व्यंग्य- कितना विकास बाकी है ?


 कार घटना-स्थल की तरफ़ भाग रही थी।

   शीशे खोलकर मंत्रीजी ने बाहर देखा। शहर तेज़ी से पीछे छूट रहा था। पुरानीं यादें एक बार फिर ताज़ा हो गयीं....

   तब पहली बार वह विधायक चुने गये थे। नील गांव के आदिवासियों ने एकजुट होकर उनका साथ दिया था। सरकारी हाई स्कूल का उद्घाटन करते समय उन्होंने कहा था- भाइयों, बहनों, हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था- सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामया....सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, किसी को कोई दुःख न हो। हमें उसी भावना पर चलना है। मिलजुल कर रहना है....

  ....और आज ! कई साल बाद एक बार फिर जा रहे हैं वह नील गांव के आदिवासी इलाके़ में। अभी सवेरे ही तो मोबाइल पर फोन आया था- सर नील गांव तालुका में काम निपट गया है। जितनी जल्दी हो दौरा कर लें। पता चला है दोपहर तक अपोजीशनवाले विजिट करेंगे। भला काम आप करें,  नाम किसी और का हो- ये हमसे सहा नहीं जायेगा।

    बस, उसके फ़ौरन बाद ही वह कारों-पत्रकारों के काफ़िले के साथ  पहुंचे थे यहां।

     जंगल की सहरद से हाई-वे तक, जितने भी कच्चे पक्के घर थे, सभी जल का राख हो चुके थे। यहां-वहां भुट्टे की तरह जली भुनी लाशें पड़ी थीं। चील-कौए उन लाशों पर झपट रहे थे। बचे हुए आदिवासी सगे-संबंधियों की लाशों से लिपट कर रो रहे थे। कहीं कोई सिसकता बदहवास बाप लाशों को इधर-उधर पलट कर पहचानने की कोशिश करता, तो वहीं कोई रोती-बिलखती छाती पीटती मां जले घरों में किसी को खोजती फिरती।
      झक झक सफेद कुरता-पाजामा पहने मंत्रीजी स्थिति का जायजा लेने लगे। पीछे-पीछे छाते की छांव देता सहायक चल रहा था। कैमरामैन फ़ोटो ख़ींच रहे थे। पत्रकार रोते-बिलखते लोगों का इंटरव्यू लेने लगे।

      साथ चल रहे छुटभइये से मंत्रीजी ने पूछा- बच कितने गये होंगे ? छुटभइये ने फ़ौरन जवाब दिया- ज़्यादा नहीं सर, यही कोई पन्द्रह-बीस और उनमें भी ज़्यादातर जंगल में जा छिपे हैं। पता चला है अब वे जंगल में ही रहेंगे।

     -‘गुड’। मंत्रीजी के मुख से निकल गया। साथ ही पल भर के लिए भयानक मुस्कराहट चेहरे पर फैल गयी, जिसे कोई देख न सका।

     दो-चार दिन अख़बारों में ख़ूब चर्चा हुई। जांच बैठी। हफ़्ते भर में रिपोर्ट मांगी गयी। पर  जांच की अवधि आगे बढ़ती रही। हफ़्ते, महीने, साल बीतते गए। जांच आज भी चल रही है। कल भी चलती रहेगी, हो सकता है उसके बाद भी चलती रहे। रिपोर्ट का कल भी इंतज़ार था, आज भी है और शायद कल भी रहे।

     एक ऊंचे टीले पर खड़े होकर मंत्रीजी ने देखा-जंगल से हाईवे तक सारा इलाक़ा खाली हो गया था। जली हुई बस्ती से सटे खेत काफ़ी दूर, नदी तक चले गए थे, जहां किसानों का भरा-पूरा गांव बसा था। दूसरी तरफ़ कुछ ही दूर नगर निगम की सीमा शुरू हो जाती थी।

   कितनी ख़ूबसूरत है ये जगह’....मंत्रीजी मन ही मन सोचने लगे। आदिवासियो के गंदे झोपडे खाक होने के बाद इसका असली रूप निखर आया है। क्या इन खेतों को भी उजाड़ कर यहां छोटा-सा, प्यारा-सा शंघाई नहीं बन सकता ?

     मंत्रीजी मुस्करा दिये। कितना गज़ब विचार आया था उनके मन में ! उन्हें लगा कि सोचने का काम आलाकमान के साथ-साथ वह भी कर सकते हैं।

      दौरे के बाद मंत्रीजी ने आलाकमान से भेंट की और अपना विचार बताया। विचार मंजूर हो गया।

     पास के गांव वाले अक्सर कपास उगाते थे, ताकि नक़द क़ीमत मिल जाय। मगर आग़जनी के बाद कपास ख़रीदना सरकार ने बंद कर दिया। भारी ब्याज पर क़र्ज लेकर उन्हें  फ़सल बेचनी पड़ी। उधार चुकता न कर पाने की मज़बूरी से कई किसानों ने ख़ुदकुशी कर ली।

     मगर सारा गांव नहीं मर सका।

     अब क्या किया जाय ?

