कहानी: -- रामभरोसे


                            

   बरगद का वह जंगी पेड़ साक्षी है जर्मनी व इटली के उन कैदियों का, जो शुरू में यहां रहा करते थे । फिर आजादी के बाद पाकिस्तान से हजारों की तादाद में बदहाल परेशान लोग यहां आए और  दोबारा जीवन की नई पारी शुरू की ।   इस बरगद ने वह टैक्सटाइल मिल बनते हुए भी देखी है जिसमें सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ था ।   जिसके सायरन की तेज़ किंतु मीठी आवाज सुबह सुबह सभी को जगा देती थी।

      यह बरगद उस हादसे का भी गवाह है जिसकी वजह से करीब बीस साल बाद टैक्स्टाइल मिल बंद हो गई ।  ज्यादातर मजदूर क्वार्टर छोड़ कर चले गए ।  कॉलोनी उजड़ गई. खौफनाक सन्नाटा छाया रहता ।  कुछ लावारिस जानवर, आवारा कुत्ते,  और सियार यहां घूमते रहते हैं ।   गिने चुने  कमरे ही बचे हैं जिनमें  कुछ परिवार अब भी रहते हैं ।  इन परिवारों के साथ कम्पनी का मुकदमा चल रहा है । फैसला आने तक ये रहेंगे ।  आबाद मिल कॉलोनी को उजड़ कर खंडहरों में तब्दील होते हुए भी इस बरगद ने देखा है ।  टहनियों से लटकती,  काफी दूर तक फैल गई उसकी मोटी मोटी जड़ें  अपने पुराने होने का जैसे पुख्ता सुबूत देती हैं ।     

     और इस दौर में यह बरगद साक्षी है उस अच्छी खासी  भीड़ का, जो रोज सुबह इसके नीचे जुटा करती है ।  काम की तलाश में  भटकता हर कोई घूम फिर कर इसी बाबा बटेसर नाथ की शरण  में पहुंच जाता है ।    

      रामभरोसे से मेरी पहली और आखिरी मुलाकात का गवाह भी यही बरगद है, जब एक सुबह मैं यहां पहुंचा था ।  उस रोज भी हमेशा की तरह  काफी भीड़ थी ।  हर कोई जानता था कि मैं वहां क्यों आया हूं ।  कई लोग मेरी तरफ यूं देख रहे थे, जैसे कह रहे हों – हमें ले जा लो ।  मैने सरसरी निगाह से सभी को देखा ।  मजबूत कद-काठी के एक अधेड़ आदमी पर जाकर निगाह ठहर गई ।  उसने चारखाने का पुराना गमछा सर पर लपेटा हुआ था ।  बदन पर आधे बांह की मैली सी कमीज थी, जिसके ऊपर के दो बटन टूटे हुए थे ।  कमर से नीचे घुटनों तक लंगोटीनुमा धोती थी।  वह मेरी तरफ मुस्करा कर देख रहा था, पर उसकी मुस्कराहट के पीछे पीड़ा छिपी थी, जिसे गौर से देखने पर पढ़ा जा सकता था।  मैने इशारे से उसे पास बुलाया  और उसका नाम पूछा।  रामभरोसे’ -  धीमी और ठहरी हुई आवाज़ में छोटा सा उत्तर दिया उसने।  

- बड़ा अच्छा  नाम है ।
सुन कर वह कुछ बोला नहीं ।  बस सिर झुकाए मुस्कराने लगा।     
“आज कुछ क्यारियां बनानी हैं ।  बन जाएंगी ?   
उसने हां में सिर हिला दिया ।   
मेरे घर के बराबर वाली जमीन पर एक छोटी सी बगीची थी । आम, लीची, नाशपाती, चकोतरे वगैरह के  कई पेड़ उसमें उगे थे ।   बीच  की खाली जमीन पर मैं कुछ सब्जियां बोना चाहता था ।  
घर पहुंचते ही रामभरोसे ने फावड़ा मांगा और काम पर जुट गया ।  

तभी घर से पुकार सुनाई पड़ी ।  छुट्टी का दिन था ।  कोई न कोई मिलने आता रहता था।  न चाहते हुए भी जाना पड़ा।   

देखा बाहर सुशील खड़ा था । कहने लगा तहसील से बाबू लोग आए हैं।  ओले पड़ने से जो गेहूं की फसल बरबाद हुई है उसका  मुआवजा देंगे।  जमीन की खतौनी मांग रहे हैं ।    
- ठीक है, देता हूं । कह कर मैं  खतौनी खोजने लगा ।  

