लेख- भारतीय रसायन की विलुप्त गरिमा, रस-सिद्धि

रस  सिद्ध नागार्जुन 
  रस-सिद्धि से अभिप्राय उन प्राचीन रासायनिक विधियों से है, जिनके द्वारा रस (पारद) में देह और लोह को श्रेष्ठ गुण संपन्न बनाने की क्षमता उत्पन्न कराई जा सकती हो।

            भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति है। लक्ष्य-प्राप्ति के छह प्रकार विकसित हुए, जो षड्दर्शन के नाम से जाने जाते है। ये हैं –

1.     पूर्व मीमांसा
2.    उत्तर मीमांसा
3.     सांख्य
4.     वैशेषिक
5.     न्याय
6.    योग

माधवाचार्य विद्यारण्य द्वारा रचित दर्शन ग्रन्थ सर्वदर्शनसंग्रह से हमे भारतीय उपमहाद्वीप मे विकसित सभी दर्शनों का परिचय मिलता है।  इस ग्रंथ के अनुसार कुल सोलह दर्शन हैं-
महर्षि कणाद 
1. चार्वाक दर्शन
2. बौद्ध दर्शन
3. अर्हत या जैन दर्शन
4. रामानुजदर्शनम्
5. पूर्णप्रज्ञ दर्शनम्
6. नकुलीशपाशुपत दर्शन
7. शैव दर्शन
8. प्रत्याभिज्ञा दर्शन
9. रसेश्वर दर्शन
10. वैशेषिक या औलूक्य दर्शन
11. अक्षपाद दर्शन या नैयायिकदर्शनम्
12. जैमिनीय दर्शन
13. पाणिनीय दर्शन
14. सांख्य दर्शन
15. पातंजल या योगदर्शन
16. वेदान्त दर्शन
          

रसेश्वर दर्शन –
पारद 
वास्तव मे यह दर्शन योगदर्शन का ही उपदर्शन है । इसके अनुसार देह नष्ट होने के पश्चात मुक्ति नहीं मिल सकती । मुक्ति का कारणदेह ही है। अतः मन्त्र तन्त्र, औषधि के द्वारा देह को अक्षय बना लेना ही आवागमन से मुक्ति दिला सकता है। अक्षय से तात्पर्य, देह को दिक्-काल के बन्धनों से मुक्त कर देना है। अर्थात् औषधियों के प्रभाव से चेतन शरीर को प्रकृति के स्थूल नियमों से बाहर किया जा सकता है।

            इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसे तत्व की आवश्यकता थी, जिसमें प्रकृति के पाँचो मूल-तत्व विद्यमान हों। अर्थात् जिसमें पृथ्वी (गुरूत्व) , जल (द्रवत्व) , अग्नि (ऊर्जा) । आकाश (सूक्ष्म प्रसार) तथा वायु (हंस गति) का सुन्दर समन्वय हो।
            
     पारद में उक्त सभी तत्वों का समावेश पाया गया। गुरूत्व पर्याप्त होने के साथ-साथ इसमें द्रवत्व भी था, अग्नि तो पारद का स्वाभाविक दोष ही था। वायु तत्व का आभास इसके परमाण्वीय वाष्पन से मिला। आकाश तो प्रत्येक जड़ चेतन का अनिवार्य तत्व है ही। अतः पाँचो तत्वों की उपस्थिति के कारण पारद को देह सिद्धि के लिए चुन लिया गया।

पारद के गुण 
   मानव देह में भी उक्त पाँचों तत्वों का समन्वय है। देह को यौगिक मानें या मिश्रण, यह जानना महत्वपूर्ण नहीं समझा गया। सार इतना ही था कि पारद की भाँति मानव देह भी पाँचों तत्वों के आनुपातिक संघटन का परिणाम है। अस्थियों के रूप में पृथ्वी, रक्तादि के रूप में जल, जठराग्नि के रूप में अग्नि, चेतना अथवा मन के रूप में वायु तथा स्वाभाविक रूप में आकाश तत्व पाये गये।

