कहानी -खोया हुआ आदमी


        पिछली  शाम को मैं कई रोज बाद घर लौटा था. आते ही सबसे पहले इच्छा हुई उस आदमी से मिलने की  । बड़ी उत्सुकता थी मन मे कि मोबाइल कैमरे से खींचे हुए चित्र उसे दिखाऊं । मुझे यकीन था कि चित्र देख कर वह कुछ न कुछ जरूर बोलेगा, और बोलते ही उसके अतीत के बारे में जानकारी मिल जाएगी ।

            पर रात गहरी हो चुकी थी. वह मिलेगा भी या नहीं, कहना मुश्किल था ।

सुबह उठते ही मैं नीम के पास पहुंचा. वहां काफी लोग इकट्ठा थे. हर कोई पेड़ की तरफ देख रहा था. वहनीम की काफी ऊंची डाल पर बैठा था   जरा सी लापरवाही से वह नीचे गिर सकता था।  और वहां से गिरने का मतलब था सिर्फ मौत ।

मैने देखा –उसने हमेशा की तरह कई कमीजें , फटा पुराना फौजी स्वेटर और ऊपर से वही मैला कुचैला कोट पहना हुआ था ।  गहरे खाकी रंग की फटी गंदी पैंट भी वही थी।  उलझे खिचड़ी बालों को ढकने की बेकार कोशिश करता फौजी टोप भी वही था ।  हां ! अलग अलग रंग की बेमेल जुराबें व उधड़े हुए फौजी बूट चबूतरे के नीचे पड़े  थे ।  चेहरा पत्तों में छुपा हुआ जरूर था पर हर आदमी जानता था कि उसके चेहरे पर घनी दाढ़ी-मूंछें होंगी । भीतर तक चुभ जाने वाली कटीली आंखों में हारे हुए सिपाही की खिसियाहट होगी।
 
दोनो कुत्ते जो हर वक्त उसके साथ रहा करते, चबूतरे के पास खड़े  मुंह उठाए उसे देख रहे थे ।  
काफी देर तक न तो वह नीचे गिरा और न नीचे उतरा ।  भीड़ छंटने लगी ।  मैं पुलिस चौकी की तरफ मुड़ गया ताकि उसेहिफाजत के साथ नीचे उतारा जा सके ।

एक सवाल बार बार मुझे कचोट रहा था कि आखिर क्या सोच कर वह इतनी ऊंची डाल पर बैठा ? पुलिस चौकी जाते हुए मुझे वे कई किस्से याद आने लगे, जिनका संबंध किसी न किसी रूप में उस आदमी से था ।

कुछ ही अरसा पहले उस आदमी को इस इलाके में देखा गया था ।  उसका हुलिया देख कर कहा जा सकता था कि वह दिमागी तौर पर कमजोर है और घर का रास्ता भूल गया है ।  सड़क पर चलते हुए वह हर पेड़-पौधे को, हर मकान सड़क, गली-कूचे को या फिर हर अदमी को गौर से देखता, जैसे किसी खोई हुई चीज़ को ढूंढ रहा हो ।  कभी सड़क के किसी मोड़ पर अचानक रुक जाता और मुस्कराते हुए दूर कहीं देखने लगता ।  वह बहुत कम बोलता था ।  शायद ही किसी ने कभी उसे बातें करते हुए देखा हो ।  उसका नाम क्या है, वह कौन है, कहां से आया है, कहां रहता है और इसी नीम के नीचे अक्सर क्यों बैठा रहता है – ऐसे कई सवाल मेरे मन में भी थे पर उन सवालों का जवाब कौन देगा - मैं नहीं जानता था ।

नीम के चबूतरे पर बैठ कर पेंटिंग्स बनाते उसे कई बार देखा जा सकता था।  कभी कोयले के टुकड़े से तो कभी नरम सफेद खड़िया पत्थर से वह चित्र बनाया करता था ।  वे चित्र अक्सर नदी, जंगल, गांव या खेतों के होते थे ।  कभी वह पेड़ की डाल पर बने घोंसले  के चित्र भी बनाता ।  घोंसले में अंडे या फिर रोम विहीन पखेरू होते।  घोंसले के पास की डाल पर वह चिड़िया का जोड़ा बनाता ।  वह जोड़ा चोंच खोले नन्हें पखेरुओं को प्यार भरी नजरों से देख रहा होता ।  

