणी होता है । किसी
भी अन्य व्यक्ति की भांति वह भी अपने समय की परिस्थितियों से प्रभावित होता है. ये
परिस्थितियां राजनीतिक, आर्थिक,
धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक तथा
सांस्कृतिक – कैसी भी हो सकती हैं। ऐसे
तमाम क्षेत्रों में घट रही समकालीन परिस्थितियों को वह न केवल जीता है, बल्कि उनके मूल कारणों तक पहुँचने का प्रयास भी करता है। उसकी कोशिश होती
है कि जिन कारणों से घटनाएं घट रही हैं, उन्हें वास्तविक रूप
में ग्रहण करके उसे अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रकट करे,
ताकि जन साधारण, जो सामान्यत: उस गहराई तक नहीं जा पाता, वह भी परदे के पीछे सक्रिय, उन मूल तथ्यों को समझ
सके, जो जीवन के रंगमंच पर घट रहे दृश्यों का कारण होते हैं
।
साहित्यकार
का दायित्व
-
युगीन
सत्य को निष्पक्ष भाव से पाठक तक पहुँचाने का साहित्यकार का यह प्रयास अत्यंत
उत्तरदायित्व पूर्ण होता है। साहित्यकार जिस देश काल तथा वातावरण को अपनी रचनाओं
में शब्द-बद्ध करता है, वही आने वाले भविष्य का इतिहास बनता है। साहित्य सर्जन में ईमानदारी केवल
ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं होती, बल्कि नैतिक
दृष्टि से भी जरूरी है कि साहित्यकार अपने आसपास घट रही घटनाओं को लेखनी बद्ध करते
हुए निरपेक्ष रहे । किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हो, जो कुछ
देखे, सुने, समझे, उसे वैसे ही व्यक्त करे। उनके निहितार्थ, जो वह
स्वयं समझ सका है, उन्हें पाठक पर अध्यारोपित करने की कोशिश
न करे। निर्देशक की अपेक्षा वह मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह करे। केवल उसी
स्थिति में ‘साहित्य समाज का दर्पण हो सकता है’।
अब
बात करते हैं उन्नीसवीं शताब्दी के उस काल खंड की, जिसमें हमारे आदर्श
साहित्य नायक भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रादुर्भाव हुआ।
भारतेंदु
युग मे समसामयिक परिस्थितियां -
उन्नीसवीं
शताब्दी का उत्तरार्ध विश्व के इतिहास में
बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इन्हीं दिनों यूरोपीय देशों में पुनर्जागरण
चरमोत्कर्ष पर था। औद्योगीकरण के प्रभाव समाज पर दिखाई पड़ने लगे थे। विज्ञान और
तकनीकी क्षेत्र में विकास के कारण शताब्दियों से स्थापित जीवन शैली तेजी से बदल
रही थी । वर्ण-भेद तो समाज में पहले से ही चले आ रहे थे, अब वर्ग-भेद भी सिर
उठाने लगे । शोषक वर्ग, मध्य वर्ग और शोषित वर्ग की अवधारणा
अब और भी साफ हो कर उभरने लगी।
इन्हीं
परिवर्तनों ने समाजवाद जैसी नई राजनीतिक विचारधारा को जन्म दिया । हमारे देश में
भी उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध संक्रमण काल था। ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में
पूंजीवादी व्यवस्था तेजी से फैल रही थी, जबकि निरंतर कमजोर होते जा रहे राजे राजवाड़ों
के रूप में सामंतवादी व्यवस्था अपने अस्तित्व को बचाए रखने की हर संभव कोशिश कर
रही थी। इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच बढ़ते
टकराव का परिणाम था सन 1857 का निर्णायक युद्ध, जिसे अंग्रेजों ने ‘सिपाहियों
का विद्रोह’ तथा भारतीयों ने ‘स्वतंत्रता
का पहला संग्राम’ कहा।
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हिंदी भाषा का क्रमिक विकास |
इस
निर्णायक युद्ध में सामंतवाद की हार हुई, तथा गणतान्त्रिक परिधान में सज्जित पूंजीवादी
विचारधारा की जीत हुई।
सामंतवादी
व्यवस्था में परिवर्तनों के लिए बहुत कम स्थान था। हर क्षेत्र में यथास्थिति बनाए
रखने की कोशिश इस व्यवस्था में स्पष्ट दिखाई पड़ती थी। जबकि नवागत, पूंजीवादी व्यवस्था
हर क्षेत्र में यथास्थिति का विरोध करती प्रतीत हो रही थी।
जहाँ
तक भाषा का प्रश्न है, कंपनी के शासन काल में ही
अंग्रेजों को आभास हो गया था कि भाषा के क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना उसके
व्यापारिक, राजनीतिक, प्रशासनिक व धार्मिक