मत्स्येंद्र नाथ 
            अतः रसेश्वर-दर्शन के अनुसार सिद्ध किए गए पारद के रूप में पंच भूतों का जटिल योग यदि चेतन मानव-देह को दिया जाय तो उसमें कुछ विलक्षण गुण उद्भूत हो जाते हैं। इनके कारण चेतन देह प्रकृति के दिक्-कालिक ढांचे को तोड़ कर उसके नियमों की सीमाओं के बाहर हो जाती है। फिर बार-बार मृत्यु जन्मादि नहीं होते। प्राणी अमर हो जाता है। ‘हठयोगप्रदीपिका’ मे ऐसे सिद्धों का उल्लेख है जो काल दंड को तोड‌ कर ब्रह्मांड मे घूम रहे हैं-

            श्री आदि नाथ-मत्स्येन्द्र-शाबरानन्द भैरवाः।
            चैंरगी मीन-गोरक्ष, विरूपाक्ष बिलेशयाः।।
            ....इत्यादयों महासिद्धा हठयोग प्रयोगतः।
            खण्डयित्वा काल-दण्डं ब्रह्माण्डे विरचन्ति ते।।

अर्थात श्री आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, शाबरानन्द, भैरव, चैरंगी, मीन, विरूपाक्ष, बिलेशय....इत्यादि महासिद्ध हठयोग द्वारा देह सिद्ध करके काल-दण्ड तोड़ कर निखिल ब्रह्माण्ड में विचरण कर रहे हैं।

   हठयोग रसेश्वर दर्शन की प्रमुख धारा है। सिद्ध किया हुआ रस (पारद) सेवन करने से देह में यह चामत्कारिक गुण हो जाता है कि मात्र इच्छा-शक्ति से देह के पाँचों तत्वों को विमुक्त किया जा सकता है। पुनः इच्छा मात्र से उन्हें ब्रह्माण्ड के किसी भी आकाश-खण्ड में पूर्ववत् संघटित भी किया जा सकता है।

    ज्ञानयोग और प्राणयोग द्वारा भी इस अवस्था तक पहुँचा जा सकता है किन्तु अत्यन्त जटिल एवं श्रम-साध्य होने के कारण साधारण व्यक्ति इससे लाभ नहीं उठा सकता। अतः रस-योग ही एक मात्र सुकर उपाय रह जाता है।
गोरक्ष नाथ 
    देह-सिद्धि के इस महा-अभियान का शुभारम्भ लोह-सिद्धि से किया गया। अर्थात पारद के गुणों की परीक्षा पहले धातुओं पर देखी गई। तर्क यह था कि यदि ‘रस’ निकृष्ट धातुओं (नाग, ताम्र, यशद आदि) को उत्तम धातु (सुवर्ण) में बदल सकता है तो वही रस रूग्ण या हीन देह को भी अत्यन्त श्रेष्ठ व विलक्षण गुणों वाली देह में बदल सकता है। परिणामस्वरूप पारद पर अनेकानेक प्रयोग होने लगे।
   अथर्ववेद के अनेक मन्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि वैदिक काल में रस-सिद्धि ज्ञात हो चुकी थी। महर्षि पारद के अचिंत्य गुणों-उपयोगों से भली-भाती परिचित थे। उदाहरणार्थ-
          ऊँ पक्षीज्यायान्यः पतति स आविशति पृरूप्म्।
            तदक्षिप्तस्य भेषजमुभयो: सुक्षतस्य च।   (अथर्व ७-७-३)

प्राचीन भारत मे शल्य चिकित्सा 
    मन्त्र का आशय यही है कि पारद (पक्षी) स्वस्थ अवस्था (अक्षित) तथा रूग्ण (सुक्षत) अवस्था में देह में प्रविष्ट होकर देह को (स्वस्थ हो तो) अजरत्व-अमरत्व, तथा (रूग्ण हो तो) रोग मुक्त करता है।

 पातंजल योग-दर्शनकार-महर्षि पतंजलि ने भी आवागमन के चक्र से मुक्त होने को एक उपाय रसौषधि बतलाता है-


जन्मौषधि मंत्र तप: समाधिजा सिद्धय: ( कैवल्य पाद।1। पातंजल योग दर्शन)

   अर्थात जन्म, औषधि, मंत्र, तप तथा समाधि – इन पांच प्रकारों से सिद्धि प्राप्त होती है ।  
 पतंजलि को भागवत्कार ने प्राचीन पाँच मुनियों में गिनाया है-

            रोमशशच्यवनो दत्तः आसुरीसपतंजलि।
            ऋर्षिवेद शिवा बोध्यो मुनिः पंचशितस्तथा।। (६-१५-१४)

