लोक
भाषा क्या है : लोक भाषा से अभिप्राय है – समाज के किसी विशिष्ट सांस्कृतिक समूह द्वारा
बोली जाने वाली वह भाषा, जो उस समाज के साथ ही जन्मी हो, विकसित हुई हो, व जो अपने समाज के सभी लोक तत्वों जैसे रीति-रिवाज, विश्वास, परम्पराएँ, संस्कृति, उत्सव, त्यौहार, पर्व आदि को समाहित किए हो । लोक भाषा की
संरचना तथा विकास में भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, पारंपरिक या ऐतिहासिक- कई कारण निहित
हो सकते हैं। शब्दों का तद्भव स्वरूप हो, व्याकरण हो, स्वर-व्यंजनों का उच्चारण, या फिर देशज शब्दों
का प्रयोग- ये लोक भाषा का न केवल स्वरूप निश्चित करते हैं बल्कि उसके अभिन्न अंग
भी होते हैं ।
किसी भी भाषा को किस आधार पर लोकभाषा का दर्जा
दिया जाय, यह निश्चित किया जाना भी आवश्यक है । पहला आधार तो यही हो सकता है कि उस
भाषा का जनाधार क्या है । किस संख्या मे वह बोली, लिखी
व पढ़ी जाती है। दूसरा आधार यह हो सकता है कि उस भाषा में कितना लोक साहित्य उपलब्ध
है। उस साहित्य में लोक जीवन की कितनी विशेषताएँ मौजूद हैं। वह कितनी प्राचीन है।
उसमें कौन कौन से ऐतिहासिक व सांस्कृतिक तत्व विद्यमान हैं जो उस लोक भाषा को उस
देश की व्यापक संस्कृति के साथ सूत्रबद्ध करते हैं। स्वतंत्रता
से पूर्व सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने सन् 1888 में भाषाई सर्वेक्षण कराया था।
स्वतंत्रता के बाद भारत में लोक भाषाओं के जो दो सर्वेक्षण (1961 तथा 1971) हुए, उनमें उन्हीं भाषाओं की गणना की गई, जिन्हें कम
से कम दस हजार लोगों से अधिक लोग बोलते थे।
विकीपीडिया के
अनुसार : भारत सरकार ने सन् 1888 में ग्रियर्सन की अध्यक्षता में भाषा सर्वेक्षण का कार्य प्रारंभ किया। सन् 1888 से 1903 तक उन्होंने इस कार्य के लिये सामग्री संकलित की। सन् 1902 में नौकरी से अवकाश ग्रहण
करने के पश्चात् सन् 1903 में जब उन्होंने भारत छोड़ा सर्वे के विभिन्न खंड क्रमश: प्रकाशित होने लगे। वह 21 जिल्दों में है और उसमें भारत की 179 भाषाओं
और 544 बोलियों का सविस्तार सर्वेक्षण है। साथ ही
भाषाविज्ञान और व्याकरण संबंधी सामग्री से भी वह पूर्ण है। ग्रियर्सन कृत सर्वे
अपने ढंग का एक विशिष्ट ग्रंथ है। उसमें हमें भारतवर्ष का भाषा संबंधी मानचित्र
मिलता है और उसका अत्यधिक सांस्कृतिक महत्व है। दैनिक जीवन में व्यवहृत भाषाओं और
बोलियों का इतना सूक्ष्म अध्ययन पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध और अशोक की धर्मलिपि
के बाद ग्रियर्सन कृत सर्वे ही एक ऐसा पहला ग्रंथ है जिसमें दैनिक जीवन में बोली
जानेवाली भाषाओं और बोलियों का दिग्दर्शन प्राप्त होता है।
लगभग अस्सी वर्ष
बाद सन् 1961 में पुन: भाषा सर्वेक्षण हुआ, जिसमें कुल 1652 लोक भाषाएँ/बोलियां पंजीकृत की
गई थी। उसके दस वर्ष बाद, सन 1971 में जो सर्वेक्षण हुआ, उसमें केवल 150 लोक भाषाएँ पंजीकृत की गई। सन् 1971 के बाद से अब तक कोई
भाषाई सर्वेक्षण न होना लोकभाषा के प्रति हमारे अनुत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण को
दर्शाता है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 190 भाषाएं/बोलियां
लुप्त होने की कगार पर हैं और पांच तो लुप्त हो ही चुकी हैं । भारत के लिए यह चिंता का विषय है, क्योंकि
सांस्कृतिक बहुलता और भाषायी विविधता भारत की पहचान और गौरव है.
