लेख- वर्तमान परिदृश्य मे वैदिक समाज की परिकल्पना - स्वतंत्र चिंतन

सिंधुघाटी (वैदिक) सभ्यता का सामूहिक स्नानागार 

 आज से करीब सौ साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप मे अंग्रेजों ने एक बहुत पुरानी सभ्यता की खोज की थी। सिंधु  नदी के  आस पास इसके अवशेष मिलने की वजह से इसे सिंधु घाटी की सभ्यता कहा गया। धीरे धीरे ये  अवशेष सिंधु और सरस्वती (अब लुप्त) के किनारों पर भी मिलने लगे। तब इसका नाम बदलकर सिंधु- सरस्वती की सभ्यता हो गया।

   तब से आज तक इस सभ्यता के सैकड़ों केंद्र खोजे जा चुके हैं जो स्वतंत्र भारत के उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात महाराष्ट्र जम्मू कश्मीर, से लेकर पड़ोसी देश पाकिस्तान के बलूचिस्तान, सिंध, उत्तरपूर्वी प्रदेश, पीओके तथा अफगानिस्तान तक मिले हैं ।
सिंधु घाटी(वैदिक)  सभ्यता का सामूहिक अन्नागार 

  अध्ययन से निष्कर्ष निकलता है कि उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों की भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीनतम साहित्य -वेदों से गहरी  समानता है। अत: अब इसे नाम दिया गया है- वैदिक सभ्यता। 

  हर सभ्यता की कोई न कोई विशेषता जरूर होती है। वैदिक सभ्यता की भी एक विशिष्टता थी । इसका मूल चरित्र सामंतवादी  होते हुए भी समतामूलक था । इसमे सभी प्राणियों के आत्म सम्मान का, उनके सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार का, उनके बीच समानता का  ध्यान रखा गया था । 



ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।19।।
                                                                                                 (कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)

अर्थात : परमेश्वर हमारी साथ-साथ रक्षा करें, हम साथ साथ  उपभोग करें, हम  साथ मिलकर  सामर्थ्य वान बनें, हम  तेजस्वी होंं, हम परस्पर द्वेष न करें।

    ऐसे अनेक उदाहरण हमे वेदों मे मिलते हैं जहां “मैं” का नहीं, “हम” का प्रयोग हुआ है। जहां व्यक्ति नहीं, समाज प्रमुख है।
सतयुग के आदर्श पुरुष सत्यवादी हरिश्चंद्र 
        
   इतिहास गवाह है कि समय के साथ साथ प्राणि समाज अपनी संस्कृति के मूल मंत्र “ सामाजिक सौहार्द” से दूर होता गया। युगों की परिकल्पना के पीछे संभवत: एक कारण यह भी है।

     सतयुग मे वैदिक सभ्यता अपने संपूर्ण स्वरूप मे प्रचलित थी। समाज मे सबके कल्याण के लिए बनाए गए सिद्धांतों का पालन सर्वोपरि था । राजा हरिश्चंद्र कर्तव्यपथ पर किस तरह डटे रह कर व्यक्तिगत जीवन मे महान कष्ट झेलते हुए भी विचलित नहीं हुए- यह तत्कालीन समाज का एक उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण हमे प्राचीन साहित्य मे मिल जाते हैं।

त्रेता के युगपुरुष श्रीराम 
     त्रेता युग आते आते धर्म के चार पैरों मे से एक पैर टूट गया । धर्म- अर्थात जो हमे मनुष्य होने के नाते धारण करना चाहिए। धारयेत- इति धर्म: । जो हमारी संस्कृति ने हमे बताया था। उस रास्ते से हम चौथाई भाग भटक गए। इसके बावजूद युग पुरुष श्रीराम का आदर्श चरित्र हमे स्मरण कराता है कि पुत्र के रूप मे, पति के रूप मे, भाई के रूप मे,  पिता के रूप मे,  पति के रूप मे और राजा के रूप मे हमारा धर्म क्या होना चाहिए !