इसका अर्थ यह है कि ईसा से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व, भी रस-सिद्धि पूर्णतः जीवित थी।

     गर्गाचार्य प्रणीत गर्ग-संह्तिा में भी रस-सिद्धि का लोह सिद्धि के रूप में स्पष्टोल्लेख है। संहिता के विश्वजित खंड नामक अध्याय में गुह्मक (यक्ष) राज का पराजित होने पर भेंट में प्रद्युम्न को सौ पारस-पत्थर तथा एक विष्णुदत्त नामक विमान आदि देना सिद्ध करता है कि यक्षों की तत्कालीन सभ्यता अत्यन्त विकसित अवस्था में थी। उन्हें पारद का लोह-सिद्धि के रूप में प्रयोग करना आता था। पारद के गगनगामी (खेचरत्व) गुण का लाभ वे विमानों के ईधन के रूप में उठाना भी खूब जानते थे।
धातुओं के प्रतीक चिन्ह 
  इसके पश्चात चौथी-पांचवी शताब्दी तक पारद का मुख्य प्रयोग लोह-सिद्धि पर ही मिलता है। उस काल में भारत वर्ष का धातु-निष्कर्षण सम्बन्धी कौशल अनेक उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। जाते समय सिकन्दर को उच्च कोटि का लगभग अठ्ठाइस सेर इस्पात नमूने के रूप में भेंट किया गया था। दिल्ली में महरौली स्थित  चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य का लौह स्तंभ भी भारत के धातु-ज्ञान का अनूठा उदाहरण है।

            तीसरी शताब्दी में रस-शास्त्र का असाधारण विद्वान नार्गाजुन हुआ। पहले वह कट्टर एवं कुलीन ब्राह्मण थे। किन्तु बाद में प्रभावित हो कर बौद्ध हो गए । घोर परिश्रम करने के पश्चात नागार्जुन लौह-सिद्धि प्राप्त करने में सफल हो गए  थे। प्रबंधचितामणि के अनुसार रस-शास्त्र का ज्ञान नागार्जुन को पादलिप्तसूरि नामक आचार्य से मिला। उस समय नागार्जुन नालंदा के बौद्ध बिहार के मठाधीश थे। उनके कार्य काल में बिहार में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। भारी संख्या में लोग भूखों मरने लगे। उस समय नागार्जुन ने प्रतिज्ञा की थी-

            सिद्धे रसे करिष्येहं, र्निदारिद्रमिदं जगत्

अर्थात रस-सिद्धि प्राप्त करने पर मैं जगत में दरिद्रता नहीं रहने दूँगा ।

गुरू के आशीर्वाद तथा कठोर परिश्रम से नागार्जुन की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई। अपनी खोज को ‘लोह-शास्त्र’ नामक पुस्तक के रूप में उन्होंने लिपिबद्ध भी कर लिया था। किन्तु दुर्भाग्यवश यह पुस्तक अभी तक प्रकाश मे नहीं आ सकी है।

            रस-सिद्धि के साथ नागार्जुन इसलिए भी अधिक जुडे है कि इस क्षेत्र में उन्होने मौलिक कार्य भी किया था। रसक (यशद) का पारद-रंजन में सर्वप्रथम प्रयोग उन्होंने ही किया था। उनका कहना था-

            रसश्च रसकश्चोभौ, येनाग्नौ सहनौ कृतौ।
            देहलोह मयी सिर्द्धि दासी तस्य न संशय:।।

अर्थात रस (पारद) और रसक (यशद) को जिसने अग्निस्थाई कर लिया है, देह तथा लोह की सिद्धियाँ उसकी दासी के समान हो जाती हैं।

दुर्भाग्य वश देह-सिद्धि का स्पष्ट उल्लेख किये बिना नागार्जुन की अकाल मुत्यु हो गई।
प्राचीन रसशाला 
           
    सातवीं-आठवीं शताब्दी में भारतवर्ष में पारद पर इतना अधिक कार्य हुआ कि सारे संसार का कुल कार्य भी उसके सामने न ठहरेगा। इस काल मे वैसे तो रस-सिद्धों के अनेक संप्रदाय थे लेकिन मुख्यतः इन्हें दो ही भागो में बाँटा जाना चाहिए। पहले प्रकार में वे रस-सिद्ध आते हैं जिन्होंने विशुद्ध यांत्रिक पद्धति का आश्रय लिया, और रस सिद्धि को जाटिलताओं से बचाते हुए अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुत किया। इस परम्परा में आते हैं-  नागार्जुन द्वितीय (रस-रत्नाकर), श्री गोविंदभगवत्पादाचार्य (रस हृदय तंत्र) तथा यशोधर (रस प्रकाश सुधाकर)

