व्यंग्य- देश के सच्चे सपूत-हमारे भेदिये

भारतीय इतिहास के प्रातस्मरणीय  विख्यात भेदिये 

      भेदिये हमारे देश के सम्मानित लोगों में आते हैं। इनका काम गुप्त भेदों से ताल्लुक रखता है। ये यहां के भेदों को वहां भेजने में बडे़ निपुण होते हैं। भेद जितने गोपनीय होते हैं, भेदिये का काम उतना ही मुश्किल होता है। जरा-सा भेद खूलते ही भेदिये की जान ख़तरे में पड़ जाती है। यही कारण है कि भेदे लेने-देने के काम को भेदिये बड़ी सफ़ाई से किया करते हैं।

            भेदियों की भी अनेक किस्में होती है- जैसे कि प्रश्न-पत्र भेदिये, रक्षा-भेदिये, साइंस और टैक्नोलोजी भेदिये तथा राजनीतिक -भेदिये।

महाकाव्य युग का जाना माना भेदिया - विभीषण 
            समाज सुधार के काम में सबसे ज़्यादा योगदान प्रश्न-पत्र भेदियों का है। इनकी सेवाओं की जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है। प्रश्न-पत्रों को परीक्षा से पहले ही छात्रों तक पहुंचाना कोई हंसी-खेल नहीं। इसके लिए प्रेसवाले को विश्वास में लेना पड़ता है, ‘एडवांस’ देना पड़ता है। उसकी सुरक्षा की गांरटी लेनी पड़ती है। तब कहीं जाकर वह प्रश्न-पत्र को अंडरशर्ट और अंडरवियर पर भीतर से छापकर ला पाता है। आजकल आर्टइी का जमाना है। कंप्यूटर से सैटिंग बैठ जाय तो प्रश्न-पत्र पेन ड्राइव, फ्लापी या सीडी पर भी मिल जाता है।


            इन प्रश्न-पत्रों को भेदिया थोक में बेचकर अलग हो जाता है। कोचिंग सेंटरवाले इन प्रश्न-पत्रों को ख़रीद कर अपने पाठ्यक्रम में शामिल कर लेते हैं। आज यह व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है। कई कोचिंग इंस्टीटयूट प्रश्न-पत्र भेदियों की कृपा से करोड़ों में खेल रहे हैं। चारों तरफ़ खुशी का साम्राज्य है। शिक्षक, अभिभावक और खुद छात्र भी इन महान शिक्षा भेदियों के दीर्घ जीवन के लिए ऊपरवाले से दुआएं मांगते हैं।

            यह इन्ही की कड़ी मेहनत का फल है कि अब कोई बच्चा फेल नहीं होता। टापर 98, 99  परसेंट तक जा पहुंचा है। यकीन मानिये आनेवाले वक्त में 100 परसेंट लानेवाले टापर होंगे। वह भी एक-दो नहीं, बल्कि सैकड़ों में होंगे। वह दिन सचमुच हमारे देश की शिक्षा क्रांति का बैंड बजाने वाला होगा।

भेदिये आम्भि के कारण सिकंदर से युद्ध हारता  -पुरु 
            इस महान उपलब्धि का श्रेय सिर्फ हमारे प्रश्न-पत्र भेदियों को ही जाता है। अगर शिक्षक या स्कूल वाले इसका क्रेडिट लेने की कोशिश करें तो उन्हें डांट-डपटकर ठीक उसी तरह चुप  करा दें जैसे वे साल भर पढ़ाने के वक्त चुप बने रहते हैं।


            रक्षा भेदियों का काम तो सबसे ज़्यादा जोखिम भरा है। ये भेदिये हमारी रक्षा तैयारियों की जानकारी हमारे शुभचिंतक देशों तक पहुंचाते हैं। हर वक्त इन पर कड़ी नजर रहती है। जरा सी चूक होते ही लेने के देने पड़ सकते हैं । बेहद चौकन्ने होकर ये अपना मिशन पूरा करते हैं।

