समस्या
पूर्ति :
भारतेंदु
काल में समस्यापूर्ति भी काव्य का विशेष अंग थी। वैसे तो भारतेन्दु युग
से बहुत पहले संस्कृत काव्य साहित्य में समस्यापूर्ति के अनेक उदाहरण मिलते हैं ।
जैसे ट टम टटम टम टटटम ट टमटम की
समस्यापूर्ति इस प्रकार की गई थी-
राज्याभिषेके
जलमानयन्त्या
हस्ताच्युतो
हेम घटो युवत्या
सोपान
मार्गेश्च करोति शब्दम
ट टम टटम टम टटटम ट टमटम
उसी गौरवशाली परंपरा के दर्शन हमें भारतेन्दुयुगीन साहित्य
में होते हैं। कानपुर में भारतेन्दु मंडल
के यशस्वी कवि व व्यंग्यकार प्रतापनारायण मिश्र जी ने एक कवि सम्मेलन मे दौरान ‘पपीहा जब पूछिहै पीव
कहाँ’ पर समस्यापूर्ति की थी, जो इस
प्रकार है :
बन बैठि है मान की मूरति सी, मुख खोलत बोलै न
नाहिं न हाँ ।
तुम ही मनुहारि कै हारि परे , सखियान की कौन चलाई तहाँ॥
बरषा है ‘प्रताप जू’ धीर धरो , अब लौं मन को समुझाय यहाँ ।
यह ब्यारि तबै बदलेगी कछू, पपीहा जब पूछिहै ‘पीव कहाँ’ 1 ॥
1 .
प्रेमघन सर्वस्व: प्रेमपीयूष वर्षा : पृ 209 , 2 प्रेमघन सर्वस्व- प्रथम भाग-पृ 207-08
समस्यापूर्ति की विधा में कवि की केवल काव्य रचना की प्रतिभा
ही नहीं, बल्कि आशुकवित्व, उक्ति वैचित्र्य, सूझ-बूझ और परिवेश की संकल्पना
करने की क्षमता का भी योगदान होता है। इस दृष्टि से समस्यापूर्ति करना प्रखर
प्रतिभासंपन्न कवियों के लिए ही संभव होता है।
कुछ स्वानामधान्य
आलोचकों ने भारतेन्दु युगीन कविता पर विषयगत अव्यवस्था के सवाल खड़े किए हैं। उनका
यह कहना कि भारतेन्दुयुग में कविता के विषय के प्रति लापरवाही बरती गई- ठीक नहीं है। भारतेन्दु काल राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक व आर्थिक क्षेत्रों
में त्वरित परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा था । ईस्ट इंडिया कम्पनी से शासन सूत्र
ब्रिटिश सरकार के हाथों में आ जाने से भारत की औपनिवेशिक जनता को यह उम्मीद बंधी
थी कि अब अच्छा शासन मिलेगा, किन्तु उम्मीदें पूरी नहीं
हुईं। पिछली शताब्दियों में शासन धर्मावलम्बी इस्लाम के अनुयायी थे । तब हिंदुओं
का बड़ी संख्या में इस्लाम में धर्म परिवर्तन हुआ । भारतेन्दु युग में शासक ईसाई थे
। तब हिंदुओं को लालच देकर ईसाई बनाया जा रहा था । धार्मिक क्षेत्र की यह उथल पुथल
भी भी प्रबुद्ध वर्ग में बेचैनी का एक कारण थी। औद्योगिक क्रांति का प्रभाव विदेशी
शासकों के जीवन पर तो पहले ही पद चुका था, अब वह प्रभाव
भारतीय जीवन शैली पर भी पड़ने लगा था । अंग्रेजी भाषा, कॉलेज, रेल, डाक, तार, छापाखाना, अख़बार, होटल, कोट, पतलून, चश्मा, अस्पताल वगैरह कई चीज़ें समाज के सदियों से चले आ रहे
परिवेश को भारतेंदु युग में तेजी से बदल रही थीं । इन परिवर्तनों पर भी तो
साहित्यकार लिखे बिना नहीं रह सकता था। गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार, टैक्स, ज़मीनों का
लगान आदि कई आर्थिक कारण भी थे जिनकी ओर
से भी बुद्धिजीवी वर्ग आँखें नहीं मूँद सकता था। साहित्य के क्षेत्र में भी यही
अस्थिरता थी। लोक शैलियों का महत्व कवियों की समझ में पहले की अपेक्षा अधिक गहराई
से आने लगा था। उन्हें लगा कि शिष्ट साहित्य की पकड़ समाज के केवल शिक्षित