हितों के लिए घातक होगा। कुछ मौलिक परिवर्तन करने ही पड़ेंगे । चाहे ईसाई मिशनरियाँ
हों या फिर अंग्रेज प्रशासक, बहुसंख्यकों की भाषा जाने बगैर
जन साधारण तक नहीं पहुँचा जा सकता ।
कंपनी राज मे हिंदी –
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आधुनिक हिंदी के विकास का प्रमुख संवाहन -फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता |
भले
ही फारसी व उर्दू काफी समय से शासन की भाषाएँ थीं, किन्तु उनसे भी पहले
संस्कृत काफी समय तक शासन की भाषा रह चुकी थी । जनमानस पर उसका भी काफी प्रभाव था
। राजस्थान के राजघरानों में तो राजस्थानी भाषा के समांतर हिन्दी का भी प्रयोग
काफी अरसे से चल रहा था । मुगल दरबार के आस-पास भी अरबी-फारसी व देशज भाषाओं के
मेल से बनी हिन्दोस्तानी भाषा अपनी विशिष्ट पहचान बना रही थी । अत: शासन की भाषा
भले ही फारसी रही हो, आम बोलचाल की भाषा हिंदोस्तानी या
उर्दू ही थी । शासकों नें भी उसी भाषा को महत्व देना उचित समझा, जिसे देश के अधिकांश लोग बोलते थे, समझते थे व
लिखते थे । पहले कंपनी तथा बाद में ब्रिटिश सरकार ने इस आवश्यकता को समझा और इस
दिशा में गंभीर प्रयास आरंभ कर दिये ।
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फोर्ट विलियम कालेज मे हिंदी के निदेशक जॉन गिल्क्राइस्ट |
इन
प्रयासों की शुरूआत कंपनी राज में ही हो चुकी थी । जॉन गिलक्राइस्ट (1759-1841), कैप्टन रोबक
(1781-1816), पी टी मेटकाफ, गार्सा द
तासी (जन्म-20 जून, 1794), रॉबर्ट
वेलंटाइन, ब्रियान हाटन हागसन, डॉ
मोनियर विलियम्स, फ्रेडरिक पिंकाट (जन्म 1826), जॉन बींस ( जन्म 1837), सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन
(1851-1941), आगस्टस फ्रेडरिक रूडोल्फ हार्नली (जन्म 1841
आगरा), डॉ फादर कामिल बुल्के (1909-1984), एडविन ग्रीव्स (जन्म 1854 लंदन) तथा हेनरी इलियट,
डॉ हेनरी कोलब्रुक, जॉन क्रिश्चियन,
रेवरेंड टी ग्राहम बेली, ए पी वारान्निकोव, डॉ एन डी बार्नेट, विलियम प्राइस, व डब्लू पी बेली जैसे अनेक यूरोपीय मूल के विद्वानों ने हिन्दी के
व्याकरण, व शब्द भंडार में काफी वृद्धि की।
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फोर्ट विलियम कालेज मे नियुक्त हिंदी के एक अध्यापक इंशाअल्लाह खान |
सन्
1757 के प्लासी के युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत से यह लगभग निश्चित हो चुका
था कि आने वाले काफी वर्षों तक कंपनी इस देश में राज करेगी। अत: यूरोप से भारत आने
वाले अंग्रेज प्रशासकों को भारतीय उपनिवेश की विभिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं, परंपराओं, रीति रिवाजों व भाषाओं-(मुख्यत: हिन्दी
भाषा) का ज्ञान कराने के लिए कंपनी ने सन् 1800 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की।
भारतेंदु
जी से काफी पहले मुख्यत:
चार लेखक- सदासुख लाल, इंशा अल्ला खान, लल्लू लाल, तथा सदल मिश्र आदि ने मिल कर हिन्दी गद्य
का अधार तैयार कर दिया था । फोर्ट विलियम कालेज के अधिकारियों के प्रोत्साहन से
सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाख्यान’ तथा लल्लू लाल जी ने ‘प्रेम
सागर’ लिखा।
इंशाअल्ला खान की ‘रानी केतकी की कहानी’ व ‘उदयभान चरित’ तथा सदासुख
लाल (1824) ने ‘सुख सागर’ की रचना की।
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फोर्ट विलियम कालेज के पुस्तकालय की मुहर |
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतेंदु से लगभग 50 वर्ष पहले हिन्दी खड़ी बोली का
अपेक्षाकृत सुधरा हुआ स्वरूप स्थापित हो चुका था। भले ही इस स्वरूप पर अब भी लोक
व्यवहृत बोलियों- जैसे ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, पंजाबी, बाँगड़ू
आदि का प्रभाव था। इस स्वरूप को निखार कर आधुनिक हिन्दी के रूप को ढालने का महान
कार्य किया राष्ट्र नायक भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने ।
(समाप्त)
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