कहानी - मैं, तुम और खामोश पहाड़

     रिमझिम-रिमझिम बारिश होने लगी है............

    जी चाहता है बारिश में नहाती पहाड़ की घाटियों को देखूं। उन्हीं घाटियों को, जिन्हें बचपन के दिनों में जी भर कर देखा था मैंने । तब यह पहाड़ हरी-हरी घास से ढका था। घाटियों पर चीड़, देवदार, और कई कीमती पेड़ों के त्रिकोणधारी जंगल थे। लाल-लाल फूलों के गुच्छों से लदे बुरांस की नर्म डालियों पर तब घुघती बोला करती थी। बारिश में नहाते बन्दर तब चट्टानों को फोड़ कर धाराओं में बहता शिलाजीत खूब खाते।

     होश संभालने के बाद वे आवाजें, बराबर सुनी थी मैंने। ‘झांय-झांय’ की कलेजा हिला देने वाली आवाजें। मैंने बाबा को भी देखा था जो रोजाना मंड़वे की दो काली रोटियां, और एक प्याज लिये, कमर में रस्सी-कुल्हाड़ी बाँधे मुँह अँधेरे उठकर चले जाया करते थे। बाबा ने एक रोज बताया, हम पेड़ काटते हैं। मुझे बाबा से नफरत हुई थी कि वह इतने खूबसूरत पेड़ काट कर क्यों गिरा देते हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बाबा पेड़ न काटें?
    वक्त बीता। बाबा बूढ़े हो गए, और उनके हाथ में थमीं कुल्हाड़ी मेरे हाथों में आ गई। उनकी कमर पर लिपटा रस्सा मेरी कमर पर लिपट गया, और मेरे कदम भी किसी मशीन की तरह चुपचाप उसी रास्ते पर बढ़ गए, जिस पर बाबा तकरीबन सारी उमर चलते रहे थे। 

      मैंने देखा, और जानना चाहा, कटते हुए पेड़ो के ऊपर उनींदी चिड़ियां क्यों मंडराती हैं ? क्यों धुनती हैं सिर ? चीख-चीख कर, पँख फड़फड़ाकर क्यों उठा लेती हैं सिर पर आसमान ? उस वक्त मैं नहीं जान सका था कि कैमरों के मुँह इन उनींदी चिड़ियों की तरफ क्यों नहीं पलटते  ? बड़े-बड़े रचनाकार घाटी पर बिछी खूबसूरत घास, फुनगियों की बांहों में झूमते बादलों, या फिर पहाड़ से छलांगते सतरंगे झरनों की जमीन पर ही क्यों लिखते हैं?
पर मैं तो इतना ही जान सका था - तुम एक अच्छे आदमी हो। तुमने खाली हाथों को काम दिया है। गरीब के दुःख-सुःख में भी काम तुम्हीं आते हो।

     वाकई, उस वक्त तुम न होते तो मेरा प्यारा बेटा परमा बच नहीं सकता था। कच्ची सड़क के एक तरफ बारिश में भीगती टूटती चटृटानें थीं, और दूसरी तरफ लहरें फटकारती, लावे सी उफनती पागल नदी। मेरे लाख रोकने पर भी तुम नहीं माने। अपनी जीप में मेरे बेटे को बिठाकर उसी वक्त ले गए  थे पचास मील दूर अस्पताल। पैसा मेरे पास कहाँ से होता ? सारा खर्च तुम्हीं ने उठाया था। उस वक्त तुमने कहा था पैसा इन्सान ने बनाया है धरमा। इस नाते इन्सान पैसे से बड़ा है। तू और तेरा बेटा भी मेरी तरह इन्सान हैं। 

     तुमने मेरे बेटे को बचा लिया। जी चाहा था कि इसके बदले तुम्हें अपनी कीमती से कीमती चीज भेंट कर दूं, पर तुम्हें देने लायक कुछ भी तो न था मेरे पास। पर तुम नहीं जान सकोगे, तुम्हारे लिए कितनी इज्जत, कितना अपनापन उमड़ उठा था मेरे मन में ?  उस रोज से तुम्हारा काम मेरा काम हो गया। अपने साथियों पर मुझे गुस्सा भी आता कि वे ठीक छः बजे ही काम क्यों रोक देते हैं ? अगर वे एक दो घंटा और काम कर लें तो उनका क्या बिगड़ जाए  ?
      अँधेरे में आरा चलाते वक्त कई बार मेरी उंगलियां भी चिर जातीं। पैरों के अंगूठे ठोंकरें खाकर छिल जाते। पर मैं लगा ही रहता। तुम्हें जब इसका पता चला तो बहुत बिगड़े थे मुझ पर, और कहा था-‘बेवकूफ’ अपने शरीर का ख्याल नहीं रखता? अबे जान है तो जहान है, समझा ? वक्त पे छुट्टी कर लिया कर। खबरदार........। 