   दूसरी ओर रावण का मदोन्मत्त चरित्र हमे यह बताता है कि निरंकुश सत्ता और शक्ति पाकर हमने समानता तथा संवेदना पर आधारित वैदिक संस्कृति को कैसे भुला दिया।
रावण के अहंकार का अंत 

   राम रावण युद्ध ने पुन: संदेश दिया - सत्यमेव जयते। अर्थात अंत मे सत्य की ही विजय होती है।

    द्वापर युग आते आते धर्म रूपी  बैल की दूसरी टांग भी टूट जाती है। अर्थात मानव वेदों के बताए रास्ते से और दूर चला गया। कौरव और पांडवों का युद्ध बताता है कि उपभोग के संसाधन के प्रतीक "राज्य" के लिए सगे चचेरे भाई भी एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। स्वार्थ तथा भौतिक सुख जुटाने की प्रवृत्ति  इतनी  बढ़ गई  कि छल से जीते गए राज्य मे से उड़द की सफेदी के बराबर अधिकार भी दुर्योधन नहीं छोड़ना चाहता। लोभ मोह मद और अहंकार- वैदिक  संस्कृति पर कुहासे की तरह छा  गए।
दुर्य्धन का अहंकार 
युग पुरुष श्री कृष्ण ने रणक्षेत्र मे अर्जुन को उसके वेदोक्त कर्तव्य(धर्म) का ही स्मरण गीता के रूप मे कराया था। महाभारत के युद्ध ने सिद्ध किया कि वैदिक मार्ग से हटते ही समाज मे कैसी कैसी विकट परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। महाभारत युद्ध के परिणाम ने साबित किया कि जहां धर्म होता है- विजय भी वहीं होती है ( यतो धर्म ततो जय )।

    कलियुग मे धर्म रूपी बैल की तीसरी टांग भी टूट चुकी है। अर्थात धर्म केवल एक चौथाई बचा है और अधर्म तीन चौथाई तक जा पहुंचा है।

द्वापर के युगपुरुष श्रीकृष्ण 
   आज हम देख रहे हैं कि स्वार्थ, लोभ, मोह, मद क्रोध और अहंकार आदि नकारात्मक विचार ही फल फूल रहे हैं। दया, करुणा,  संवेदना, परोपकार, विनम्रता आदि सकारात्मक विचार धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं।

आइये – थोड़ा और गहराई मे जा कर आज के युग का अवलोकन करें-

      पांच सितारा होटलों मे लाखों की आलीशान दावतें चल रही हैं।  पानी की जगह बेशकीमती शराब पी जा रही है। जिंदा बकरे भून कर खाए जा रहे हैं। मनपसंद जिंदा पक्षी, मछलियां, गाय, मुर्गे, सुअर, हिरन, तले जाने के लिए, भूने जाने के लिए, काटे जाने के लिए आपके ऑर्डर का इंतज़ार कर रहे हैं ।  कई तरह के वेज व्यंजन, सूप, सलाद, एपेटाइज़र, स्वीट डिशेज़, कई किस्म के चावल, कई तरह की चपातियां कई तरह के ड्रिंक्स, कई देशों के फूड्स.. आपके इशारे पर तत्काल परोसे जा रहे  हैं ।
भोजन विलासिता 

इंसान का एक रूप हर चीज़ का भरपूर  लुत्फ उठा रहा है ।

अब देखते हैं तस्वीर का दूसरा रुख-

    कचरे के ढेर से पन्नियों मे बंद फेंका हुआ सड़ा-गला खाना, जिसे कुत्तों सुअरों या आवारा जानवरों तक ने छोड़ दिया है- ऐसे खाने को मैले कुचैले नंग धड़ंग बच्चे चाव से खा रहे हैं। फिर प्लास्टिक की खाली पन्नियों को बटोर कर  बेच रहे हैं वे इंसान नुमा कीड़े मकौड़े । शाम तक मशक्कत करके चालीस पचास रुपए तो मिल ही जाएंगे ।  किलोभर आटा, दो चार प्याज, नमक – इतना तो आ ही जाएगा ! प्याज के टुकड़ों के साथ दो दो रोटियां, हिस्से मे आ ही जाएंगी। कसर रही तो पानी से पेट भर जाएगा। झुग्गी मे आस लगाए मरणासन्न नशेड़ी  बाप, बीमार मां तथा  छोटे भाई बहनों का आज तो पेट भर ही जाएगा । फिर निंदिया रानी ले लेगी अपने आगोश मे । जिसे पाने के लिए उन्हें  किसी दुकान पर नहीं जाना। कोई कीमत नहीं चुकानी !

     रात के बाद फिर सुबह होती है। दबा, कुचला बेबस  बचपन एक बार फिर कूड़े के ढेरों पर भूख मिटाने के लिए जा पहुंचता है । रोज कुआं खोदना है। तभी रोज पानी पी सकेंगे ये हमारे भविष्य के नागरिक । यह अंतहीन सिलसिला आखिरी सांस तक चलता रहेगा।
निर्धनता का अभिशाप 

     लानत है इक्कीसवीं सदी की इस इंसानियत पर्। लानत है - वैदिक सभ्यता और संस्कृति का डंका बजाने वाले इस विश्वगुरु देश  पर । क्या हमे अपने आगे सभ्य शब्द जोड़ने का जरा भी नैतिक अधिकार है ? क्या हमे आधुनिक शिक्षा ने यही पढ़ाया है कि यह सब देख कर भी मौन बने रहो ! 

    हमसे अच्छा तो पशु समाज है जहां अमीर गरीब नही होते। जो उतना ही खाते हैं जितना उनके पेट मे आता है। जिनमे दुनिया का सबसे अमीर बनने की हवस नही होती । जो अपने जैसे दूसरे जानवर को भी जीने का हक देते हैं। जो किसी दूसरे जानवर को नीचा नही दिखाते। दूसरे जानवर का मजाक नही उड़ाते! दूसरे जानवर के जीने के अधिकार नहीं छीनते !   

     कितनी भोंडी, कितनी घिनौनी, कितनी पाखंडी, कितनी दिखावटी  है यह संपन्नता ! इस आखिरी युग मे कितनी गिरावट आ गई है इंसान के व्यवहार  मे! धारण किये जाने वाले कर्तव्य (धर्म) से वह कितनी दूर चला गया है ! कितना स्वार्थी, कितना क्रूर, कितना हिंसक, और कितना संवेदनाहीन हो चुका है आज का इंसान ! क्या दावतें उड़ाते वक्त उसे उन भूखे नंगे, परिवारों का खयाल नहीं आता जो कितनी ही रातों को बगैर कुछ खाए सो जाते हैं? क्या वे मानव समाज का हिस्सा नहीं हैं?

    जी हां ! यही है वह व्यक्तिवाद ।  इंडिविजुअलिज़्म ! जिससे कभी पश्चिमी सभ्यता परेशान थी।

      आज पश्चिम उस संकीर्ण मानसिकता से धीरे धीरे बाहर आ रहा है। जबकि हमारा नव धनाड्य वर्ग व्यक्तिवाद के शिकंजे मे तेजी से फंसता जा रहा है। हमारे या किसी भी विकासशील या गरीब देश के नव धनाड्यवर्ग ने अकूत दौलत जोड़ ली है। चाहे काले धन के रूप मे, चाहे चोरी से, चाहे रिश्वतखोरी से, चाहे बैंकों को लूटकर या फिर सत्ता के साथ गठजोड़ बना कर । गलत तरीकों से जोड़ी गई वह दौलत सिर पर चढ़ कर बोलने लगती है। यह सोने का मुकुट ही सारी समस्याओं का मूल कारण है। जैसे ही परीक्षित इसे सिर पर धारण करता है वैसे ही वह विद्वान शमीक ऋषि के गले मे मरा सांप धनुष  की नोक से उठा कर डाल देता है।

      यही बुराई है सोने के इस मुकुट मे। इस मुकुट को धारण करते ही मानवीय गुण नष्ट हो जाते हैं। तब भूखे, नंगे, बेबस लोग इंसान नहीं बल्कि दो पैरों वाले मकौड़े नजर आने लगते हैं। फुटपाथ पर गेंडुली मार कर सोए कई कीड़े मकौड़ों को तभी तो कोई बीएमडब्ल्यु कुचल कर निकल जाती है और कहीं कोई हलचल नहीं होती! सरे आम किसी गरीब लड‌की का बलात्कार कर निर्मम हत्या कर दी जाती है पर मामूली लहरें उठने के  बाद झील फिर शांत हो जाती है!

      गहराई से देखने की भी अब जरूरत नहीं रही। खुले आम दिखाई देने लगा है कि एक ही देश मे मानवों के दो समाज हैं। एक समृद्ध मानव समाज  और दूसरा विपन्न, वंचित, निर्धन, अशिक्षित मानव समाज । 

    यह जो दूसरा मानव समाज है यही सारे फसाद की जड़ है, मानवता के नाम पर बदनुमा दाग है। ये है ही क्यों? ये खत्म क्यों नहीं हो जाता? या फिर इसे मानव माना ही क्यों जाए ? धीरे धीरे इन्हें मानव समाज से निकाल कर जंगलों की तरफ क्यों न धकेल दिया जाए ! या इनकी उपेक्षा करते हुए इन्हे अपनी मौत मरने के लिए क्यों न छोड़ दिया जाए !  – यही  हमारे समाज की आज मूल समस्या है।

स्वरोजगार प्रबंधन 
    आज़ादी के बाद हमारे देश मे मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाए जाने के पीछे शायद यही सोच रही होगी कि इन वंचितों को, दबे कुचलों को भी सम्मान और समानता से जीने का अधिकार मिलना चाहिए !