लोकभाषा
के जीवनीय तत्व : भारतेंदु युग से कुछ पहले तक हिन्दी शब्द हिन्दुस्तान में रहने वालों
के अर्थ में अधिक, व भाषा के अर्थ में बहुत कम प्रयोग होता था।
खड़ी बोली वाली हिन्दी भाषा के लिए या तो भाखा शब्द प्रचलित था, या फिर हिंदोस्तानी, हिंदवी या फिर रेख्ता आदि।
स्वयं भारतेंदु जी ने हिन्दी भाषा को व्यापक अर्थ में लेते हुए इसे “निज भाषा” कहा
है। निज भाषा से उनका तात्पर्य नि:संदेह ऐसी अरबी-फारसी, देशज मिश्रित हिन्दी से था, जिसे भारत की अधिकांश
जनता समझती थी। समझती ही न थी,बल्कि प्रयोगमें भी लाती थी ।
इस अर्थ में भारतेंदु युग की पद्य व गद्य की भाषा को लोक भाषा कहना अनुचित न होगा। पद्य में इस युग की भाषा ब्रज थी । थोड़ा बहुत जो काव्य खड़ी बोली में लिखा
भी गया, उसका स्वरूप भी भारतेंदु युग में ही निर्धारित
हो रहा था। दूसरे वह स्वरूप भी शिष्ट साहित्य के प्रतिबंधों से मुक्त जन साधारण की
बोलचाल वाला था। गद्य में तो आम बोलचाल की
हिन्दी का ही अधिकांशत: प्रयोग किया गया।
आलोच्य
युग में काव्य की भाषा : साहित्य सृजन की भाषा की दृष्टि से भारतेंदु
युग हिन्दी साहित्य का निर्णायक काल है। इसी युग से हिन्दी ब्रज व अवधी आदि क्षेत्रीय भाषाओं के प्रभाव से मुक्त हो कर एक सशक्त संपर्क भाषा
का आकार ग्रहण करने लगती है ।
किन्तु चूंकि यह
युग संधिकाल था, अत:
तत्कालीन कवि परंपरा से चली आ रही ब्रज आदि भाषाओं को एकाएक नहीं छोड़ सके । भारतेंदु मंडल के प्राय: सभी कवियों ने गद्य की रचनाएँ तो खड़ी बोली में लिखीं जबकि काव्य की भाषा के रूप में उन्होने ब्रज
भाषा का अधिक आश्रय लिया । कारण शायद यही था कि ब्रज
आदि भाषाएँ काव्य की भाषा के रूप में न केवल पहले से ही स्थापित थीं, बल्कि उनमें लोक तत्व को अभिव्यक्त करने की क्षमता उस समय खड़ी बोली से
बहुत अधिक थी । कजरी, चैती, आल्हा लावनी, होली, कबीर जैसी लोक शैलियों में तत्कालीन कवि कटु युग सत्य को जन साधारण तक बहुत आसानी से पहुँचा सकते थे
। सन् 1875 में लिखी
भारतेंदु जी की कविता का एक अंश उल्लेखनीय है । इस कविता में कवि ने विदेशी
वस्त्रों का बहिष्कार सशक्त शब्दों में किया है :
मारकीन मलमल बिना चलत
कछू नहिं काम ।
परदेसी जुलहान के मानहुं
भये गुलाम ॥1
इस उदाहरण में
छंद यद्यपि दोहा है, किन्तु
विषय वस्तु दार्शनिक, आध्यात्मिक, पारलौकिक या भक्ति भाव न होकर उस काल का कड़वा सच है । वही कड़वा सच, जो देश को दरिद्रता के गर्त में धकेल रहा था ।
वस्तुत: आलोच्य
कालीन कवियों ने
प्राय: परंपरा से चले आ रहे छंदों का ही प्रयोग किया ।
पूर्ववर्ती भक्ति और रीति काल के अधिकतर प्रयोग होने वाले कवित्त, सवैया, रोला, दोहा, छप्पय आदि छंदों का इस युग के शिष्ट साहित्य में भी उसी तरह प्रयोग होता
रहा । लोक साहित्य के लिए कजली, गज़ल,चैती, होली, लावनी, बिरहा, बारहमासा आदि छंदों तथा जातीय संगीत के
लिए उपयुक्त शैलियों जैसे फाग, आल्हा आदि का अधिक
प्रयोग किया गया। एक अन्य उदाहरण में तत्कालीन कवि
बालमुकुन्द गुप्त भारतीयों की अंधानुकरण की
प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं :
सेल गई बरछी गई , गए तीर तलवार ;
घड़ी छड़ी चसमा भए , छत्रिन के हथियार ।
जिनके कर सों मरन लौं छुटयो न कठिन कृपान;
तिनके सुत
प्रभु-पेट हित भए दास दरबान ।
विप्रन छोड्यो
होम तप अरु छत्रिन तलवार ;
बनिकन के पुत्रन
तज्यो अपनों सदव्यवहार ॥1
(
हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास : गणपति चन्द्र गुप्त : पृष्ठ 36 )
ब्रजभाषा के साथ
