राष्ट्रवाद वह विचारधारा है जिसके अनुसार राष्ट्र ही सर्वोपरि होता है । धर्म, संप्रदाय,
क्षेत्र, जाति,
भाषा आदि की जगह राष्ट्र के बाद है।
विश्व के कुछ देश धर्म को सबसे ऊपर
मानते हैं
। कुछ धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत (
secularism)
का अनुकरण करते हैं। कुछ राष्ट्र समाजवादी
विचारधारा (socialism)
पर
आधारित हैं । कुछ राष्ट्र ऐसे भी हैं, जहां
सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति ही विचारधारा है- अर्थात कुछ राष्ट्र अधिनायकवादी
विचारधारा (Dictatorship)
पर चलते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि संविधानों की विभिन्नता के अनुरूप ही विभिन्न
राष्ट्रों की शासन व्यवस्था होती है ।
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स्वामी दयानंद सरस्वती |
उदाहरण के लिए हम पड़ोसी देश पाकिस्तान को
लेते हैं। अगस्त 1947 मे अखंड भारत के दो टुकड़े हुए । 14 अगस्त सन 1947 को धर्म के
आधार पर बना टुकड़ा पाकिस्तान कहलाया । लोकतांत्रिक होते हुए भी इस नव निर्मित देश
ने इस्लाम आधारित न्याय प्रणाली शरीया का
अनुसरण किया । 15 अगस्त को दूसरे टुकड़े भारत को भी आज़ादी मिली । उसने भी
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को चुना किंतु यह लोकतंत्र किसी धर्म पर आधारित नहीं
बल्कि धर्म निरपेक्ष था । अर्थात इस नव निर्मित राष्ट्र ने धर्म को नागरिक का निजी
मसला स्वीकार किया । किसी भी नागरिक को कोई भी धर्म मानने न मानने की पूरी आज़ादी थी। किसी भी
धर्मग्रंथ की पाबंदियां इस पर लागू नहीं होती थीं।
इन दोनो ही देशों मे राष्ट्रवाद की बात उस वक्त गौण थी। पाकिस्तान का राष्ट्रवाद
इस्लाम से प्रभावित था। वहां मुस्लिम होना ही राष्ट्रवादी होने के लिए काफी था । अत:
राष्ट्रवाद की धर्म से अलग हट कर की गई परिकल्पना ज्यादा प्रभावी न हो सकी।
भारत का राष्ट्रवाद धर्म निरपेक्ष
था। यहां हर धर्म का अनुयायी राष्ट्रवादी हो सकता था।
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महात्मा गांधी |
भारत के प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र
बनने से पहले राष्ट्रवादी विचारधारा आज़ादी पाने का जरिया बनी। राष्ट्र बनने के
बाद देश की एकता और अखंडता को बचाए रखना
बड़ी जिम्मेदारी थी । सिर्फ सरकार के बूते
किसी देश की एकता और अखंडता को नही बचाया जा सकता। ताकत के बल पर मिली कामयाबी
स्थायी नही होती ।
चुनावों से चुन कर आने वाले जन प्रतिनिधियों से ही सरकार बनती है ।
यह एक कटु सत्य था कि केवल अपने धर्म,
संप्रदाय, जाति,
क्षेत्र या भाषाई समूह के सहारे राजनीतिक
शक्ति नही हथियाई जा सकती थी । सभी का साथ सभी का सहयोग जरूरी था। ऐसे मे एक नए
विचार की जरूरत थी जो कि हर धर्म, संप्रदाय,
जाति, क्षेत्र,
भाषा समूह को एक सूत्र मे पिरो सके।ऐसे बहुत
से विचार हो सकते थे। उनमे से एक विचार था- राष्ट्रवाद।
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गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर |
किंतु राष्ट्रवाद को इतने संकुचित
दृष्टिकोण से देखना राष्ट्रवाद का अपमान करना होग़ा। लोकतंत्र आधारित शासन प्रणाली
मे राष्ट्रवाद महज सत्ता हासिल करने का औजार नहीं था। बल्कि धर्म,
जाति, संप्रदाय,
लिंग़, क्षेत्र,
भाषा
आदि की विविधता वाले देश मे सभी को साथ लेकर चलने से ही विकास सुनिश्चित हो
सकता था। सभी को साथ लेकर चलने के लिए एक ऐसे विचार की जरूरत थी,
जिसे हर धर्म हर जाति,
हर क्षेत्र, हर भाषा का नागरिक समझे। ऐसा विचार,
जो राष्ट्र को भौतिक व वैचारिक स्तर पर
संगठित रख सके। ऐसा विचार जिसकी जड़ें राष्ट्र
के भूगोल मे ही हों,
राष्ट्र के बाहर कहीं नहीं। जिसकी आस्थाओं
के केंद्र उस देश के भीतर ही हों कहीं बाहर नहीं। जिसका इतिहास उसकी भौगोलिक सीमाओं
के भीतर से ही संचालित होता हो, बाहर
से नहीं।
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लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल |
राष्ट्र को एक सूत्र मे पिरोए रखने
के लिए जरूरी था एक ऐसा विचार, जो
उसी राष्ट्र की सरजमीं मे पैदा हुआ हो,
वहीं फलाफूला हो और वहां की जरूरतों के अनुकूल
हो ।
राष्ट्रवाद के भौगोलिक आयाम
: नए नए आज़ाद हुए लोकतंत्र आधारित भारत मे राष्ट्रवाद इसलिए भी जरूरी था कि हजारों
वर्ष पहले से इस क्षेत्र मे एक प्रकार की भौगोलिक एकता मौजूद थी । दक्षिण मे यह
क्षेत्र समुद्र से घिरा था तथा पूरब,
उत्तर, व
पश्चिम मे हिमालय पर्वत श्रेणियों से ।
ऐसी भौगोलिक परिस्थितियों मे यहां शासन के जितने भी स्वरूप उभरे हों उन सभी मे यह भौगोलिक एकता
समान रूप से विद्यमान थी।
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नेताजी सुभाष चंद्र बोस |
भौगोलिक एकता के कारण ही अतीत मे
यहां चक्रवर्ती सम्राट जैसे विचार अस्तित्व मे आए। आज़ादी के बाद इसी क्षेत्र मे
अखंड भारत की संकल्पना अस्तित्व मे आई। यह संकल्पना कोरी कल्पना मात्र न थी बल्कि
इसके पीछे इस क्षेत्र मे अतीत से पल्लवित हो रही अनेक क्षेत्रीय संस्कृतियां थीं,
जिनमे अनेक विभिन्नताएं होते हुए भी कुछ ऐसी
समानताएं थीं जो यहां रहने वाले हर निवासी के अंतस्तल मे मौजूद थीं। जिन्हे हर कोई
अपने भीतर अनुभव करता था। जैसे मौसम- जाड़ा, गरमी,
बरसात। ऋतुएं- वसंत,
पतझड़, शरद
। ये
समूचे उपमहाद्वीप मे समान रूप से आती थीं। सूर्य की संक्रांतियां,
ग्रहण, बारह
महीने, पूर्णिमा,
अमावस्या , विषुवती
आदि ग्रह नक्षत्र संबंधी बदलाव, ज्वार-
भाटा - जो संपूर्ण क्षेत्र को एक समान रूप से प्रभावित करते थे । फसल काटने बोने पर आधारित त्योहार – जैसे बिहू,
ओणम, बैसाखी
आदि जो समूचे उपमहाद्वीप मे हर भाषा, हर
धर्म के लोगों के लिए एक ही समय पर आते थे...इत्यादि.
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शहीद चंद्रशेखर आज़ाद |
सांस्कृतिक व भौगोलिक एकता ने इस
क्षेत्र मे राष्ट्रीय भावना को सुदृढ़
बनाने मे अहम भूमिका निभाई। भले ही पिछले हजार बारह सौ बरसों से यहां बाहरी शासकों
का शासन भी रहा। अरबी, तुर्की,
फारसी, शक,
कुषाण, हूण,
यवन,
म्लेच्छ आदि अनेक प्रजातियों का रक्त यहां के रक्त मे मिश्रित हुआ,
किंतु वह कोई स्थाई प्रभाव यहां की मानसिकता
पर न छोड़ सका। मुगल शासकों के धार्मिक कट्टरपन से जरूर यहां समस्याएं पैदा हुईं,
लेकिन उनका गहरा असर इसलिए नही पड़ा कि जो
लोग धर्म बदल कर इस्लाम मे आए थे, वे सब इसी साझा संस्कृति से निकले लोग थे। मक्का,
मदीना, हज, बपत्सिमा
जैसी देश के बाहर मनाई जाने वाली
परंपराएं उन्हें पक्षपातपूर्ण लगीं ।
किंतु इस्लाम के विश्व के बड़े भूभाग मे फैले होने के कारण उनकी निजी राय व्यापक
विचार न बन सकी।
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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक |
इस्लाम के बाद ईसाई धर्म ने भी इस
भूभाग की अंतश्चेतना को काफी झकझोरा। राज्य आश्रित इन धर्मों ने यहां की सामासिक
संस्कृति मे विभाजन के जो बीज बोए थे आज हम उन्हें काटने के लिए अभिशप्त हैं। शैव,
शाक्त, वैष्णव,
सगुण, निर्गुण,
नास्तिकवाद, बौद्ध
, जैन आर्य समाज,
सनातन आदि के झगड़ों को हमने कभी खतरे की तरह
नही देखा। ये सब इसी जमीन की फसलें थीं। इनके कारण जो विचार पैदा हुए उनमे बहुत
ज्यादा मतभिन्नता यदि थी भी तब भी दुराग्रह नहीं था।
कहने का सार यही है कि धर्म और
संप्रदायों के अनेक स्वरूप यहां पैदा हुए, पल्लवित
हुए और अंत मे इस सनातनी धारा की सहायक बल्कि पूरक धाराएं बन गए। अनेकता मे एकता
की स्वतस्फूर्त्त अवधारणा ,
जो यहां की मिट्टी की मूलभूत विशिष्टता थी
वह सभी असहमतियों के तंतुओं को स्वयम मे बटती हुई मजबूत रस्सी बनी रही ।
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जन कवि सुब्रह्मण्यम भारती |
अत: भौगोलिक विशिष्टताओं का गहरा
प्रभाव यहां के जनमानस पर पहले ही था। समय समय पर लोकमान्य तिलक,
महात्मा गांधी,
सरदार पटेल, गुरुदेव
रवींद्र नाथ टैगोर, सुब्रहमण्यम
भारती, लाला लाजपतराय,
स्वामी दयानंद सरस्वती आदि भविष्य दृष्टा इस
सांस्कृतिक समरसता की अंतर्धाराओं को यहां के सभी लोगों के भीतर बहता देख रहे थे,
तभी उन्होने राष्ट्रीय एकता को जन आंदोलन
बनाने की दिशा मे सोचा। और सोचा ही नहीं, इसे
कार्यान्वित भी किया। स्वतंत्रता का पहला
संग्राम इसी राष्ट्रीय एकता अभियान का
समवेत स्वर था।
आज सन 2020 मे हमारे देश भारत मे एक बार फिर राजनीतिक असहमतियां धार्मिक असहमतियों के पागल
घोड़े पर सवार हैं। ये धार्मिक असहमतियां आज वाहन हैं लेकिन कल ये वाहक बन जाएंगी-
इसमे जरा भी संदेह नहीं है। इंडोनेशिया, मलेशिया,
जावा, ब्रुनेई,
मालदीव, पाकिस्तान,
अफगानिस्तान, बांग्लादेश
आदि अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जहां ये असहमतियां पहले अश्व थीं,
लेकिन अलग राष्ट्र बनते ही अश्वारोही बन
गईं। राष्ट्र टूटे,
उपराष्ट्रीयताएं उभरीं। उपराष्ट्रीयताओं के
अंतर्संघर्ष भी उभरे।
अंतत: खामियाजा भुगता उस अंतिम इकाई
नागरिक ने।
भीतर और बाहर- दोनो तरफ से गंभीर
खतरे हैं। विशाल भारतीयता के वक्ष पर निरंतर निर्मम प्रहार किये जा रहे हैं।
राष्ट्रीयता को खंड खंड कर देने पर आमादा हैं कुछ ताकतें।
ऐसे मे यदि राम मंदिर को यहां के एक
महान पुरुष की स्मरणस्थली और स्वाभिमान के प्रतीक के रूप मे स्थापित किया जाता है
तो इतना रोष क्यों? जिस राम
का प्रभाव आज भी वृहत्तर भारत के मलाया,
जावा बोर्नियो,
इंडोनेशिया मलेशिया,
कोरिया तक चला आ रहा है,
उसी राम को यदि उसी के जन्मस्थान पर सम्मान
दिया गया तो इतनी हायतौबा क्यों? पांच
छह सौ वर्ष पहले भी तो वहां इस महापुरुष का जन्मस्थल मौजूद था,
जिसे यहां की जनभावनाओं का अनादर करते हुए
तलवार के बल पर ध्वस्त कर दिया गया। ध्वस्त करने के बाद वहां पर एक विदेशी आक्रांता
के नाम से धर्मस्थल का निर्माण करके जन भावनाओं की घोर अनदेखी ही नही की गई,
जन भावनाओं का घोर अपमान,
तिरस्कार भी किया गया।
तो प्रश्न फिर वही है! यहां की भूमि
पर जो युगपुरुष पैदा हुए। यहां के जनमानस पर जिन्होने अपने अद्भुत कारनामों की
अमिट छाप छोड़ी थी, जिनके
जन्मस्थलों को जानबूझ कर शासन आधारित धर्मों ने अतीत मे अपमानित किया था,
यदि उन्हे उनका गौरव वापस दिलाने का प्रयास
किया जाए तो यह कहां तक अनुचित है- सभी मननशील व्यक्तियों को इस पर विचार करना
चाहिए।
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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम |
भारत मे रहने वाले सभी लोग,
चाहे वे किसी भी धर्म के हों- व्यापक
दृष्टिकोण अपनाते हुए अतीत के क्रूर अत्याचारों के खिलाफ आम सहमति बना लें तो भारत
आज विश्व की अजेय शक्ति बन जाएगा।
इस लक्ष्य को हासिल करना कोई मुश्किल
काम भी नहीं है। हम सभी जाति, धर्म.
संप्रदाय के लोगों मे एक ही रक्त है। एक ही अनाज खाते आ रहे हैं हम हजारों बरसों
से। एक ही पानी पीते आ रहे हैं हम बरसों से।
तो फिर,
एक मजबूत राष्ट्र की स्थापना के लिए हम सब
मिलकर एक राष्ट्रवादी विचारधारा को सबसे ऊपर क्यों नहीं रख सकते ?
(समाप्त)
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