     एक तहफ शहर को शंघाई बनाने का दबाव, तो दूसरी तरफ़ बिल्डरों का तकाजा, जो मंडराते गिद्ध की तरह उस ख़ूबसूरत इलाके़ को देख रहे थे, जिन्होने चुनाव में करोड़ो का चंदा दिया था।

      पहले मंत्रीजी का अंदाज़ा था कि एक-एक करके सभी किसान आत्महत्या कर लेंगे। उनका काम आसान हो जायेगा। मगर जब सब नहीं मर सके तो एक नया रास्ता सोचा गया।

      यह रास्ता था-विकास योजनाओं के लिए सारे गांव का अधिग्रहण करना।

    योजना पर फ़ौरन काम शुरू हुआ। नोटिस भेजे गए । बचे-खुचे किसानों ने जुलूस निकाले, नारेबाज़ी की, धरने पर बैठे। भूख हड‌ताल भी की, मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआं। हां, छुटभइये नेताओं को अपनी नेतागीरी चमकाने का मौक़ा ज़रूर मिल गया।

    हताश किसानों को मुआवजे के चेक लेने ही पड़े। जो नहीं माने, उन्हें पुलिस की ताक़त से बेदख़ल किया गया।

   नील-गांव के आदिवासी इलाक़े से लेकर दूर, खेतों और गांव तक की हज़ारो एकड़ ज़मीन सरकार के खाते में चली गई । अपने हल-बैल खोलकर चल पड़े थे वे मायूस किसान। मगर कहां जाना है-वे ख़ुद भी नहीं जानते थे।

   कभी आंसू पोंछते तो कभी अपनी प्यारी बछिया का पगहा खोलने लगते।

    सबसे उदास था पावसकर- जिसके इमली के पेड़ पर कल ही गोरैया ने अंडे दिये थे। अब वह रोज़ छिप-छिपकर उन अंड़ो को नहीं देख सकेगा। अंडों से निकले छोटे-छोटे बच्चों को भी नहीं। मां की चोंच से दाना खाते चीं-चीं करते बच्चों को उसे अब भूलना होगा, बुरे सपने की तरह....सोचते-सोचते पावसकर फूट-फूट कर रो पड़ा था।

   पावसकर, उसके संगी साथी, उसके काका, मौसी, जाने कहां खो गये। रह गये मिट्टी-गारे, ईंट-पत्थरों से चिने घर, जहां मौत का सन्नाटा छाया था।

    विकास के आगे मंत्रीजी को घुटने टेकने पड़े। उस बेहद ख़ूबसूरत जगह को आग में जलना ही पड़ा। गांव को खाली होना पड़ा। आदिवासिायों को जंगलों में जाकर छिपना ही पड़ा। अब तक मंत्रीजी के जो कार्य घोंघे की तरह इंच-इंच कर सरकते थे- अब वे तूफ़ान की रफ्तार पकड़ने लगे।

  ...जमीनों के प्लाट काट-काट कर बेचे जाने लगे। बड़ी-बड़ी मशीनें पहुंचने लगीं। धीरे-धीरे वहां बहुमंजिली इमारतें सर उठाने लगीं। शापिंग माल, बैंक, होटल, पब्स-कैसीनो, पेट्रोल पंप खुलने लगे। चौड़ी साफ़-सुथरी सड़कें उभरने लगीं। पार्क, पुलिस थाने, एम्यूजमेंट पार्क आकार लेने लगे। सड़कों पर चमचमाती बेशक़ीमती कारें दौड़ने लगीं। सारी इमारतें आसमानी शीशों से ढकीं- शीश महलों का आभास देने लगीं। मंत्रीजी की कल्पनाओं का शंघाई साकार हो रहा था।

 ...और, आज एक बार फिर मंत्रीजी का काफिला वहां से लौट रहा है। अपने शंघाई में आज उन्होंने एक जुए घर का उद्घाटन किया था। अपने स्वागत भाषण में उन्होंने कहा था- लेडीज एंड जेंटलमैन, डार्विन नाम के महान अंग्रेज विचारक ने कहा था- सरवाइवल फार द फिटेस्ट, आइमीन, जिन्दा वही रह सकता है, जो जीने के लिए सबसे ज़्यादा फिट हो। जो फिट नहीं है, उन्हें जीने का कोई हक़ नहीं है। इस दुनियां में ऐसे कितने ही जीव-जंतुओं की जातियां थीं, जो आज लुप्त हो गई  हैं क्योंकि वे फिट नहीं थीं। आइ विश यू आल दि बेस्ट। विकास के रास्ते पर इसी तरह आगे बढ़ते रहिएगा .....’

     ....अपने मिनी शंघाई से लौटते हुए मंत्रीजी की आंखों में अतीत के वे दिन घूमने लगे जब नील-गांव के आदिवासियों ने तन-मन धन से उन्हें जिताकर विधानसभा में भेजा था। कितने ख़ुश हुए थे उस रोज़  आदिवासी !

     अचानक मंत्रीजी को महसूस हुआ कि नील-गांव के अग्निकांड में जले आदिवासी ज़िन्दा होकर उनके इर्द-गिर्द खड़े हैं। उनके पीछे खड़े हैं पड़ोसी गांव के किसान- जो आत्महत्या करने पर मज़बूर हुए थे।

 मंत्रीजी को लगा-जैसे वे सभी लोग उनसे एक ही सवाल पूछ रहे हैं- 

‘अभी और कितना विकास बाक़ी है ?’

(समाप्त) 
           

Share on Google Plus

डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें