व्यंग्य दिवालिया

  अंग्रेजी में एक शब्द है-लूनेटिक, इसका आमतौर पर पागलों के लिये इस्तेमाल होता है। लूना चांद का एक नाम है। इस तरह देखें तो लगता है चांद का संबंध पागलपन से भी है। ऐसे लोग पूर्णिमा को अक्सर पागलपन की हरकतें करते हैं।

  अजीब बात है। जिस चांद पर कवियों ने बेहिसाब गीत, गज़लें, शेर वगैरह लिखे, प्रेमिका की खूबसूरती की तुलना पूनम के चांद से की, वही चांद इन्सान के पागलपन की भी वजह बनेगा- किसी ने सोचा तक न था।

  हिन्दी में भी एक ऐसा ही शब्द है-दिवालिया, डिक्शनरी में इसका अर्थ है-जिसका दिवाला निकल गया हो। चलो मान लिया। मगर एक सवाल अब भी बाकी है- ये दिवाला आखिर है क्या ? ये निकलता क्यों है ? निकलना अगर जरूरी है तो निकलता कैसे है ? किस रफ्तार से निकलता है ? इसका निकलना न निकलना किन-किन तत्वों पर निर्भर करता है ?

  वैसे नाम नहीं बताऊंगा-एक बहुत बड़े अर्थशास्त्री हो गए हैं। उन्होनें दिवाले का नाता दिवाली से जोडा है। मतलब कि-दिवाला उसका निकलता है-जो दिवाली के त्योहार को बड़ी धूम-धाम से, बड़े जोश-खरोश के साथ खुले हाथ से मनाता है। अगर हाथ तंग हुआ तो क्रेडिट कार्ड मदद को आगे आ जाता है। मन की मुराद पूरी हो ही जाती है।

  सच पूछिये तो दीवाली का त्योहार बना ही है इन जैसे दिलेरों के लिये। अब आठ-दस हजार जेब में डाल कर दिवाली की शॉपिगं करने का वक्त गया। अब तो बस क्रेडिट कार्ड रखिये जेब में। और फिर बेखौफ हो कर घुस जाइये किसी भी शॉपिंग मॉल में। खुल कर शॉपिंग कीजिये क्रेडिट पर ! ऋणं कृत्वा घृतं  पिबेत।

  भला वह भी कोई दिवाली हुई जिसमें आपका दिवाला ही न निकल सके ! हमारे शॉपिंग मॉल पूरे तीन सौ चौंसठ दिन इस उत्सव की तैयारी करते हैं। रेडीमेड कपड़ों की सेलों से जो कपड़े बच जाते हैं उन्हीं की ग्रैंड क्लियरिंग सेल इस त्योहार पर लगाते हैं बेचारे। दिवाली बंपर की पचास फीसदी छूट भला किसका मन न मोहती होगी ! हजार की जींस सिर्फ पांच सौ में ! बिल्कुकल लूट के भाव। जी हां, ये आश्चर्य किन्तु सत्य है। आपको यही तोहफा पेश करने के लिये शॉपिंग माल साल भर से आपकी बाट जोह रहे थे। इतना सस्ता माल लुटता देख आप साल भर के कपड़े एक ही झटके में बंधवा लेते हैं। श्रीमती जी का सूटों व सर्दियों का सालाना कोटा भी उठा लिया जाता है। जब मियां-बीवी साल भर का कपड़ा एक साथ रखवा रहे हों तो बंटी और बबली ने क्या गुनाह किया है ? उनके लिये भी शर्ट, टी शर्ट, पैंट, जींस, टॉप, बॉटम, भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे के तमाम कपडे़ आपके एक इशारे पर पैक हो जाते हैं। सेल्स गर्ल इतनी विनम्रता से झुकी-झुकी जा कर, मुस्करा कर आपका माल पैक करती है मानो पिछले जन्म में आप कोई सुल्तान रहे हों और वह आपकी बांदी।

  कपड़ों के गिफ्ट पैकों से लदे जब आप मॉल से बाहर निकलते हैं तो आपके चेहरे पर विश्वविजेता की सी मुस्कान छाई होती है। ऐसी मुस्कान उन राजाओं के चेहरों पर भी जरूर रहा करती होगी, जो दुश्मन राजा का मुकुट सहित शीश काट कर फौज के साथ राजधानी लौटा करते थे।

दिवाली से पहले एक त्योहार और होता है। नाम है धनतेरस। इस रोज बरतन खरीदे जाते हैं। बताते हैं इस दिन बरतन खरीदने से लक्ष्मी आती है। पर यह नहीं बताते -लक्ष्मी खरीदने वाले के घर आती है या दुकानदार के ?

  पहले तो लोग शगुन के लिये एकाध गिलास-कटोरी खरीदा करते थे। कम से कम इनवेस्टमेंट करते थे। लक्ष्मी आ गई तो वारे-न्यारे, नहीं भी आई तो गम नहीं होता था। वह युग था कैश परचेज़िंग का। बड़ा भींंचू युग। एक रूपया निकालने के लिये हाथ बंडी की जेब में जाता तो बाहर निकलने का रास्ता ही भूल जाता था। और आज ! आज युग है क्रेडिट परचेज़िंग का। आज जमाना है-माइक्रोवेव, डिशवाशर, इंटेलीजेंट प्योरीफायर का, एलसीडी टीवी का, हैंडीकैम का। आज जमाना है चांदी के डिनर सेट का। पैसे  की कोई टेंशन ही  नहीं। क्रेडिट कार्ड है न !