उस दिन बाजार में काफी भीड़ थी ।  मिठाइयां, बिजली के बल्बों की लड़ियां, दीये, मोमबत्तियां, पटाखे और खील-बताशे लेकर लोग घरों को लौट रहे थे ।  कालोनी से बाजार जाने वाली सड़क के किनारे तकरीबन आधे रास्ते पर   खड़े उस नीम के पास भी लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ था।  हर किसी को जल्दी थी ।  बच्चे, जवान, बूढ़े – सभी गुजर रहे थे वहां से लगता था जैसे सड़क एक नदी है, जिस पर पानी की तरह लोग बह रहे हैं।  कोठियों पर लटकी लड़ियां एक दिन पहले से ही जगमगाने लगी थीं ।

उसी भीड़ में  मैं भी था ।  नीम के बिल्कुल पास पहुंचने पर  मैंने सिसकने की आवाज़ सुनी ।  नज़र अपने आप पेड़ की तरफ घूम गईं ।  टांगों के बीच सिर छिपाए, चबूतरे पर औंधा पड़ा वह सिसक रहा था ।  उसकी हिचकियां बंध गईं थीं ।

बाकी लोगों की तरह मैंने भी पास जा कर देखा- चबूतरे के फर्श पर कोयले से एक अधूरा चित्र बना हुआ था।  चित्र में एक नदी थी, जो उसके आंसुओं से बह रही थी।  नदी के एक तरफ उजड़ा हुआ गांव था, और दूसरी तरफ डायनासौर सा विराटकाय एक कारखाना, जिसकी ऊंची ऊंची चिमनियों से निकलता काले नागों के झुंड सा गहराता धुआं  सारे इलाके पर छा रहा था।   गाय-भैंस और उन्हें चराने वाले बच्चे मिल जुल कर  नदी में नहा रहे थे ।  नदी के किनारे खड़ा था एक बहुत बड़ा पेड़, जिसकी पत्तियां बिल्कुल नीम जैसी थीं।  लहलहाते खेतों के मुहाने पर खड़े थे दर्जनों बुल्डोजर, मानों किसी दुश्मन देश के टैंक हमला करने की तैयारी में हों।  आदेश मिलते ही जो फसलों को जमीदोज़ कर दें, घरों को मिट्टी मे मिला दें और रास्ते मे आने वले हर पेड़ को उखाड़ डालें, चाहे वह फलों से ही क्यों न लदा हो, चाहे उस पेड़ पर सुकून से जी रहे चिड़ियों के सैकड़ों घोंसले क्यों न हों, चाहे उन घोंसलों से छिटक कर आग उगलती जमीन पर धूल में पटक दिये गए वे पखेरू तड़प तड़प कर खामोश ही क्यों न हो गए हों।  और गांव के आसमान पर उस चित्र में दिखाए गए थे हजारों डरावने विशालकाय गिद्ध।  अपने विराट डैने फैलाए सारे आसमान को निगल जाने की महत्वाकांक्षा मक्कार आंखों में दबाए।  उनकी चोंचों से लार टपक टपक कर उन लाशों पर गिर रही थी, जो सारे गांव में इधर उधर बिखरी पड़ी थीं।
  
चित्र के एक भाग में कुछ नंग धड़ंग बच्चे भी थे जिन्हें जिंदा लाश कहना ज्यादा बेहतर होता।  उनके बदन पर उभरी हुई हड्डियां साफ साफ गिनी जा सकती थीं।  मांस की एक एक बोटी जैसे खुरच खुरच कर उनके जिस्मों से उतार ली गई थी।  उनकी आंखों से टूटे  हुए कुछ में सपने भी झांक रहे थे।  सुनहरे भविष्य के उन चूर- चूर सपनों को चित्र में अच्छी तरह महसूस किया जा सकता था । बांस की खपच्चियों से उनके पतले हाथों में भीख के खाली कटोरे थमे थे। कटोरों के चारों तरफ बिखरी थी विदेशी शराब की बोतलें, बेहोश औरतें, और गोश्त के टुकड़े ।  चित्र में नशे में डूबे ठहाका लगा कर हंसते कुछ लोग भी थे जिनके कुल्हाड़ियों जैसे पैने दांत और तलवारों जैसे लम्बे नाखून भूखे नंगे बच्चों की गरदनों के बिल्कुल करीब पहुंचे हुए थे ।  एक बेफिक्र, खौफनाक, निर्मम व अमानवीय हंसी उनकी मक्कार आंखों से झांक रही थी ।  