कागजों में खतौनी खोजते हुए मेरी आंखों के सामने कल की घटना घूम गई । खेत पर जाकर मैंने देखा- गेहूं सूखने लगा  है ।  चार पांच रोज में काटने लायक हो जाएगा ।  जरा देखूं दाना कैसा पड़ा है ? गेहूं की एक बाल तोड़ कर हथेली पर मसली ।

सोचा था- हमेशा की तरह गेहूं के मोटे मोटे दाने दिखाई देंगे, पर हाथ में थे सूखे जीरे जैसे दो चार दाने ।  देख कर जी खराब हो गया।  क्या तो सुशील खा लेगा, और क्या बेचारा मुझे दे देगा ? इसी उधेड़बुन में  कल से पड़ा हुआ था।  

आखिर खतौनी की नकल मिल गई।  सुशील को नकल थमाते हुए मैंने पूछा – किस हिसाब से देंगे मुआवजा ? फसल तो चौपट है । ”

- बता रहे थे हजार डेढ़ हजार रुपए बीघे पर देंगे ।  सुशील ने लापरवाही से जवाब दिया। 

मुझे पता था कि इतने में तो लागत भी पूरी नहीं निकलेगी । लेकिन खतौनी देने के सिवा मेरे पास कोई  चारा नहीं था ।  सुशील जा चुका था ।  मैं बगीची की तरफ मुड़ गया ।  यह देखने के लिए कि अब तक  राम भरोसे ने कितना काम निपटाया है ?

आ कर देखा- चार –पांच बड़ी –बड़ी क्यारियां बगीची में करीब करीब तैयार थीं । रामभरोसे उनकी मेंड‌‌  बना रहा था । मुझे देखते ही बोला, अब मैं क्यारियों में खाद डालूंगा । आप तब तक बीज ले आओ।  
बगीचे के एक कोने में गोबर की खाद पड़ी थी ।  शायद रामभरोसे की नजर उस पर पड़ चुकी थी।  खास कर अदरक के लिए गोबर की पकी हुई खाद बहुत फायदेमंद होती है।  मैं जानता था, और रामभरोसे को बताना भी चाहता था, पर मेरे मन की बात मुझसे पहले उसी ने कह दी ।  उसकी सूझ-बूझ की मन ही मन तारीफ किये बगैर मैं न रह सका ।  

“ हां , अभी लाता हूं । ” कह कर मैं भीतर बीज  लेने चला गया।

बीज लेकर लौटा तो देखा-  खाद क्यारियों में फैलाई जा चुकी थी ।  

 आखिर मुझसे रहा न गया, पूछ ही लिया,  “ तुम्हें तो खेती किसानी का काफी गहरा तजुर्बा मालूम होता है ! पहले कहीं खेतों पर या किसी फारम पर नौकरी करते थे क्या ?”

उसने ना  में सिर हिला दिया और फिर चुपचाप काम पर लग गया ।

“तो फिर इतनी जानकारी  ! ऐसा सधा हुआ  हाथ ! लगता तो यही है कि खेती का काम तुम काफी पहले से करते आ रहे हो !”  

सुन कर वह खामोश रहा ।  

उसकी बर्दाश्त न होने वाली खामोशी मैं ज्यादा देर नहीं झेल पाया ।
“ हां रामभरोसे बताया नहीं तुमने ?

मैंने देखा- उसकी उंगलियां अदरक के सड़े हुए बीज एक तरफ कर रही थीं, गौर से देखने पर उसकी आंखों के किनारे आंसुओं की बूंदें दिखाई पड़ीं जो शायद मेरे सवाल का जवाब थीं और किसी भी वक्त आंखों से उतर कर खिचड़ी दाढ़ी में कहीं गुम हो जाने वाली थीं ।  मेरी तरफ पीठ करके उसने जल्दी से आंखें पोंछ डालीं और फिर मुस्करा कर बोला ।  एक किसान की याद आ गई थी ।  

-मैं समझा नहीं. कौन किसान ? उसकी कौन सी बात याद आई तुम्हें ?

-था एक किसान ।  ऊंचे सपने देखता था ।  जल्दी अमीर बनना चाहता था ।  तभी तो  एक बार  सारी जमीन पर अदरक बोई थी उसने।   

- तो ?
- पूरे पचास हजार  का कर्जा लिया था बैंक वालों से।  सोचा था चार- पांच लाख की अदरक तो मरी से मरी हालत में  भी निकल ही जाएगी।  कर्जा चुकाने के बाद भी  अच्छी बचत हो जाएगी।  गेहूं- धान की फसल में लागत दुनिया भर की है।  बीजने से गाहने तक खरचा ही खरचा । अपनी मेहनत अलग।  साल भर बाद जहां से चलो वहीं के वहीं।  और अगर कहीं ओला या सूखा पड़ गया या फिर बहती आ गई तो ऊपरवाला ही मालिक है ।  

- हां, बात तो ठीक है ! मगर उस किसान का फिर क्या हुआ ?

