लेख- परीक्षाओं पर विपक्ष का विधवा विलाप

       बड़े दुख की बात है कि आज देश का समूचा विपक्ष मिल कर उन महत्वपूर्ण परीक्षाओं को रद्द करने के लिए आंदोलन कर रहा है जिनमे देश के बीस लाख छात्र छात्राओं को  बैठना  है। इन नेताओं को शर्म तो क्या आएगी, पक्के बेशर्म हैं, फिर भी कहना जरूरी है कि ये विपक्षी दल उस परीक्षा को रद्द कराना चाहते हैं, जिनके माध्यम से हमारे देश का मानव संसाधन चुन कर आता है और देश सेवा मे भागीदार बनता है।
    सिर्फ ग्यारह बच्चे सुप्रीम कोर्ट गए थे कि ये परीक्षाएं रद्द की जाएं।
     प्रश्न उठता है कि क्या ये ग्यारह बच्चे बीस लाख परीक्षार्थियों के प्रवक्ता हो सकते  हैं ? क्या कोरोना सिर्फ इन्ही ग्यारह बच्चों के लिए था ? क्या कोरोना उनके लिए नहीं था, जो परीक्षा देना चाहते थे ?
     इन चंद युवाओं को अगर कोरोना की आशंका है तो परीक्षा न दें। कौन रोक रहा है ? जबरदस्ती परीक्षा मे बैठना ही है – ऐसा भी नही है।  परीक्षा देना न देना इनका अधिकार है, व्यक्तिगत निर्णय है। ऐसे मे ये सभी बच्चों की परीक्षा रुकवाने सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंच गए ? इन्हें क्या अधिकार था और बच्चों के अधिकारों मे दखल देने का ? क्या यह माना जाए कि इन बच्चों को राजनीतिक दलों का समर्थन मिला हुआ था ?  उद्देश्य था कोरोना का भय दिखा कर सरकार को सही फैसला लेने से रोकना । ये संकीर्ण राजनीतिबाज यहां भी वोटों की रोटियां सेकने की जुगाड़ मे थे ।
      जब कोरोना के चलते शराब की दूकानें खुली रह सकती हैं, बाजार खुले रह सकते हैं, सौ पचास लोगों के सामूहिक कार्यक्रम भी हो सकते हैं, तो फिर परीक्षाएं क्यों नहीं हो सकतीं?
       आखिर क्यों इस संवेदनशील मुद्दे पर भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय को ही दखल देना पड़ता है ? क्या विधायिका को नही देखना चाहिए कि शिक्षा और परीक्षाएं किसी भी देश और उसके युवा के लिए कितनी जरूरी हैं ? दो दो तीन तीन सालों से रेलवे  और एसएससी जैसी परीक्षाओं के परिणाम घोषित नही किये गए ! कभी परीक्षाओं की तिथि नही बताई जा रही । और कहीं परीक्षाओं के परिणाम निकलने के बाद साक्षात्कार नहीं हो रहे। साक्षात्कार हुए तो फाइनल सेलेक्शन लिस्ट जारी नही हुई। लिस्ट जारी  हुई तो नियुक्तियां नहीं मिलीं!
       क्या है ये सब ? लोकतंत्र को जोकतंत्र क्यों बनाया जा रहा है ? जब पार्टियां सत्ता मे आती हैं तो वादे करती हैं कि हर साल दो करोड़ लोगों को नौकरी देंगे । फिर सत्ता मे आने के बाद वे अपना वादा पूरा क्यों नहीं करतीं ? इस अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे को इतने हलके मे क्यों लिया जाता है ? विश्वास घात क्यों किया  जाता है युवाओं के साथ ? क्या सत्ताधारियों को पता नही है कि नौकरी से ही युवा का जीवन चलेगा, वेतन से ही वह अपने मां बाप का कर्ज उतार पाएगा ? जिस नौकरी के बूते युवा भविष्य  के ताने बाने बुनता है- उसी नौकरी को लेकर सत्ता पक्ष इतना लापरवाह दृष्टिकोण आखिर क्यों दर्शाता है ?  
      सच पूछिए  – ये हमारी स्वार्थी, भ्रष्ट, बीमार  और कमजोर हो चुकी विधायिका के लक्षण हैं। झूठ बोलो, धोखाधड़ी करो, सांप्रदायिकता फैलाओ, कुछ भी करो लेकिन सरकार बननी चाहिए । जो आश्वासन देकर पार्टियां सत्ता मे आती हैं उन पर अमल करना उनका नैतिक ही नही राष्ट्रीय दायित्व भी होना चाहिए। अगर हमारी कथनी करनी मे इतना फर्क होगा तो हम देश को ईमानदार नेतृत्व कैसे दे सकते हैं ? पांच या दस साल तो झूठ बोल कर या धोखा देकर आराम से निकाले जा सकते हैं, लेकिन इन पांच या दस सालों तक सत्ता की लापरवाही, गैर जिम्मेदारी झेलने वाले मतदाताओं पर क्या बीतेगी-  इसका  अनुमान है किसी को ?
    जब हमे जनता के मुद्दों से कोई सरोकार है ही नहीं तो हम सरकार क्यों और किसके लिए बनाना चाहते हैं ? येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना और फिर पांच सालों तक गूंगा, बहरा, अंधा बन जाना कहां तक उचित है ? क्या ऐसी घटिया मानसिकता के साथ एक मिनट भी हमे सत्ता मे बने रहने का नैतिक अधिकार है ? क्या हमने कभी पूछा है अपनी अंतरात्मा से ?  
      मानव संसाधन पर सरकार का कितना फोकस है- यह इसी बात से पता चल जाता है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय कर दिया जाता है । क्या मानव संसाधन विकास के कार्य क्षेत्र मे शिक्षा नही आती थी ? क्या शिक्षा  का मतलब केवल स्कूल कालेजों मे दी जा रही शिक्षा है ? क्या शिक्षा का उद्देश्य युवाओं का सर्वांगीण विकास करना नही होना चाहिए ? क्या युवा वर्ग इस देश का सबसे महत्वपूर्ण संसाधन नहीं है ?  क्या वह विदेशों मे जाकर अपने देश के लिए विदेशी मुद्रा नही कमाता ? विदेशों मे अपनी प्रतिभा के बल पर उद्योग शुरू करके देश की आर्थिकी मे सहयोग नहीं करता ?
         कभी हमारा देश उच्च कोटि के मानव संसाधन के लिए जाना जाता था। कंप्यूटर हार्डवेयर की शीर्षस्थ कंपनी इंटेल मे टॉप के इंजीनियर भारतीय हुआ करते थे। अमेरिका की संस्था नासा मे कभी  पचास प्रतिशत तक भारतीय वैज्ञानिक तथा टेक्नोक्रेट हुआ करते थे । आज गूगल के हेड सुंदर पिचाई एक भारतीय टेक्नोक्रेट हैं । ऐसे ही कई उदाहरण आज भी अमेरिका तथा अन्य देशों मे मौजूद हैं। यही नहीं, अब तो स्थिति ऐसी है कि हमारी आइटी कंपनियां दुनियां  के कई देशों मे रोजगार भी दे रही हैं। अमेरिका मे ऐसी भारतीय आइटी कंपनियों की संख्या तथा दिये गए रोजगार सबसे अधिक हैं ।
      इस  संदर्भ मे टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (TCS)  के मानव संसाधन प्रमुख श्री मिलिंद कक्कड़ के इकोनोमिक टाइम्स ऑफ इंडिया मे छपे एक लेख के कुछ अंश साभार प्रस्तुत हैं-
अमेरिकी कर्मचारियों के बारे में जारी अपनी रिपोर्ट में आईटी उद्योग के सबसे बड़े निकाय नैसकॉम ने यह आंकड़े जारी किये हैं. आंकड़ों के मुताबिक टीसीएस में 20,000, इंफोसिस 14,000, एचसीएल 13,400, और विप्रो 10,000 कर्मचारी अमेरिकी हैं. इन कंपनियों के कुल स्टॉफ का 70 फीसदी कर्मचारी अमेरिकी हैं. इन्फोसिस ने 2017 में 10,000 अमेरिकी पेशेवरों को नियुक्त करने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई थी. कंपनी ने यह लक्ष्य हासिल कर लिया है.


टीसीएस के एचआर हेड मिलिंद लक्कड़



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आखिर कोई तो बात रही होगी हमारे मानव संसाधन में ? क्यों है उनकी इतनी डिमांड ?