सिकंदर को पुरु के भेद देता आम्भि 
            रक्षा-भेदियों को मिलनेवाली पुरस्कार राशि निसंदेह काफ़ी ज़्यादा होती होगी, शायद तभी इस फील्ड में ज्यादा कंपीटीशन है। कई बार तो ज़िम्मेदार अफ़सर ख़ुद ही पार्ट टाइम भेदिये का काम कर लेते हैं ।  अपनी शानदार सेवा के दौरान जब वे काफ़ी भेद दे चुकते है और विदेशी मुद्रा भी काफ़ी कमा लेते हैं तो फिर एक दिन बगैर बताए, चुपचाप इस निःसार कंट्री को त्याग कर उड़ जाते हैं सात समुंदर पार । बसा लेते हैं नई  दुनियां किसी सुरक्षित  देश में। ठीक उसी तरह जैसे लोकल  ट्रेन में बम रखने के बाद आतंकवादी उस ट्रेन से उतर जाते हैं। चले जाते हैं ट्रेन से दूर। बहुत दूर।


            देखने में आया है कि साइंस और टेक्नोलोजी के क्षेत्र में काम कर रहे भेदिये बहुत थोड़े से हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि इंटरनेशनल मार्केट में हमारी ख़ोजों की डिमांड नहीं है। जब हम ख़ुद बाहर से चुराई टैक्नोलोजी को लीप-पोतकर अपने नाम से बेचेंगे तो किसी को क्या पागल कुत्ते ने काटा है कि वह अपनी ही चीज़ को पैसे देकर ख़रीदे ?

भेदिया आकाश का चमचमाता सितारा - जयचंद 

            अगर इस क्षेत्र में लगे भेदियों के भविष्य का हमें जरा भी ख़्याल है तो हमें फौरन नई  तकनीकों की ख़ोज करनी चाहिए  तथा मार्केट में अपनी ख़ोजों की डिमांड बढ़ानी चाहिए, ताकि इस क्षेत्र के उद्धार मे जुटे भेदिये मंदी के  दौर से उबर सकें।


            अब बारी आती है सियासी भेदियों की। इन भेदियों का इतिहास काफ़ी पुराना तथा सुनहरे पन्नों पर लिखा मिलता है। जहां तक हमारा अंदाज़ है- विभीषण सबसे प्राचीन तथा प्रोफेशनल भेदिया था। रावण तथा लंका के भेद राम को देते हुए वह ज़रा भी इमोशनल नहीं हुआ, जबकि उस नाजुक घड़ी में अच्छे-अच्छे टूट जाते हैं। सारे राक्षस मारे गए, सोने की लंका जल कर राख हुई, दोनो बड़े भाई रावण और  कुंभकर्ण, भतीजा मेघनाद- सभी काल के गाल में समा गए, किन्तु विभीषण भावनाओं में नही बहा। एक सच्चे, कर्मठ भेदिये की तरह वह अंत तक तटस्थ बना रहा। तभी से कहावत चल पड़ी- ‘घर का भेदी लंका ढावे।’

अंग्रेज सेनापति क्लाइव को नवाबों के भेद देता  मीरजाफर 
            इन भेदों की क़ीमत भी विभीषण को ‘काम पूरा’ होते ही मिली। क़ीमत थी- लंका की राजगद्दी। विभीषण जानता था कि रावण के जीते जी वह लंकेश नहीं बन सकता। क्योंकि उसमे  रावण जैसी काबिलियत नहीं है । उसकी पर्सनलिटी भी रावण के मुकाबले कहीं नही ठहरती ।  राक्षस उसे घास नहीं डालते। एक बात और। 