- अब तक रामभरोसा ने अपने आप पर काबू पा लिया था।   सड़े बीज अलग करके उसने एक तरफ रख दिए और अच्छे बीजों को छाज में रखते हुए बोला- बुवाई के बाद जब अंकुर नहीं फूटे तब जाकर पता चला कि बीज सड़ा हुआ था।  

- वाकई बहुत बुरा हुआ ! तो फिर ?

- बस फिर होने को बचा ही क्या था ! बैंक की किश्तें जा नहीं सकीं।  ब्याज पर ब्याज चढ़ने लगा।  बहुत हाथ पैर मारे उसने।  कोपरेटिव से कर्जा लेकर दो भैंस खरीदी कि दूध बेच कर किश्त भरूंगा ।  पर खूंटे पर आते ही दूध आठ किलो से घट कर चार किलो रह गया ।  दाने- भूसे का खरचा तक नहीं निकला ।

मुझे रामभरोसे की कहानी के नायक से हमदर्दी होने लगी।  मैं उसके बारे में सभी कुछ एक बार में ही जान लेना चाहता था।  मन ही मन मैं यह भी चाहता था कि आखिर में हिंदी फिल्मों की तरह रामभरोसे का नायक सभी मुश्किलें पार करता हुआ अपने मिशन में कामयाब हो जाए।  उसका कर्ज चुक जाए, वह अमीर आदमी बन जाए ।   

- तो फिर क्या हुआ भाई ?

- रामभरोसे की आवाज रुंध रही थी, जिसे कड़ा करने की वह बेकार कोशिश कर रहा था ।  

- बिजली के बिल, बच्चों की फीस, कपड़े लत्ते, शादी- ब्याह, लेना-देना, क्या क्या खरचे नहीं होते घर में ? पहले गेहूं मक्का बेच कर थोड़ा बहुत गुजारा हो जाता था, अब तो वह सहारा भी छिन गया।  दूसरे के खेतों पर मजूरी करने में शरम थी ।
- फिर ?
- एक रोज बैंक से चिट्ठी आई।
- क्या लिखा था चिट्ठी में ?
- लिखा था कि महीने भर तक किश्त जमा नहीं हुई तो जमीन नीलाम हो जाएगी।   
- तो फिर क्या किया उस आदमी ने ?

लहसुन की गांठें तोड़ते राम भरोसे के हाथ एक पल को ठहर गए ।  मेरी आंखों में निमेष भर को झांका उसने, फिर गरदन  झुका ली व खराब कलियां एक तरफ करते हुए बोला- उसी गांव में पहले भी एक आदमी की जमीन नीलामी की चिट्ठी आई तो उसने फांसी खा ली थी ।   

मेरा खयाल था कि रामभरोसे के नायक ने भी फांसी लगा ली होगी ।  फिर भी मैंने पूछ ही लिया –
- क्या किया फिर उसने ?

- सारे गांव के सामने अपनी पुश्तैनी जमीन नीलाम होते कैसे देखता ?  उसने सोचा कि मरने से बेहतर है जमीन बेच कर सारा करजा उतार दूं ।  फिर कहीं शहर जाकर कोई  छोटा-मोटा धंधा करूंगा।  क्या पता किस्मत जोर मार ही दे।   जमीन बिक भी जाएगी पर रहेगी तो यहीं।  दिन आए तो फिर खरीद लूंगा ? यही सोच कर उसने घर-बार बेच कर गांव छोड़ने का फैसला कर लिया।

- मेरी सांस अटक सी गई थी ।  मन चाहता था कि वह जमीन न बेचे।  कुछ और मोड़ ले ले उसकी कहानी।  भारी मन से सुनता रहा ....

रामभरोसे कहता जा रहा था- सारी जमीन जायदाद, गाय-बैल, भैंस, फलदार पेड़, अपना वफादार कुत्ता, मुर्गे- मुर्गियां सभी कुछ बेच कर उसने करजे चुका दिये,  और फिर एक रात को चुपके से गांव छोड़ दिया हमेशा के लिए...................
 
तभी पत्नी दो प्यालों में चाय ले आई थी ।  रामभरोसे का काम देख कर वह खुश हो गई ।   एक कप रामभरोसे को तथा एक कप मुझे थमाते हुए बोली – ऐसा अच्छा काम पहले किसी ने नहीं दिखाया ।  मजदूर आते हैं ।  अनमने ढंग से काम करते हैं ।  बीच में एक डेढ़ घंटे खाना खाने में गुजार देते हैं।  ठीक पांच बजते ही हाथ-पैर धोकर दिहाड़ी मांगने लगते हैं।  

बात बिल्कुल सही थी।  मेरा अनुभव भी यही था।  लेकिन हमेशा की तरह मैं  हां में हां मिलाने की बजाय  मैं रामभरोसे की तरफ मुड़ा और पूछा,
- फिर क्या हुआ ?  

सिर पर  लिपटा गमछा उतार कर रामभरोसे ने चाय का कप उस पर रखा ?  फिर दो तीन घूंट गरम चाय गले से नीचे उतार कर बोला-  

- किराए का मकान लेकर वह एक कस्बे मे रहने लगा ।  वहां से शहर ज्यादा दूर नहीं था।  बच्चों को पास के स्कूल में भरती करा दिया ।  घरवाली आस-पड़ोस के घरों में चौका बरतन करने लगी।   वह खुद रोज शहर निकल जाता काम की तलाश में।  कहीं मकान बन रहे होते तो वह दिहाड़ी मजदूर बन जाता ।  कहीं फैक्टरियों में सामान इधर से उधर ले जाना होता तो वहीं मजूरी कर लेता।  कहीं  खेती का काम मिल जाता।  जहां जो भी काम मिलता वह ना  नहीं करता था।  

रामभरोसे के नायक के साथ हुआ हादसा वाकई तकलीफदेह था।   फिर भी मैं जानना चाहता था कि छोड़ने के बाद क्या वह आदमी फिर कभी गांव गया था ?

इस सवाल के जवाब में रामभरोसे की उदास आंखें दूर, पेड़ों की ओट में छिप रहे सिंदूरी सूरज को देखने लगीं।  थकी-हारी आवाज में बोला- जहां जनम हुआ, जहां बचपन बीता, जहां बचपन के संगी साथी थे, रिश्तेदार थे, उस जगह को बेचा तो जा सकता था, पर दिल से कैसे हटाता ? याद आती रही।  जाने में शरम भी लगती थी।  हिम्मत करके  एक बार गांव चला ही गया था वह।   

- गांव वालों ने उसे सिर-आंखों में बिठा लिया होगा  ?  
  
- जो भी मिलता मुंह फेर लेता।  राम भरोसे रुआंसा हो गया – उसके खेतों को कोई और जोत रहा था।  आंगन में खड़ा पुराना नीम अब भी था, पर उसके नीचे छाया में खाट पर कोई और बैठा था।  जिस छप्पर के नीचे उसके बैल बंधे रहते थे, अब वहां ट्रैक्टर खड़ा था।  उसके बैल अब खूंटे से नदारद थे।  दोनों भैंस भी दिखाई नहीं पड़ीं।   आंगन के करीब ईंट बजरी के ढेर लगे थे।  शायद कच्चे मकान को तोड़ कर पक्का मकान बनाने का इरादा था ।  

किसी ने भी बैठने तक को नहीं कहा ।  

मन डूब रहा था ।  वह ज्यादा देर खड़ा न रह सका।  उलटे पांव लौट गया।  सूनी उदास आंखों से अपने बीते हुए जमाने को देखता जा रहा था मुड़ मुड़ कर।  

नदी पार करने के बाद उसने अपने कुत्ते को पुचकारा।  उसके बदन पर हाथ फेरा।  और फिर मुंह फेर कर लौट गया।  फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा ।

उफ्फ ! बहुत दर्दनाक किस्सा है... मन ही मन मैं बड़बड़ाया, फिर बोला -  रामभरोसे, बड़ी मेहरबानी होगी, मुझे उस आदमी से मिला दो ।  

दिहाड़ी लेकर जाते रामभरोसे को मैं तब तक देखता रहा, जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो गया ।  

बरगद के उसी पेड़ पर मैं तब से कई बार आ चुका हूं।  हर बार आंखें ढूंढती हैं  एक ही आदमी को - जिसके सर पर मैला सा गमछा लिपटा हो, जो घुटनों तक की लंगोटीनुमा धोती पहने हो, कई धोखे खाने के बाद भी जिसकी उम्मीद टूटी न हो,  जिसे खेती किसानी का बहुत तजुर्बा हो, और जिसका नाम रामभरोसे हो  ..... आखिरी बार कही हुई उसकी बात पर मुझे भरोसा है ।  गमछे से आंखें पोंछते हुए  उसने कहा था - ठीक है, मिला दूंगा कभी ।

(समाप्त)



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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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