      आज उसी मानव संसाधन जैसे बहुमूल्य विदेशी मुद्रा कमाने वाले तथा रोजगार देने वाले क्षेत्र की घोर उपेक्षा की जा रही है। केवल  आइआइटी, आइआइएम  संस्थानों की संख्या बढ़ाना ही काफी नहीं है। देश मे विज्ञान और प्रौद्योगिकी का आधारभूत  ढांचा पूरी तरह विकसित करना भी जरूरी है।  आखिर आजादी के बाद से अब तक हम माइक्रोप्रोसेसर बनाने की तकनीक क्यों विकसित नहीं  कर पाए ? अगर हम प्रोसेसर्स बनाने की प्राविधि विकसित कर लेते तो कंप्यूटर अप्लीकेशन  के क्षेत्र मे क्रांति आ जाती। लाखों युवाओं को नौकरियां मिलतीं। लाखों की संख्या में हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर कंपनियां खुलतीं। सॉफ्टवेयर की तरह हार्डवेयर के क्षेत्र मे भी भारत आज विश्व मे सबसे आगे होता !
          लेकिन हमारी सरकारों ने इस असीम संभावना वाले क्षेत्र का दोहन करने की बजाय मानव संसाधन विकास की घोर उपेक्षा की है। आज हम अपने युवाओं को पकौड़ा तलने की सलाह दे रहे हैं! क्या यह हास्यास्पद नहीं है? क्या किसी निर्वाचित सरकार से ऐसी घटिया सोच की उम्मीद की जानी चाहिए ? क्या अब हम टेक्नोक्रेटों की जगह हलवाई एक्स्पोर्ट करेंगे ? क्या इसी सोच के चलते हम दिनो दिन कंप्यूटर आधारित होती जा रही मानव सभ्यता के विकास मे अपनी मौजूदगी दर्ज करा पाएंगे ?
        मै भी मानता हूं कि करोड़ों लोगों को नौकरियां नही दी जा सकतीं । क्योंकि इतनी नौकरियां हैं ही नहीं। लेकिन उन्हे विकल्प तो देना होगा न ! उद्योग जगत का माहौल, बैंकों का टालमटोल वाला रवैया  तथा टैक्स का आतंक इतना ज्यादा है कि युवा सोचता है कि छोड़ो उद्योग लगा कर क्यों मुसीबत मोल लें।
        ऐसे माहौल मे नौकरियों के माध्यम से बेरोजगारी दूर करने की कोशिश काफी हद तक कामयाब हो सकती थी। लेकिन जिस गैर  ज़िम्मेदाराना तरीके से सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण किया जा रहा है, मुनाफा कमाने वाले पीएसयूज़ को भी बीमार करके बेचे जाने की मानसिकता दिखाई पड़ रही है- उसे देखते हुए बेरोजगारों की बढ़ती फौज को रोजगार दे पाना असंभव है। हमारे आज़ादी के शुरूआती दौर वाली सरकारें बेवकूफ नहीं थीं । उन्होने सोच समझ कर मिश्रित अर्थ व्यवस्था का रास्ता अपनाया था।  प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित सार्वजनिक उद्योग धंधे इसीलिए खोले गए थे कि देश की बड़ी आबादी को काम मिलेगा। निजी उद्योगों को भी अपना माल बेचने से मुनाफा होगा और सरकारों के पास भी पैसा आएगा ताकि आधारभूत ढांचे का विकास हो सके ।
         लेकिन उनकी दूरदर्शिता को दर किनार करते हुए हम सार्वजनिक क्षेत्र को बेच रहे हैं  । क्या आर्थिक और नैतिक दृष्टि से यह उचित है ? अगर कोई प्रतिष्ठान घाटे मे चल रहा है  तो देखना चाहिए  कि घाटा क्यों हो रहा है ? उसे दुरुस्त करना चाहिए । बीमार  हिस्से को पता चलते ही काट कर फेंक देना क्या अंतिम समाधान है ? सरकारी संपत्ति को खुर्द्बुर्द करने का हक ऐसी सरकारों  को कैसे दिया जा सकता है जिनका कार्यकाल मात्र पांच वर्ष का है ?  क्या हमारे संविधान मे ऐसा प्रावधान नहीं  है कि सरकारी संपत्ति को बेचने से पहले संसद मे उस पर बहस हो ? क्या यह मुद्दा  सिर्फ रूलिंग पार्टी का है ? क्या इसमें विपक्ष की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए ? विपक्षी भी तो जनता के द्वारा चुन कर भेजे जाते हैं ! विपक्ष भी तो राष्ट्र की परिसंपत्तियों के मामले मे उतना ही उत्तरदायी है जितना  कि सत्तारूढ़ दल !