वर्ग तक ही है , जबकि भारत की अधिकांश आबादी गाँवों में रहती
थी जहाँ न तो शिक्षा का समुचित प्रबंध था और न शिक्षा के प्रति चेतना । इस वर्ग को
समाज में हो रहे अच्छे-बुरे परिवर्तनों से परिचित कराने का एक मात्र माध्यम वह
साहित्य था, जो लोक भाषा और लोक शैलियों में लिखा गया हो ।
समस्यापूर्ति
भले ही बहुत अधिक प्रचलित विधा भारतेंदु युग में न रही हो, किन्तु इसका
पुनरुद्धार पूर्ववर्ती काल-खंडों में नहीं मिलता । मुकरियों के अलावा गज़ल, और समस्यापूर्ति हिन्दी में इसी काल खंड में शामिल हुए ।
भारतेन्दु मंडल के कवि चौधरी बदरी नारायण ‘प्रेमघन’ ने भी समस्यापूर्ति की हैं । एक उदाहरण प्रस्तुत है :
बगियान बसंत बसेरो कियो, बसिए तेहि त्यागि तपाइए ना ।
दिन
काम कुतूहल के जो बनें, तीन बीच वियोग बुलाइए ना ॥
‘घन प्रेम’ बढ़ाय
कै प्रेम, अहो ! बिथा बारि वृथा बरसाइये ना ।
चित
चैत की चाँदनी चाह भरी, चरचा चलिबे की
चलाइये ना1 ॥
‘चरचा चलिबे की चलाइये ना’ नामक इस समस्यापूर्ति में संदर्भ चाहे जो भी रहा हो, उसे वासंती श्रृंगारिकता प्रदान कर अपनी रसमयी काव्य सृजन प्रतिभा का
परिचय दिया है । इसी संदर्भ में भारतेंदु जी की एक समस्यापूर्ति ‘अंखियाँ दुखियाँ नहि मानती हैं’ प्रस्तुत है :
यह संग में लागिए डोलैं सदा बिन देखे न धीरज
आनती हैं ।
छिनहू
जो वियोग परै ‘हरिचन्द’ तौ चाल प्रलै की सु ठानती हैं ।
बसनी
में घिरैं न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबौ जानती हैं ।
पिय
प्यारे तिहारे निहारे बिना, अंखियाँ दुखियाँ नहि मानती हैं2 ।
भारतेन्दु
काल के साहित्यकारों ने एक नया प्रयोग करते हुए ब्रह्म समाज, आर्य समाज
की
तर्ज पर साहित्य समाजों की स्थापना की थी। भारतेंदु जी ने ‘तदीय समाज’ तथा ‘कविता वर्धिनी समाज’की
स्थापना की। प्रताप नारायण मिश्र ने ‘रसिक समाज’ की स्थापना की। बाबा सुमेर सिंह
ने
‘कविता समाज’ स्थापित किया। इसके अलावा इन साहित्यकारों ने अनेक शहरों में नाट्य मंडलियाँ व उत्सव समितियाँ आदि भी बनाईं। आज भी
कवि गोष्ठियों की वह परंपरा चली आ रही है।
दुर्गादात्त व्यास कृत ‘समस्यापूर्ति प्रकाश’ तथा
अंबिकादत्त व्यास कृत ‘समस्यापूर्ति सर्वस्व’ इस काल-खंड की चर्चित पुस्तकें हैं ।
खड़ी बोली में काव्य : आलोच्य कालीन कवियों की भाषिक चेतना
का यह सर्व श्रेष्ठ प्रमाण है कि वे ब्रजभाषा में कविता करने की अपेक्षा कोई अन्य
विकल्प तलाशने लगे. इसके अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु दिल्ली दरबार तथा प्रांतीय सूबों में
जिस तरह खड़ी बोली आम बोलचाल की भाषा बनती जा रही थी, उसे
देखते हुए, ब्रजभाषा के प्रभाव क्षेत्र में कमी आ रही थी।
बल्कि सच तो यह है कि ब्रज या अवधी में काव्य सृजन अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच
चुका था और आगे किसी अभिनव प्रयोग की उसमें बहुत कम संभावना थी। दूसरे संपर्क भाषा
के रूप में खड़ी बोली का काफी प्रसार हो चुका था। ठेठ ब्रजभाषा में पद्य रचना करने
वाले भारतेन्दु कालीन कवि प्रेमघन की खड़ी बोली कविता का उदाहरण द्रष्टव्य है :
हमें जो
हैं चाहते निबाहते हैं प्रेमघन
उन दिलदारों से ही से मेल मिला लेते हैं।
दूर दुदकार देते अभिमानी पशुओं को ,
गुनी सज्जनों की सदा नाव खेते हैं ॥
आस ऐसे तैसों की करैं तो कहो कैसे,
महाराज बृजराज के सरोज पद सेते हैं ।
मन मानी करते न डरते तनिक नीच,
निंदकों के मुँह पर खेखार थूक देते
हैं ॥1
प्रेमघन सर्वस्व प्रथम भाग,
पृष्ठ 201
भारतेंदु जी द्वारा संपादित
पत्रिका “हरिश्चंद्र चन्द्रिका” (सन् 1874) में पयार
छंद में लिखी गई उनकी कविता ‘मंद मंद
आवे देखो प्रात समीरन’ छपी थी।
इसी प्रकार ‘हिन्दी भाषा निबंध’ में नई कविता’ उप
शीर्षक के अंतर्गत उन्होने एक दोहा लिखा था :
नमन करते श्रीकृष्ण का , मिल
करके सब लोग ।
सिद्ध
होयगा काम और छूटेगा सब सोग ॥2
हरिश्चंद्र मैगजीन’ के
सातवें अंक में ऐसे लोगों पर भी व्यंग्यात्मक कविताएँ लिखी गईं जो थोड़ी
बहुत अंग्रेजी पढ़ कर हिन्दी लिपि
में लिखने से परहेज करने लगे थे ताकि उनके अंग्रेज आका नाराज न हो जाएँ । नव शिक्षित बाबुओं की
अंग्रेजी में खिल्ली उड़ाती उनकी कविता प्रस्तुत है :
When I go Sir-Molakat Ko, these
chaprasis
Trouble me much ,
How can I give daily Inam, ever
they ask
Me I say such.
Sometime the give me garadaniya
And tell bahar niklo tum;
Dena na lena muft ke aye yahan
hain
Bare Darbari ki dum1
भारतेंदु जी द्वारा रचित ‘दशरथ
विलाप‘ की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :
मेरे
जीवन मेरे सरबस प्रान ।
हुए क्या
हाय, मेरे राम भगवान ॥
कहाँ हो
राम, हा प्रानों से प्यारे ।
यह कह
दशरथ जी सुरपुर को सिधारे ॥ 2
इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण :
साँझ
सबेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है।
हम सब एक
दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार सबेरा है।।3
1. भाषाई अस्मिता और हिन्दी – रवीन्द्र नाथ
श्रीवास्तव, पृष्ठ : 156
2. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास : बच्चन सिंह : पृष्ठ : 309
3 . भारतेंदु समग्र –पृ 274
बकर्दम क्यों हाथ में शमशीर है । आज
किसके कत्ल की तदबीर है।
खाक सर पर पाओं में ज़ंजीर है । तेरे
चलते यह मेरे तौकीर है ।
पूछते हो क्या मेरे ज़रदी का हाल।
साहबों यह इश्क की तासीर है।
कुचए लैली में कहते हैं मुझे ।
मिनअअन मजनूँ की बस तस्वीर है।
दस्तो या सर्द आशिकों के होते हैं।
घर तेरा क्या खत्तए कश्मीर है ।
देश प्रेम तथा राष्ट्रीय एकता की
भावना
:
भारतेंदु युग से पहले के काव्य में स्वदेश प्रेम की भावना व्यापक
रूप में नहीं मिलती। देशप्रेम का अर्थ था केवल उसी राज्य के प्रति प्रेम, जिसके अधीन कवि संरक्षण पाता था। इस युग में स्वदेश प्रेम संपूर्ण भारत
वर्ष के संदर्भ में प्रयोग किया गया था।
यहाँ तक कि प्रेमघन जैसे विक्टोरिया शासन के प्रति उदार दृष्टिकोण रखने
वाले भारतेंदुयुगीन कवियों की रचनाओं में
भी अलग अलग राज्यों की अपेक्षा अखंड भारत की संकल्पना को ही
मान्यता दी गई है । एक राष्ट्र की संकल्पना
यद्यपि प्राचीन भारत में मौजूद थी, किन्तु दीर्घ कालीन
विदेशी शासन के कारण भारतीयों का आत्म गौरव क्षीण हो चुका था। ऐसे में रीति काल के
राज्याश्रित कवि एक राष्ट्र की न तो कल्पना कर सके और न
कविता को देश भक्ति जैसे नए विषय
दे सके । इसके विपरीत भारतेंदुकालीन कवियों ने अपनी रचनाओं में स्थानीय
राजाओं की अपेक्षा अखंड भारत के विचार को ही पल्लवित व पुष्पित किया :
चला चल चरखा तू दिन रात ।
चलना तेरा बंद हुआ जब से भारत में
तात ।
दुखी प्रजा तब से न यहाँ की अन्न पेट
भर खात1 ॥
तथा
ज्यों ज्यों चपल चरखा चलत ।
बसन ब्यापारी बिदेसी लखि बिलखि कर मलत ।
कहत गुन गुन
देत गुन गुन दीन गन ज्यों पलत ॥
बहुरि भारत में
सकल संपत्ति साहस हलत1 ।
होली के माध्यम से भी
किसी राज्य की नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत की निर्धनता , अराजकता व भ्रष्टाचार
की बात की कही गई है :
मची है भारत में कैसी होली सब अनीति
गति हो ली ।
पी प्रमाद मदिरा अधिकारी लाज सरम सब
घोली ॥
लगे दुसह अन्याय मचावन निरख प्रजा
अति भोली ।
देश असेस अन्न धन उद्यम सारी संपत्ति
ढो ली2 ॥
अंग्रेजी
शासन सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के
बाद भारत का शासन ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था। इससे जनता को शांति
और सुरक्षा की कुछ उम्मीद बँधी। संभवत: इसलिए कविता में राज-भक्ति का स्वर
सुनाई पड़ता है :
राज में जाके सबै सुख साज , सुकीरति जासु न जात
बखानी ।
जो सुन्यो श्री रघुनंदन के समै, नैनन सन सोई रीति
लखानी
तार औ रेल की चाल करी ‘हरिचन्द’, होवत जो लोगन
को सुखदानी ।
याते कहैं सगरे मिलिकै, चिरजीवो सदा
विक्टोरिया रानी ।
दीन भए बलहीन भए धन, छीन गए सब बुद्धि हिरानी ।
ऐसी न चाहिये आपुके राज,प्रजागन ज्यों मछरी
बिनु पानी ।
या रूज़ की तुम ही अहो बैद , कहै तेहि तै ‘हरिचन्द’ बखानी ।
टिक्कस देहु छुड़ाई कहैं सब, जीवो सदा विक्टोरिया रानी 1 ॥
1.
प्रेमघन सर्वस्व : प्रथम भाग : पृष्ठ 648, प्रेमघन
सर्वस्व ; प्रथम भाग : पृष्ठ -649
इसी प्रकार ब्रिटिश
सरकार के शासन आरंभ होने पर प्रेमघन भी कहते हैं :
करहु आज
सों राज आप केवल भारत हित,
केवल
भारत के हित साधन में दीजे चित।2 (प्रेमघन)
इस युग के कवि देश की दयनीय दशा से उत्पन्न क्षोभ के कारण
ईश्वर से प्राथना करते हैं-
कहाँ
करुणानिधि केशव सोए?
जानत
नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।
(भारतेन्दु )
धीरे धीरे ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों का आभास इस
युग के साहित्यकारों को होने लगा। अब विक्टोरिया के दीर्घ जीवन की कामना के स्थान
पर कवि जन साधारण का आह्वान करता है :
सब तजि
गहौ स्वतंत्रता, नहिं चुप
लातै खाव।
राजा करै
सो न्याव है, पाँसा
परे सो दाँव।।
‘‘महँगी और टिकस के मारे, हमहिं क्षुधा पीड़ित तन छाम।
साग पात लौं मिलै न जिय भरि, लेबो वृथा दूध को
नाम।।’’3
और ‘सब मिलि चलहु प्रयाग’ में वह लिखते हैं :-
‘‘भारत की आरत दसा, सबहि
बिदित सब भाँति।
सुधि आवै छाती फटै, कही न कैसहु जात।।’’1
‘तृप्यन्ताम’ में भारत राष्ट्र का विचार स्पष्ट किया गया है: -
1. प्रेमघन सर्वस्व ; प्रथम भाग : पृष्ठ
-649
2. भारतेंदु
समग्र –पृ 274
3. प्रतापनारायण मिश्र
रचनावली, भाग-1, पृ॰ 66 .