    दूसरी ओर वे रस-सिद्ध थे जिन्होने मन्त्रों व तंत्रों का रस-सिद्धि में समावेश करके उसे जटिल और दुरूह ही नहीं बनाया व्यावहारिकता से भी कोसों दूर कर दिया। इन संप्रदायों में शैव, कापालिक, मुण्डी, जटी, भैरव, आदि प्रमुख हैं। इन सिद्धों ने रस (पारद) को शिव का वीर्य  तथा गंधक व अभ्रक को क्रमशः पार्वती जी का राज तथा शुक्र बताया-

            अभ्रकस्तव बीजंतु मम बीजंतु पारदः।
            अनर्योमेलनं देवि, मृत्युर्दारिद्रय नाशनः।। (र० र० स०)

अर्थात हे पार्वती ! तुम्हारा बीज अभ्रक तथा मेरा बीज पारद है। इनके परस्पर मिलने से संसार मृत्यु तथा दरिद्रता रहित हो जाता है।

      भैरव तंत्र में अश्लीलता चरम सीमा पर पहुँच गई थी। इन भैरवों का समाज में आतंक इतना बढ़ गया था कि महाराज हर्षवर्धन ने पाँच हजार भैरवों, तांत्रिकों का वध करा दिया था।

       ग्यारहवीं शताब्दी में जब अलबेरूनी भारत आया तो रस-विद्या का प्रखर सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। विद्या फलविहीन हो चली थी, इसलिए शायद आयुर्वेद प्रकाशकार को कहना पड़ा-

            रसविद्या ध्रुवं गोप्या, मात्र गुह्म मिवध्रुवम।
            भवेद्वीर्यवतीगुप्ता, निर्वीयास्यात्प्रकाशनात्।।

     अर्थात रस-विद्या निश्चय ही गोपनीय है, माता के गुह्य-स्थान की भाँति गुप्त रखने पर वीर्यवती तथा प्रकट करने पर फलहीन हो जाती है।

   धीरे धीरे रसविद्या श्रीहीन होती गई, और आज स्थिति यह है कि इसे संदेह से देखा जाने लगा है।

पारद के संस्कार ‌- 

रस-विद्या के संक्षिप्त तथा ऐतिहासिक विचेचन के प्रश्चात हम देखेंगे कि विभिन्न तंत्र-ग्रन्थों में रस-सिद्धि के लिए पारद पर क्या -क्या संस्कार किए जाते  हैं-

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पारा  (Mercury) हानिकारक धातु है। बिना संस्कारित किये इसके सेवन से मौत भी संभव  है। अत: पहले इसके आठ संस्कार करके सभी अशुद्धियों को निकाला जाता है। ये आठ संस्कार किसी भी क्रिया से पहले अनिवार्य हैं । इस प्रकार पारे के संस्कारों को तीन वर्गों मे बांट सकते हैं  -

शोधन

1. स्वेदन 2. मर्दन 3. मूर्च्छन 4. उत्थापन 5. ऊर्ध्व पातन  6. तिर्यक पातन 7. निरोधन. 8. नियामन तथा. 9. दीपन.  
लोह वेध
10. चारण 11. जारण. 12. गर्भ द्रुति 13. बाह्य द्रुति 14. गगन भक्षण 15.रंजन, 16. सारण 17. लोह वेध.

देहवेध(18).    