उस चित्र को देखने के बाद मेरी परेशानी और भी ज्यादा बढ़ गई थी ।  उस आदमी को अब तक मैं दिमागी तौर पर कमजोर समझता आया था।  पर सवाल था कि जो पेंटिंग सोचने पर मजबूर कर दे- उसे एक पागल आदमी कैसे बना सकता है ?   मैं यह भी जानता था कि दुनियां के मशहूर चित्रकार अक्सर ऐसी ही पेंटिंग्स बनाते हैं जिनका सिर-पैर किसी की समझ में नहीं आता ।  पर उन चित्रकारों को तो कोई पागल नहीं कहता ।  उलटे लाखों रुपए में खरीद कर पैसे वाले उन्हें अपने ड्राइंग रूम की दीवारों पर सजाते हैं. उन्हें नाम दिया जाता है एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग्स ! यानी अमूर्त चित्रकला !

तो क्या वह कोई महान अमूर्त चित्रकार है ? यदि हां, तो फिर उसका नाम क्या है ? मुद्दतों से इस तरह फटेहाल भटकने के पीछे उसकी क्या मजबूरी है – यह सवाल तब भी अनसुलझा रह जाता ।  सुना है उन्नीसवीं सदी का महान विचारक  तथा दास कैपिटलजैसा ग्रंथ लिखने वाला कार्ल मार्क्स भी पुराना मैला कुचैला ओवरकोट  पहने इसी तरह जर्मनी की सड़कों पर घूमा करता था ।   उसी फक्कड़ इंसान ने मानवता को  समाजवाद जैसा मानवीय विचार दिया था।  क्या वहभी कोई महान चिंतक है ? आज जबकि बाजार में इतनी भीड़-भाड़ है, चहल-पहल है,  त्यौहार की खुशी है,  उत्सव का माहौल है- तब भी वह इतना उदास और गमगीन क्यों है ? खुद को सबसे अलग, कटा हुआ क्यों महसूस कर रहा है ? चारों ओर भरी खुशियों से अपने को क्यों नहीं जोड़ पाता वह ? यादों के सुखद और दुखद – जाने कितने डंक वह अकेला ही क्यों झेलता है ? क्या इतनी भीड़ में वह किसी को भी इस लायक नहीं समझता जो उसका दर्द बांट सके ? उसके रोने की वजह पूछ सके ?

कुछ देर तक उसके पास खड़ा खड़ा मैं सोचता रहा ।  कई बार इच्छा हुई कि उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछूं कि वह क्यों रो रहा है ? पर हर बार हाथ उठ कर रुक जाता । आखिरकार मैंने फैसला किया कि उससे कुछ नहीं पूछूंगा ।  कुछ फल और मिठाइयां चबूतरे पर रख कर मैं भी बगैर कोई बात किये लौट गया ।  भीड़ में कुछ लोग कह रहे थे- अरे पागल है ।  पागलों का क्या ?  कभी रोने लग जाते हैं ।  कभी हंसने लगते हैं ।  

उसके बाद कई रोज तक वह दिखाई नहीं दिया ।  भले ही आते- जाते नीम की तरफ मेरी निगाहें जरूर उठ जाती थीं ।  

तभी ऑफिस से मुझे अचानक बाहर जाना पड़ा ।  कम्पनी को एक स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन की लैंडस्केपिंग करने तथा उसे विकसित करने का काम मिला था ।  ऑफिस ने मुझे कम से कम समय में यह प्रॉजेक्ट निपटाने का आदेश दिया था ।