मुकरियों
व पहेलियों को नए आयाम : अमीर
खुसरो ने लोक साहित्य में सबसे पहले मुकरियों व पहेलियों की शुरू आत की थी।
भारतेंदु युगीन साहित्यकार इस विधा से प्रभावित हुए। उन्होने इन दोनों ही विधाओं
में लिखा। विधा तो मुकरी व पहेली ही थी किन्तु उनमें विषय वस्तु समकालीन
परिस्थितियाँ थीं । ऐसा लगता था मानो आलोच्य काल के कवि एक कुशल कारीगर थे, जिनके
हाथ आते ही पुरानी से पुरानी,
विस्मृतियों के अंधेरे मे पड़ी मशीनें भी बिल्कुल ठीक होकर काम करने लगती थीं। यह साहित्य में नए प्रयोग के अलावा उसे
लोक के निकट लाने का प्रयास भी
था। उन कवियों ने लोक शैलियों का उपयोग समाज के साथ बेहतर संवाद स्थापित करने के
लिए किया । लोक साहित्य में रचना करने का उनका मूल उद्देश्य समाज के साथ गहराई से
जुड़ना भी था। यही कारण है कि इस काल के
साहित्य में जहाँ लोक विश्वास, लोक छंद, लोक उपमान , धार्मिक
रीति-रिवाज़, त्यौहार आदि का वर्णन लोक शैली में हुआ, वहीं मुकरी व पहेलियों की शैली में भी काव्य रचना की गई।
भारतेन्दु की मुकरियाँ नए ज़माने की हैं । अमीर खुसरों ने
जो मुकरियाँ लिखीं उनमे शृंगार भाव प्रमुख था । नए ज़माने की मुकरियों में तद्युगीन
समस्याएँ तथा ज़रूरतें थीं जैसे अंग्रेजी, ग्रेजुएट, रेल, चुंगी,
दरिद्रता तथा आंतरिक दुर्बलताओं के कारण भारतीय मानस आलसी, दीन, व्यसनी, व भाग्यवादी हो गया था। विपरीत परिस्थितियों से लगातार झूझते हुए उसका
आत्मा विश्वास टूट चुका था । भारतेन्दु ने
इस कमज़ोरी को हटाने की पुरज़ोर कोशिश की :
‘‘मुँह जब लागै तब नहिं छूटै, जाति मान धन सब कुछ लूटै।
पागल करि मोंहि करै खराब, क्यों सखि सज्जन?
नहिं सराब।।’1
ईश्वरचंद विद्यासागर, पुलिस, अंग्रेज,
अख़बार, छापाखाना, कानून,
खि़ताब, जहाज, शराब
आदि।मुकरी का अर्थ है मुकर जाना। दो सखियों के वार्तालाप में एक सखी दूसरी से बडी
चतुरताई से एक बात कहती है। दूसरी सखी सही अर्थ नहीं समझ पाती व पूछती है कि क्या
तुम अमुक की बात करती हो ? पहली सखी मुकर जाती है। मुकरी का
कलात्मक शिल्प भारतेन्दु युगीन रचनाकारों को अंग्रेजों की दोगली नीतियों के
परदाफाश के लिए सही जान पड़ा :-
‘‘भीतर भीतर सब रस चूसै, हँसि
हँसि कै तन मन धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेज़, क्यों सखि सज्जन?
नहिं अंगरेज।।“ 1
इन मुकरियों में मनोरंजन तो था ही साथ ही व्यंग्य की पैनी धार
भी थी :-
‘‘नई नई नित तान सुनावै, अपने
जाल में जगत फँसावै।
नित-नित हमैं करै बल सून, क्यों सखि सज्जन?
नहिं कानून।।’’2
विनोदभाव के अलावा भारतेन्दु
नए परिवर्तनों से भारतीय जनमानस को अवगत कराने के लिए भी मुकरियों का प्रयोग करते हैं। रेल पर
मुकरी इसका उदाहरण है :-
‘‘सीटी देकर पास बुलावै, रुपया
ले तो निकट बिठावै।
ले भागै मोहिं खेलहि खेल, क्यों सखि सज्जन?