  वाह ! क्या रौब पड़ता है सोसायटी पर, जब आप टैक्सी से एलसीडी टीवी, या माइक्रोवेव उतरवाते हैं। सब छुप-छूप कर देखते हैं-कोई बालकनी से, कोई अधखुले दरवाजे से, तो कोई खिड़की से। सभी अलग-अलग एंगल से आपकी वीरता का लाइव टेलीकास्ट देखते हैं। आपके होंठों पर उस वक्त एक गाना उठता है- ले जायेंगे, ले जायेंगे दिलवाले दुलहनियां ले जायेंगे।

  दिवाली की शॉपिंंग  हो और जेवरों का जिक्र न हो। ये कैसे सकता है ? तीन-चार महीने पहले से ही जेवरों के बारे में श्रीमती जी आपकी जानकारी अपडेट करने लगती हैं। जैसे कि अब गोल्डन ज्वेलरी का क्रेज कम हो रहा है। पांचवे माले की मिसेज़ इनामदार ने डायमंड सेट खरीदा है। पार्टी में कैसे मटक-मटक कर घूम रही थी ? आपकी, इनामदार की सेलरी  तो बराबर है। फिर उसकी बीवी आपकी बीवी पर भारी क्यों ? एक ही तरीका है पटकनी देने का। आप मेरे लिये प्लेटिनम सेट बनवाइये। यही तो होते हैं मौके अपनी शान-शौकत दिखाने के ?

नतीजा यह निकलता है कि आप श्रीमती जी को दिवाली पर प्लेटिनम सेट देने का वादा कर डालते हैं।

  सेट खरीद कर जब श्रीमती जी सोसायटी के गेट के भीतर प्रवेश करती हैं- उनका पहले से ही विराट सीना गर्व से और भी फूल जाता है। वह बार-बार इनामदार के फ्लैट की तरफ देखकर हंसती हैं व बातें मुझसे करती हैं कनखियों से मिसेज इनामदार का उतरा चेहरा भी देख लेती हैं।

  दिवाली नाम के इस त्योहार पर आपका जो बेसब्री से इंतजार करते हैं- उनमें हमारे हलवाई भाई भी हैं। तीन-चार महीने पहले से ही तैयारी में लग जाते हैं। सिंथेटिक मावे के मार्केट में सैकड़ों सप्लायर आ गये हैं। उनकी क्वालिटी चेक करना। जो चीप एंड बैस्ट हो-उसे ढाई तीन कुंटल मावे का आर्डर करना ताकि आखिरी वक्त पर अफरातफरी न मचे।

  और इसी तीस रूपये किलो के मावे की बरफी जब हमारे हलवाई भाई आपको चार सौ रूपये किलो के भाव से पेश करते हैं तो उनके चेहरे पर फूटती खुशी दिल को बाग़-बाग़ कर जाती है। लक्ष्मी मइया के प्रति उनका सिर झुकता ही चला जाता है। यही ‘खालिस मावे’ की बरफी जब आप चाव से खाते खिलाते हैं तो छत की मुंडेर पर बैठा आपका डाक्टर हंसते हुए गा  रहा होता है-‘आजा प्यारे, पास हमारे, काहे घबराए, काहे घबराए ?’

  दिवाली पर असली धाक तो जमती है रोशनी से व आतिशबाजी से। यहां भी ग्रैंड सेल लगाए दुकानदार आपका ही इंतजार करता है। पांच हजार के पटाखे व लड़ियां आपको तीन-साढ़े  तीन हजार तक मिल जाती हैं। वो भी क्रेडिट कार्ड से।

  घर को रंगबिरंगी लड़ियों से व मिट्टी के दीपों से सजाने के बाद आप बंटी बबली के साथ पटाखे फोड़ते हैं। फुलझड़ी, अनार, रॉकेट, सुतली बम, चर्खी, चकरी, आसमानी अनार, और आकाशवाणी जैसे पटाखों का दौर रात गए तक चलता रहता है।

  ऐसी मजेदार दीवाली बीतने का पता तब चलता है- जब कपड़ों के, ज्वेलरी के, पटाखों के, मिठाई के बिल एक के बाद एक आने लगते हैं। आपके पैरों तले की जमीन खिसकने लगती है। आंखों के आगे अंधेरा इस कदर छा जाता है कि बिल की रकम दिखाई नहीं पड़ती। जितनी पगार, उससे ज्यादा की किश्तें। एक दिन की दिवाली के बाद अब शुरू होता है दिवाला, जो सास-बहू के सीरियल की तरह जाने कब तक चलेगा ?

  तो ये किश्तें भरते-भरते आपकी जो दशा हो जाती है उसी को विद्वानों ने दिवाला निकलना कहा है। तथा इस पूरे घटना-चक्र के नायक ‘आप’ ही कहलाते हैं दिवालिया !

  धन्य है वह अर्थशास्त्री, जिसने दिवाली, दिवाले और दिवालिये में समीकरण खोजा।

 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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