      मिश्रित अर्थव्यवस्था के   पूंजीवादी पक्ष  ने देश को आर्थिक गति दी। बड़े बड़े कारपोरेट घराने दिए ।

      जबकि अर्थव्यवस्था के समाजवादी पक्ष ने देश को कई सार्वजनिक उपक्रम दिये। दबे कुचले  इंसाननुमा जानवर को  समाज मे कमर सीधी करके चलने लायक बनाया । ये सार्वजनिक उपक्रम देश मे मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित थे । तेल, गैस, कोयला, पनबिजली, धातु निष्कर्षण, परमाणु ऊर्जा आदि कितने ही प्राकृतिक खजाने थे जिनके लिए कई उपक्रम बनाकर उस पैसे को आबादी के एक बड़े तबके तक पहुंचाया जाने लगा।

इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि समाज मे अमीर और गरीब के बीच एक और वर्ग उत्पन्न हुआ। इस “मध्यम वर्ग”  ने समाज के दोनो छोरों – अमीर और गरीब को जोड़े रक्खा। देश मे प्राकृतिक संसाधनों से जो पूंजी पैदा हो रही थी, उसका लाभ सभी वर्गों तक पहुंचने लगा। लोगों की जेब मे पैसा आया तो आत्मविश्वास बढ़ा। संपन्न समाज की तस्वीर साफ होने लगी।

    सरकार के खजाने मे जो पैसा आया उससे देश मे आधारभूत ढांचा (Basic infrastructure) खड़ा करने मे मदद मिली। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार का स्तर सुधरा। देश की बड़ी आज़ादी को समस्या नही बल्कि समाधान के रूप देखते हुए मानव संसाधन विकास (Human Resource Development) पर ज़ोर दिया गया। इससे दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष  प्रौद्योगिकी जैसे उच्च तकनीकी क्षेत्रों मे भी देश ने प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई। रेल नेटवर्क, समुद्री जहाजों का निर्माण, दुर्लभ धातुओं का निष्कर्षण, सड़क परिवहन, हवाई जहाज तथा सैन्य सुरक्षा  के क्षेत्र मे अनुसंधान व विकास ने काफी गति पकड़ी। कृषि के क्षेत्र मे हरित क्रांति आई। अनाज बाहर से आना बंद हुआ। दूध के क्षेत्र मे श्वेत क्रांति आई। स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ी ।    

   लेकिन जैसे जैसे वक्त बीतता गया, हमारी मिश्रित अर्थव्यवस्था का पूंजीवादी पक्ष मजबूत होता चला गया जबकि समाजवादी स्वरूप सिमटने लगा। उदारवाद के नाम पर सार्वजनिक उपक्रमों की सरकारी हिस्सेदारी बेची जाने लगी। जहां पहले सरकार की हिस्सेदारी नब्बे या सौ प्रतिशत के आसपास थी, अब घटकर  इक्यावन प्रतिशत के पास लाई जाने लगी।

प्रौद्योगिक प्रशिक्षण 
  और उसके बाद तो सरकारी हिस्सेदारी पूरी तरह खत्म कर दी गई। बाहरी मुल्कों का प्रत्यक्ष निवेश शत प्रतिशत कर दिया गया । नतीजा सामने है । कई सार्वजनिक उपक्रम आज निजी हाथों मे जा चुके हैं। कुछ जाने वाले हैं।

  इसका दुष्प्रभाव समाज के कमजोर वर्ग पर साफ साफ दिखाई पड़ रहा है। जो लाभ पहले सरकार को मिलता था अब वह कारपोरेट की जेब मे जाता है। कारपोरेट अब बड़े पैमाने पर छंटनी करता है। कम से कम लोगों से ज्यादा से ज्यादा काम लेता है। श्रम कानूनों को बदल कर अब काम के घंटे बढ़ा दिये गए हैं। सामाजिक सुरक्षा तथा मानव संसाधन विकास मे जो पूंजी लगती थी - अब वह निजी तिजोरियों मे जा कर अमीर- गरीब की खाई को चौड़ा कर रही है। 

   इससे बेरोजगारी बढ़ी है। कम से कम  श्रमिकों से अधिक से अधिक काम लिया जाने लगा है । काम का दबाव बढ़ने  से डिप्रेशन जैसे मानसिक रोग बढ़ने लगे हैं। पैसे का सर्कुलेशन बहुत सीमित हाथों मे हो रहा है।  समाज का मध्यम वर्ग  करीब करीब खत्म हो चुका है। अब पूंजीवाद का खौफनाक चेहरा साफ साफ नजर आ रहा है। या तो देश  मे मुट्ठी भर अमीर बचे हैं या फिर नब्बे प्रतिशत तक मजदूर व थोड़े से मैनेजर। समाज दो हिस्सों मे बंट चुका है। देश की अस्सी फीसदी दौलत सिर्फ दस फीसदी हाथों मे सिमट गई है। इन अस्सी फीसदी लोगों के लिए पहले सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं थीं, सरकारी नौकरियां थी, शिक्षा  थी, अवसर थे। लेकिन अब सभी चीजें निजी हाथों मे जाने से महंगी हो गई हैं। आपके पास पैसा है तो आपके लिए सब कुछ है। पैसा नहीं है तो भूल जाइए।
कौशल प्रशिक्षण 

गांवों मे विकास कार्यों के लिए मनरेगा नाम से जो स्कीम चलाई जा रही हैं उनका बजट ऊंट के मुंह मे जीरे की तरह बहुत कम है। तीन सौ पैंसठ दिनों मे से सिर्फ सौ दिन का रोजगार ही इस स्कीम से एक घर  को मिल पाता है। बेरोजगारी का आलम यह है कि उच्च शिक्षित युवा भी अब मनरेगा मे मेहनत मजदूरी कर रहे हैं, जबकि उनकी प्रतिभा का बेहतर उपयोग हो सकता था।

     शहरों की तरफ पलायन की वजह भी यही है कि गांव मे मनरेगा के अलावा रोजगार का कोई अन्य जरिया नही के बराबर है। कृषि का हाल यह है कि साल भर कड़ी मेहनत करने पर भी किसान मामूली फायदा ही ले पाता है ।

     शहरों मे स्मार्ट सिटी बनाने  की अपेक्षा उसी कीमत मे कम से कम  हजारों  स्मार्ट विलेज बनाए जा  सकते हैं। इससे शहरों पर बढ़ रहा बेतहाशा दबाव भी घटेगा और एक साथ कई गांव विकसित होने से गांवों मे रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे ।

हस्त शिल्प 
    देश मे जो प्राकृतिक तथा मानव निर्मित उत्पादन के स्रोत हैं उन्हे निजी हाथों मे देने के अलावा  सहकारी समितियों को भी दिया जाए तो उच्च शिक्षित वर्ग भी समाज के विकास मे योगदान कर सकता है । बेरोजगारी भी तेजी से घट सकती है । स्वाभिमान, सम्मान और समानता से जीने का नागरिक का अधिकार भी बहाल हो सकता है तथा मध्यम वर्ग, जो अब तक सरकार के आश्रित था अब सहकारिता के माध्यम से समाज की एकरसता को समरसता मे बदल सकता है । अपना भविष्य खुद ही संवार सकता है । 

    खुशी की बात यह है कि हमारी नई शिक्षानीति को रोजगारोन्मुख बनाया जा रहा है। इससे स्वरोजगार को बढ़ावा मिलेगा ।  बेरोजगारी घटेगी। अपनी कुशलता, अपनी योग्यता के आधार पर सभी लोग अपने लिए खुद ही रोजगार पैदा करेंगे तथा देश की तरक्की मे सहायक बनेंगे । आत्म निर्भर भारत से शायद यही आशय है।

    तो क्या हम यह मानें कि पूंजीवाद के चरम पर पहुंच जाने के बाद एक बार फिर हमारे देश मे समतामूलक समाज की स्थापना हो सकेगी ? ऐसा समाज जो हर चीज के लिए सरकार का मुंह ताकने की बजाय स्वयं समर्थ होगा, स्वयं अपनी सुविधाएं जुटाएगा, खुद ही अपना सुरक्षित भविष्य बनाएगा । 

वही सबल, संपन्न, स्वस्थ, सकारात्मक सोच वाला समाज-  जिसका उल्लेख हमारे वेदों मे है।

(समाप्त)    


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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