      कर्ज लेकर विकास करने का एक और शॉर्टकट आजकल ट्रेंड मे है। विकास के नाम पर हम कहां से कितना कर्ज, किस ब्याज दर पर उठा रहे हैं- क्या यह देश को नही बताया जाना चाहिए? आखिर उस कर्ज की अदायगी हमारे आपके द्वारा दिये गए टैक्स से ही तो होनी है! देखा गया है कि एक बार कर्ज के जाल (Debt Trap) मे फंस गए तो नई तरह की गुलामी झेलनी पड़ेगी। अपने बाजार सौ फीसदी विदेशी पूंजी के लिए खोलने पड़ेंगे। अपने प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधन कौड़ियों के भाव उनके हाथों लुटाने होंगे। उन्हीं की शर्तों पर हमें चलना पड़ेगा ।
      तो क्यों अनाप शनाप कर्जे लिए जाएं? पुरानी कहावतें आज भी कितनी सटीक हैं। पुराने लोग कहते थे “तेते पांव पसारिये, जेती  लंबी सौर”। अंग्रेजी मे भी ऐसी कहावत प्रचलित थी- Cut your coat according your cloth.
       क्या हम इन तजुर्बों की अनदेखी नही कर रहे? क्षमता तो हमारी सौ रुपए की है और उधारी हम उठा रहे हैं लाख रुपए ! क्या यह अदूरदर्शिता नही है ? गैर जिम्मेदाराना व्यवहार नही है? क्या हुआ अगर कल हमारी सरकार नही रहेगी दुष्परिणाम झेलने के लिए? देश तो हमारा ही है! अपने देश को कल बुरे दिन देखने पड़े तो कहीं न कहीं हमारी अंतरात्मा हमे धिक्कारेगी जरूर कि काश ! हम उस वक्त नमक रोटी से काम चला लेते । न लेते कर्ज। तो देश को आज ये दुर्दिन न देखने पड़ते । लेकिन लोकतंत्र की सबसे बड़ी चूक यही है कि हमारी विधायिका सिर्फ सत्तारूढ़ दल के कार्यकाल तक ही  जवाब देह है। पार्टियां आती हैं। सरकार बनाती हैं। अपने तुगलकी एजेंडे देश पर थोपती हैं । उलटे सीधे कर्ज लेकर देश को आर्थिक गुलामी की तरफ धकेलती हैं और फिर पांच या दस साल बाद सत्ता से बाहर हो जाती हैं। कोई अकाउंटेबिलिटी  नहीं है कार्यकाल खत्म होने के बाद ।
      बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र की गरिमा लगातार घटती जा रही है। सत्ता अब ऐशो आराम का, अपने अपनों को फायदा पहुंचाने का जरिया बन गई है । देश की बहुसंख्यक आबादी जो बड़ी मुश्किल से सत्ताधारी पार्टियों मे बदलाव करती है, उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है । हार कर उसे कहना पड़ता है कि सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। सब पैसे वालों के लिए ही योजनाएं बनाते हैं । सब उन्ही की तरक्की मे जुट जाते हैं। 
       अब वक्त आ गया है कि इस देश के युवा बेरोजगारों को अपना राजनीतिक दल बना लेना चाहिए। जब अपनी लड़ाई हमे खुद ही लड़नी है तो आज से ही क्यों नहीं ? जो सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं वे खुद क्यों न सत्ता मे आएं?
       इसी बीच कुछ ऐसे नए नए राजनीतिक दल भी उभरे हैं जो आम आदमी की बात करके सत्ता हथियाने मे कामयाब हुए। बकौल उनके, राजनीति मे वे मजबूरी मे उतरे  वरना सोशल एक्टिविस्ट बन कर भी सरकार को गैर जिम्मेदार होने से बचा लेते । उनका कहना था कि राजनीति एक गटर है। उसके कीचड़ की सफाई तभी हो सकती है जब उसमे खुद उतरा जाए।
      और जैसी उम्मीद थी वही हुआ। गटर मे उतरने के बाद वे भी उस्तादों की बी टीमें बन कर रह गए ! तो ऐसे भेड़ियों के हाथों मे भी सत्ता क्यों दी जाए ? पढ़े लिखे बेरोजगार खुद आगे आएं। और इस देश की राजनीति को वह दिशा दें जिसकी आज जरूरत है।
(समाप्त)

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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