व्यंग्य मुक्तक भूख

 


ये भूख भी बड़ी अजीब चीज़ है।

एक अदद पेट से शुरू होती है और

सारी धरती को खाकर भी नही मिटती।

फिर अपनी धरती से बाहर झांक कर देखती है यह भूख कि

कहां कहां  सोने चांदी, यूरेनियम , हीरे या ऑक्सीजन, हीलियम, हाइड्रोजन के भंडार हैं!

कहां पहुंच कर मिलेंगे असीमित  संसाधनों के भंडार ?

कहां पहुंच कर मिट सकूंगी मै ?

हां ! छानेगी खाक  यह मूर्ख भूख अनेक ग्रहों की उपग्रहों की।

जाएगी अपने सौर मंडल के कोने कोने तक -

खुद को मिटाने के लिए।

फिर निकलेगी बाहर अपने सौर मंडल से।

प्रकाश की गति से भागते हुए

छानेगी आकाशगंगा के अनगिनित सौर मंडलों की खाक !

पर इतिहास साक्षी है - भूख तब भी मिट न सकेगी ।

सारे ब्रह्मांड पर कब्जा कर लेने के बाद खोजेगी भूख -

उस सत्ता को, जिसे आदि शक्ति या कोई और नाम भी दे सकते हैं।

जो भूख को उसके छोटेपन का अहसास हमेशा कराती रही है।

उसी सर्वशक्तिमान को गुलाम बनाने  की चाह मे विक्षिप्त भूख

खंगालेगी संपूर्ण ब्रह्मांडों को, 

और एक दिन विलीन हो जाएगी महाप्रलय में ।

भूखी प्यासी !

अफसोस ! कि भूख तब भी मिट न सकेगी ।

दोबारा जन्म लेगी। 

एक बार फिर वही खेल शुरू होगा।

विराट होते ही अभिशप्त भूख फिर विलीन होगी महाप्रलय मे! 

भूख के विराट होने और फिर विलीन हो जाने का यह खेल-

पता नही कब से  चल रहा है। 

पता नहीं कब तक चलेगा? 

चोले बदलते रहते हैं । 

भूख न मिटती है न बदलती है। 

हर चोले के साथ फिर से हरी भरी हो जाती है 

यह अमर अनश्वर  भूख  ! 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.

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