नहिं सखि रेल।।’’3
1-2-3 भारतेन्दु ग्रंथावली, दूसरा भाग,
पृष्ठ 810,811 .
पहेलियाँ
लोक शैली का वह रूप है जिसका प्रयोग दिमाग़
को सक्रिय रखने के लिए किया जाता है।
अंग्रेजों की नीतियों का खुल कर विरोध करना आसान काम न था, इसलिए पहेलियों में
समस्याओं को रखकर साधारण लोगों तक पहुँचाया गया। भारतेंदु कालीन कवि
प्रतापनारायण मिश्र की एक पहेली द्रष्टव्य है :
‘‘वृक्ष बसत पर खग नहीं, जल जुत पै धन नाहिं।
त्रिनयन
पै शंकर नहीं कहौ समुझि मन माहिं।।
रकत
पिये राकस नहीं,
वेगि चलै नहिं पौन।
अंतर्धानी
सिंह नहिं,
कहौ वस्तु वह कौन।।’’2
इसमें
एक का उत्तर नारियल है और दूसरे का चिंता।
गज़ल : भारतेन्दु युगीन कविता इस अर्थ में
महत्व पूर्ण है कि इसमें पुराने तथा नए रूपविधानों में आधुनिक विषयवस्तु को
अभिव्यक्ति मिली । यद्यपि कुछ रूपों से रीतिकालीन रस और नवाबी शान नहीं जा सकी। ‘ग़ज़ल’ ऐसी ही विधा है। भारतेन्दुपूर्व के कवियों ने गज़ल को शराब, साक़ी, पैमाना और हुस्न के इर्द गिर्द ही रक्खा, क्योंकि उनके आश्रयदाता नवाबों
की यही जरूरत थी। -भारतेंदु युग में हम गज़ल के शिल्प में तो नहीं किन्तु विषय
वस्तु में भारी अन्तर पाते हैं। गज़लों का विषय अब दरबारी परिवेश से निकल कर लोक
जीवन के आम सरोकारों से जुड़ने लगा । आरंभ
में तो प्रतीकों के माध्यम से बातें कही
गईं, किन्तु बाद में खुल कर सीधे सीधे बात कही गई ।
भारतेन्दु मंडल के अधिकांश कवियों नें इस विधाओं
ने उर्दू (फ़ारसी मिश्रित) तथा खड़ीबोली का प्रयोग
ग़ज़लों में किया। उदाहरणार्थ:-
‘‘बाग़बां है चार दिन की, बागे आलम में बहार।
फूल सब मुरझा गये, खाली बियाबाँ रह गया।।’’1
1. भारतेन्दु ग्रंथावली, दूसरा भाग,
पृ. 810-812 2 . प्रतापनारायण मिश्र रचनावली, प्रथम खंड, पृ. 224.
भारतेन्दु मंडल के प्रमुख कवि चौधरी बदरी नारायण ‘प्रेमघन’ ने भी कुछ पद्य गज़ल विधा में
लिखे हैं । शब्दों की संख्या के आधार पर गज़लें भी अलग अलग तरह की लिखी गई हैं:
देख
कर कातिल को आते हाथ में खंजर लिए ।
खौफ
से मरकत मेरी बेतरह थर्राने लगी ॥
हो
नहीं सकती गुजर महफिल में अब तो आपके ।
बदजुबानी
गालियाँ साहेब ये सुनवाने लगी ॥2
तथा
अपने
आशिक पर सितमगर रहम करना चाहिए ।
देख
कर एक बारगी उससे न फिरना चाहिए ॥
काटना
लाखों गालों का रोज़ यह अच्छा नहीं ।
आकवत के रोज़ को क्कुछ दिल में डरना चाहिए ॥3
तथा
वो
हँसते हैं सुन कर जो कहता हूँ उनसे ।
जला
कर मुझे आप क्या पाइएगा ॥
निकलवा
के छोड़ेंगे बदरी नारायन ।
अगर
आप मेरे तरफ आइयेगा ॥
उदास हो क्यों बतावो बदरी ।
नरायन अपनी कि हाल क्या है ॥1
तथा
हजारों जान बलव होते उसी दम
कूए जाना में ।
अदा से जब कभी खिड़की का वो परदा
हटाते हैं ।2
1.भारतेन्दु समग्र : पृष्ठ 270 2,3 प्रेमघन सर्वस्व : उर्दू बिन्दु : पृष्ठ -463 ,468
राजा,
महाराजा, नवाबों के संरक्षण में अधिकतर रहने