साथ खड़ी बोली का प्रयोग भी यद्यपि इस काल खंड में हुआ है, किन्तु
शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह का भाव नहीं दिखाई पड़ता। उर्दू , हिन्दी, देशज आदि सभी प्रचलित शब्दों का प्रयोग
नि:संकोच किया गया है, ताकि सामान्य शिक्षित व्यक्ति को भी समझ में आ जाय कि कवि कहाँ चोट करना
चाहता है । नारी शिक्षा के समर्थन में जब सुधारवादी आंदोलन होने लगे तो आधुनिक
शिक्षा प्राप्ति के लिए युवतियां भी युवकों के साथ विद्यालय में पढ़ने लगीं
।अंग्रेजी पढ़ने वाली उन युवतियों के माध्यम से
कवि ने नारी में आ रहे बदलावों का सजीव शब्द-
चित्र प्रस्तुत किया है :
बात वह अगली सब
सटकी, बहू मैं जब थी घूंघट की ।
मजा अब सुख का
पाया है, स्वाद शिक्षा का आया है ।
खुले अब नैन
नींद गई टूट , बुद्धि के पर आए हैं फूट ।
घुटावें क्यों पिंजरे में दम, नहीं कुछ अंधी चिड़ियाँ हम
। 2
भारतेंदुयुग के एक अन्य
कवि थे बाबू रामकृष्ण वर्मा (सन् 1859-1906)।
इन्होने समस्यापूर्ति के माध्यम से नई बातें कहने
की परंपरा को आगे बढ़ाया । अपने समय के अनेक
कवियों की समस्या पूर्तियाँ इन्होने अपने ग्रंथ ‘ समस्या
पूर्ति’(सन् 1896) में
संकलित कीं । इसी संकलन में पत्तनलाल नामके एक कवि की समस्यापूर्ति दी गई है । इस
कवित्त में युग बोध का अत्यंत वास्तविक चित्रण हुआ है । इस कविता से तत्कालीन
सामाजिक व आर्थिक अवस्था पर काफी प्रकाश पड़ता है । अंग्रेज सरकार में महँगाई अपनी
चरम सीमा पर थी । आय कर, सफाई कर, पेय जल कर आदि कितने ही टैक्स शहरी जनता पर लाद दिये गए थे । टैक्सों के बोझ तले कराहती जनता का दर्द सुनने वाला कोई न था :
(
1-2. हिन्दी साहित्य
का वैज्ञानिक इतिहास : गणपति चन्द्र गुप्त : पृष्ठ 36-37 )
आयो विकराल काल
भारी है अकाल ,
पर् यो पुरै नाहिं खर्च घर भर की कमाई में ।
कौन भाँति देवें
टैक्स, इनकम लेसन,
औ पानी की पियाई लैटरन की सफाई में ॥
कैसे हैल्थ साहब
की बात कछू कान करें,
पड़े न सुसील भूमि पोढ़ें चारपाई में ॥
किमि कै बचावें
स्वांस और कौन ओर घुसें,
सोवें साथ चार चार एक ही रज़ाई में ॥1
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस काल की काव्य भाषा प्रमुख रूप से रीतिकालीन ब्रजभाषा ही है, किन्तु पूर्ववर्ती
भाषा की तरह उसमें किसी भाषा विशेष के शब्दों के प्रति कोई आग्रह नहीं है। मुख्य
ध्यान शब्दों पर नहीं, कथ्य पर दिया गया है। इस काल की
भाषा में कुछ ऐसे तत्व हैं जो अन्य किसी काल की भाषा में नहीं मिलते, जैसे स्वच्छंदता, जिंदादिली, स्पष्टवादिता, लोकभाषा व लोक शैली के छंदों का
अधिकाधिक प्रयोग, सामाजिक, आर्थिक
राजनीतिक धार्मिक बुराइयों का खुल कर विरोध, स्वदेश
प्रेम, राष्ट्रीय भावना, हास्य-व्यंग्य
आदि।
आचार्य शुक्ल ने कहा है –“हरिश्चंद्र तथा
उनके समसामयिक लेखकों में जो एक सामान्य गुण लक्षित होता है, वह है सजीवता या जिंदादिली। सबमें हृदय या विनोद की मात्रा थोड़ी बहुत पाई
जाती है। सबसे स्मरणीय बात यह है कि उन पुराने लेखकों के हृदय का मार्मिक संबंध
भारतीय जीवन के विविध रूपों के साथ पूरा-पूरा बना
था। भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने वाले त्यौहार , उनके
मन में उमंग उठाते, परंपरा से चले आते हुए आमोद-प्रमोद
के मेले उनमें कौतूहल जगाते और प्रफुल्लता लाते थे”2 ।
1.
साहित्य हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास : गणपति चन्द्र गुप्त : पृष्ठ- 38
2 आ॰ रामचंद्र शुक्ल : हिन्दी
साहित्य का इतिहास : पृ.326
(क्रमश:)
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