विभीषण था तो राक्षस जाति का, मगर गुण हमेशा आर्यों के और आर्यावर्त के गाता था। सोचिए ! अगर आज की तरह मतदान से राजा चुने जाते तो विभीषण कभी चुनाव जीत पाता ? यकीनन  कभी नहीं। और चुनाव हारने पर  राजा बनने का सवाल ही पैदा न होता।

नवाब मीरजाफर 
            विभीषण के आदर्शों पर चलते हुए बाद में कई भेदिये राजनीति में उतरे और अच्छा यश कमाया। पुरू के भेद सिकंदर को देने वाला राजा  आंभि भी सफल और कुशल भेदिया था । उसंर एक तीर से तीन  शिकार किए- पहला अपने राज्य को बचाया, दूसरे अपने बलवान पड़ोसी को सिकंदर के हाथों कमजोर कराया, इंसल्ट कराई और तीसरे भारत मे यूनानियों की एंट्री सुनिश्चित की ।


            हमारे मध्यकालीन इतिहास के आकाश पर भी एक भेदिया प्रकाश पुंज की भाति चमक रहा है। इस जाज्वल्यमान नक्षत्र का नाम है- ‘जयचंद’। कन्नौज के राजा जयचंद इतिहास में हमेशा अमर रहेंगे। अगर ये ने होते तो मुहम्मद गोरी को भारत-भूमि में कौन लाता ? सारे राजपूत राजाओं को ख़त्म करवा कर  दिल्ली सल्तनत की स्थापना कौन करवाता ? अतः साफ़ ज़ाहिर है कि आज हम- आप लोकतंत्र की हवा में जो सांस ले पा रहे हैं- उसकी आधारशिला महाराज जयचंद जी ने दसवीं – ग्यारहवीं  शताब्दी में ही रख दी थी। बताते हैं कि जयचंद जी के वंशज आज भी भारतीय लोकतंत्र की जड़ों में अमृत सींच रहे हैं।

कंपनी काल का नायाब भेदिया रत्न- मीर कासिम 
            अंग्रेजों की गुलामी के दौर मे भी हमारी देवभूमि दो महान और यशस्वी भेदियों के पराक्रम से विख्यात  रही है। इन्होंने भी इतिहास में अच्छी जगह बना ली है। मीरज़ाफर और मीरक़ासिम नाम के इन भेदियों के प्रयासों से ही अंग्रेज बंगाल और अवध में नवाबों को पटखनी दे सके। वही नवाबी बतौर तोहफा, मीर जाफर को नवाज़ी गई ।


            आज़ादी के फ़ौरन बाद ऐसा दौर भी आया जिसमें राजनीतिक भेदियों की हालत पतली होने लगी। वज़ह थी लोगों में देश-प्रेम का जज़्बा। भेद मिलने मुश्किल हो गए । जिसे देखो-वतन पर मर मिटने को तैयार रहता। ऐसी हालत में भेद कौन दे ?

      पर यह स्थिति ज़्यादा दिन न रह सकी। देश-प्रेम का पानी धीरे-धीरे उतरने लगा । भेदिये, नेता और अफ़सर क़रीब आने लगे। सभी को एक ही साथ आत्मज्ञान हुआ कि देश-प्रेम से भी ज़रूरी कई काम हैं। देश-प्रेम सब कुछ नहीं जिन्दगी के लिए।

ब्रिटिश कमांडर क्लाइव से इनाम पाकर नवाब बना मीर कासिम 
            तब से अब तक काफ़ी पानी बह गया है। अब भेदियों का काम ख़ुद सियासत के मंजे हुए खिलाड़ियों  ने संभाल लिया है। वे भेद देकर बाहर से शक्ति लेते हैं। यही बाहर का मजबूत  हाथ हर वक़्त उनके साथ रहता है।


            तय है कि इस तरह ताकत जुटाते जुटाते एक दिन वे भी विभीषण की तरह राजगद्दी पर बैठ जाएंगे। भले ही पब्लिक उन्हें एक भी वोट न दे।

(समाप्त)
           

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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