के कारण गज़ल लोक विधा होते हुए भी लोक समस्याओं की उद्घोषिका नहीं बन सकी । आलोच्य
अवधि में भी इसका विषय मांसल प्रेम या शृंगार ही रहा।
‘‘न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे।अभी
कम उम्र है हर बात पर मुझसे झिझकते हैं।।’’3
भारतेंदु युग में भाषाई चेतना
अपने शिखर पर थी। इतने सारे प्रयोग इस काल में भाषा, शिल्प व विषयवस्तु
पर हुए कि डॉ. राम विलास शर्मा का यह कथन सत्य प्रतीत होता है : ‘‘भारतेन्दु युग
के काव्य साहित्य को पढ़ने से एक विचित्र कोलाहल का अनुभव होता है। विभिन्न धाराओं
के एक साथ मिलने से पाठक को आकाश-भेदी कलकल ध्वनि
सुनायी पड़ती है। कुछ लोग नायिकाओं के नख-शिख-वर्णन में लगे हैं तो दूसरे
प्रतिभावान समस्यापूर्ति में चमत्कार दिखा रहे हैं। अन्य कवि महामारी, अकाल टैक्स पर लोक गीत रच रहे हैं और कुछ लोग कविता
में
गद्य की भाषा के प्रयोग भी कर रहे हैं। तात्पर्य यह कि काव्य-साहित्य में व्यवस्था
का अभाव है,
पुरानी रूढ़ियों पर चलनेवाले काफी हैं तो साहस से नये प्रयोग
करनेवालों की भी कमीं नहीं है। ऐसे लोग भी अनेक हैं जो कुछ दिन रूढ़ियों पर चलने के
बाद इन नये प्रयोगों की ओर झुक रहे हैं। दरबारी संस्कृति और नवचेतना का संघर्ष
कविता में ही सबसे ज़्यादा दिखायी देता है।’4
काव्य
साहित्य में व्यवस्था कहाँ से आती, जब समाज ही घोर अव्यवस्था के दौर से गुजर रहा
था? जिन क्षेत्रों
में काव्य रचे गए, उन क्षेत्रों में क्या युगांतकारी
परिवर्तन नहीं हो रहे थे ? ऐसे समय में काव्य सृजन की शिष्ट
मर्यादाओं के अनुपालन की अपेक्षा क्या यह अधिक संगत न होता कि उन तमाम परिवर्तनों
को शब्दबद्ध कर दिया जाए ?
( 1-2 . प्रेम घन सर्वस्व : उर्दू बिदु: पृष्ठ
-466 ,3 भारतेंदु समग्र : पृष्ठ 269
4 रामविलास शर्मा, भारतेन्दु युग और
हिन्दी भाषा की विकास परम्परा, पृ. 100)
निष्कर्ष
: भारतेंदुकालीन
लोक साहित्य हिंदी साहित्य के इतिहास में अपने भाषा गत वैशिष्ट्य के कारण
महत्वपूर्ण स्थान रखता है. कुछ अपवादों को छोड कर जिस निराश्रित लोक भाषा की
राज्याश्रित रीतिकालीन कवियों ने निजी स्वार्थों के कारण घोर उपेक्षा की, उसी लोक भाषा को
भारतेंदुकाल के कवियों ने भरपूर सम्मान दिया। लगभग सभी लोक शैलियों व लोक विधाओं
मे लोक भाषा के माध्यम से बहुत उत्कृष्ट रचनाएँ देकर लोक साहित्य के भंडार मे
अभूतपूर्व वृद्धि की। उसकी गरिमा को, उसकी अद्वितीय
अभिव्यंजना क्षमता को नए आयाम दिये। युगीन सत्य का लोक भाषा मे समावेश कर जन जागरण
किया तथा इस प्रकार ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक षड्यंत्रों व आर्थिक शोषण के
विरुद्ध जनसाधारण को शिष्ट समाज के समान ही शिक्षित करने का सफल प्रयास किया। साथ
ही लोक साहित्य की स्वच्छंदता, अल्हडपन, सहजता, सरलता व मस्ती के साथ कोई समझौता नहीं किया गया।
(समाप्त)
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