आदिवासी इलाके में स्थित उस साइट पर जब मैं अपनी टीम के साथ पहुंचा तो हैरान रह गया ।  आंखों पर यकीन नहीं हुआ ।  मेरे सामने दूर तक उजड़े हुए कच्चे झोंपड़े थे, जिनकी फूस की छतें जला दी गई थीं ।  तैयार फसलों पर दर्जनों बुल्डोजर चल रहे थे ।  नदी किनारे के चरागाह, रेतीले पाट, गांव की पगडंडियां, आम अमरूद चकोतरे केलों के पेड़ तथा सोना उगलते उपजाऊ खेत – सभी को बुल्डोजर बेरहमी से रौंदते जा रहे थे ।  उखाड़े हुए पेड़ जहां तहां गिरे पड़े थे ।  पेड़ों से छिटक कर तपती हुई ज़मीन पर बिखरे फूटे अंडे व  छटपटाते नन्हें पखेरू चीत्कार करते हुए  दम तोड़ रहे थे ।  चीख चीख कर आसमान को सिर पर उठाए हजारों पंछी उन्हीं धराशायी पेड़ों  के ऊपर मंडरा रहे थे जिन पर कल तक उनके घोंसले थे  व जिनकी टहनियों पर छांव में बैठे वे अपने नन्हें बच्चों को दाना खिलाया करते थे ।
 
   वीरान उजड़े गांव में घरों  के साथ सुनसान पड़ी गोशालाएं भी थीं जिन पर अब भी कहीं कहीं जानवर बंधे थे ।  उन भूखे-प्यासे जानवरों की आंखों से पानी बह रहा था ।  हड्डियों के उन ढांचों को  आसमान में मंडराते डरावने विशाल गिद्ध बार बार अपनी फौलादी चोंच से हमला करके लहू लुहान कर रहे थे । कहीं गोशालाओं में घुस आए जंगली  भेड़िये जिंदा जानवरों का गोश्त नोच-नोच कर खा रहे थे ।  गुर्राते हुए भूखे लकड़बग्घे इधर उधर बेखौफ घूमते जिंदा जानवरों को खोज रहे थे ।  जहां जानवर मिलता,  झपट्टा मारते और देखते ही देखते उसे उधेड़ कर खाने लगते । 

नदी के किनारे बस एक ही जंगी नीम का पेड़ खड़ा था, जिसके काफी करीब तक बुल्डोजर पहुंच चुके थे ।  

जेब से मोबाइल निकाल कर मैंने इलाके के कई फोटो खींचे ।  वीडियो बनाया ।  भारी मन से उस इलाके की नए ढंग से लैंड स्केपिंग का काम शुरू किया  और काम निपटा कर लौट आया ।  लौटते हुए मैं यही सोच रहा था कि सबसे पहले उस पागल आदमी से मिलूंगा ।

रात को जब मैं घर पहुंचा तो काफी देर हो गई थी ।  दूसरे वह आदमी नीम के नीचे ही मिलेगा- इस बात की भी कोई गारंटी न थी ।  अत: बड़ी मुश्किल से उत्सुकता दबाते हुए रात काटी ।  

सुबह होते ही मैं नीम के पेड़ पर पहुंचा ।  मुझे यकीन था कि मोबाइल पर खींचे गए फोटो देख कर वह कुछ न कुछ जरूर बोलेगा ।  और उसके मुंह खोलते ही बहुत सारे सवालों का जवाब मिल जाएगा कि वह कौन है, कहां से आया है तथा इस तरह बेघरबार क्यों भटक रहा है ।

पहुंच कर देखा- नीम की सबसे ऊंची डाल पर वह लापरवाही से बैठा हुआ था ।  चबूतरे के पास खड़े दोनो कुत्ते मुंह उठाए उसे  एक टक देखते जा रहे थे ।  आस-पास काफी लोग इकट्ठा हो गए थे। बगैर जरा भी वक्त खोए मै सीधा नजदीकी पुलिस चौकी की तरफ भागा ताकि उसे पेड़ से ठीक ठाक नीचे उतारा जा सके ।  इससे पहले कि मैं पुलिस अधिकारी से कुछ कह पाता, अधिकारी ने जीप पर बैठते हुए कहा- अभी रुकिये । नीम के पेड़ से कूद कर एक पागल ने खुदकुशी कर ली है ।  पहले वहां जाना जरूरी है ।  
(समाप्त)


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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