   यदि ये अठारह संस्कार शास्त्रोक्त विधि से किये जाएं तो पारे में विलक्षण गुण उत्पन्न हो जाते हैं। कई संस्थाएं इस दिशा में प्रयत्नशील हैं किन्तु अभी तक पारद के सभी  संस्कार करके सिद्धि मिलने की सूचना नहीं है। जो रससिद्ध आकाश- काल के बन्धन तोड़ कर अमर हो गये हैं उनकी कृपा दृष्टि हो जाय तो कुछ भी अंसभव नहीं। सरकार चाहे तो यह  विलुप्त विद्या पुनः जीवित हो सकती है।

    कुछ अप्रकाशित तथा प्रकाशित रस-ग्रन्थों में पारद के दो या तीन ही संक्षिप्त संस्कार भी उपलब्ध  हैं। उन गुप्त एवं अस्पष्ट सूत्रों की समुचित व्याख्या होने पर वेध तथा देह-सिद्धि तक आसानी से पहुँचा जा सकता है। जैसे-
ऊर्ध्वपातन यंत्र 

सहस्त्र वेधी पाषाणं माक्षिकं च मनःशिला।
हिंगुलं तालकंचैव  हारिद्राख्यं च गंधकम।।.....
षट्त्रिंशत्पुट मात्रेण धूमवेधी भववेद्रसः।
लोहसिर्द्धियथैवाभूद् देहसिर्द्धिभवेतथा।

अर्थात पारद, स्वर्ण माक्षिक, मनःशिला, हिंगुल, हरिताल, हल्दिया विष, गंधक...................को समान भाग लेकर छत्तीस ग्रास  देने से पारद धूमवेधी हो जाता है। इस योग से जैसे लोह-सिद्धि होती है, वैसे ही  देह-सिद्धि भी होती है।

            आधुनिक विज्ञान के आधार पर रस-सिद्धि की व्याख्या कर पाना अत्यन्त कठिन  है किंतु  इसके आशय को समझना सुगम है। नाभिकीय भौतिकी द्वारा कुछ सीमा तक इसे समझा जा सकता है । जब पारद में गंधक, अभ्रक, सुवर्ण आदि रसोपरसों का जारण कराया जाता है तो इन पदार्थों के नाभिकों के विखण्डन द्वारा उत्पन्न न्यूट्रान कणों के कारण पारद के न्यूट्रान-प्रोटानों का अनुपात 1:5  से अधिक हो जाता है। जब यह अनुपात लगभग 2  या अधिक हो जाता है तो पारद में कृत्रिम  रेडियो एक्टिवता का गुण आ जाता है। ऐसा पारद लोह-सिद्ध कहलाता है। यह क्षमता जब 4  या 5  तक बढ़ जाती है तो पारद इतना शक्तिशाली हो जाता है कि स्पर्श मात्र से ही वह सब धातुओं का वेध कर सकता है।

प्राचीन भारत मे स्टील 
  अंततः एक ऐसी अवस्था आ  जाती है कि पारद शक्ति-पुंज बन जाता है। ऐसा पारद शरीर की कोशिकाओं के लिए नाभिकीय रिएक्टरों की भाँति कार्य करने लगता है । अब साधक को भोजन, जल, वायु आदि किसी अन्य ऊर्जा-स्त्रोत की आवश्यकता नहीं रहती।

     अन्त में श्री गोविंदभगवत्पादाचार्य के शब्दों में यही कहा जा सकता है-

            भोगाः सन्ति शरीरे तदनित्यमहो वृथा सकलम।
            इति धनशरीरे भोगान् मत्वानित्यान् सदैव यतीनाम्।।
            मुक्तिस्तस्य न ज्ञानात्तच्चाभ्यास्यात् स्थिरे देहे।
            तत्स्थैर्ये न समर्थ रसायनं किमपि मूल लोहादि
            स्वयमस्थिर स्वभाव दाह्मं, क्लेद्यं च शोष्यं च।।

      अर्थात् भोगादि सब शरीर से हैं, शरीर नाशवान है। अतः ये सब व्यर्थ हैं। मनुष्य की मुक्ति केवल ज्ञान से है, ज्ञान अभ्यास से, तथा अभ्यास शरीर के स्थिर होने से ही संभव है। यदि ऐसी स्थिरता देने में रसायन समर्थ नहीं है तो क्या लाभ ? क्योंकि (पारद के अतिरिक्त) अन्य लौह, औषधियां आदि स्वयम् ही अस्थिर स्वभाव वाले है-जल सकते हैं, सूख सकते हैं तथा भीग सकते हैं।

(समाप्त
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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.

1 टिप्पणियाँ:

  1. बहुत ही अच्छा और शोधपूर्ण आलेख है आपको हृदय से आभार और धन्यवाद जी,
    आप जब भी कोई आलेख लिखें तो मेरे नंबर 7000860092पर भी इनबॉक्स में भेजने की कृपा करें जी ।।

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