    अगले रोज तुमने सौ-सौ के चार नोट मेरे हाथों मे थमा कर कहा था- ‘ये मेरी तरफ से हैं। दूध के डंगर का बंदोबस्त कर। और हाँ, दूध बेचने मत लग जाना, परमा भी पढ़ रहा है, उसे भी शाम सबेरे बराबर दूध चाहिए, और अपना बदन तो गधे ने तोड़ कर रख दिया।’

    नतीजा यह हुआ कि मैं तुम्हारे प्रेम में पागल हो गया। रात-दिन, खाते-पीते, उठते-बैठते एक ही ख्याल रहने लगा कि तुम्हारा ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। इस ठेके में तुम खूब मुनाफा कमा सको। लेकिन मुनाफा तब तक कैसे हो सकता था, जब तक कि मजदूर कुछ काम बगैर मजदूरी लिए  न करें ? इसके लिए मैंने साथी मजदूरों को डराया- धमकाया। प्यार-पुचकार कर भी काम लिया। इसका नतीजा भी बड़ा अच्छा रहा। मजदूर मेरी चालों में आ गए । काम छः बजे की बजाए आठ पर खत्म होने लगा जबकि मजदूरी वही बीस रुपए  रोज।

     तुमने दूसरी आरा मशीन भी लगा ली है- यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई थी, सच! उस वक्त मेरे दिमाग में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि लोग दो-दो आरा मशीनें क्यों लगाते हैं ? पर उस वक्त तो मैं इतना ही सोच सका था कि वह शुभ घड़ी कब आएगी, जब तुम्हारी तीसरी आरा मशीन भी लगेगी।
मुझे याद है वह दिन भी। मैं और मेरे साथी सीधी चट्टान पर खड़े देवदारों को गिराते चले जा रहे थे। तभी बस्ता कंधे पर लादे मेरा परमा दौड़ता हुआ आया था। उसकी आवाज खुशी से कांप रही थी। गढ़वाली और आधी हिन्दी मिलाते हुए बोला था वह-‘बाबा वो आछरी धार तक पक्की सड़क बन के आ गई। वो खड़ीक है न बाबा, नरसिंह के थान पे, उसके बिल्कुल नीचे से आएगी।’ 

   कुछ दिन बाद मैंने देखा-पक्की सड़क पर भारी मशीनें धड़धड़ाती चली आ रही हैं। मशीनों पर गेहुएं चमड़ी के अंग्रेज बैठे हुए हैं। मशीनें बिल्कुल मेरे झोंपड़े के पास आकर रूकी। मैं, मेरे साथी और परमा खुशी से फूले न समाए  थे। मैं यही समझा था कि जितनी भारी मशाीनें इस पहाड़ पर चढ़ेगी, उतना ही भारी विकास यहाँ होगा। उस वक्त मुझे कुछ लोगों की कही बात कड़वी लगी थी कि भारी मशीनें यहाँ विकास कि बदले विनाश करेंगी। इनके मालिक दौलत की विराट चट्टानें खड़ी कर देंगें और तब मैं और मेरे बहुत से साथी एक कौड़ी के लिए भी तरस कर रह जाएंगे।

     बल्कि मैं तो समझा था कि यह पहाड़ अब करवट बदलनें की तैयारी में है। अब यहाँ नए -नए  कल कारखानें खुलेंगे। पत्थरों को पीसकर लोहा निकाला जाएगा। चीड़ और देवदारों को चीरकर एक से एक चीजें यहीं बनाई जाएंगी। फिर परमा को नौकरी के लिए बाहर जाकर भटकना नहीं पड़ेगा।

    तुम्हारे कहने पर मैंने धान के अपने लहलहाते खेत मशीनें रखने के लिए  दे दिए । और भी कई लोगों के खेत तुम्हारी ये दानवी मशीनें लील गईं। संतरे, बुरांस, काफल, अखरोट और जाने कितने दूसरे पेड़ भी काटने पड़े। यहाँ तक कि हजारों साल पुराना देवता का लोहे का स्तम्भ भी तुम्हारी मशीनों को रखने के लिये उखड़वा दिया गया। मशीनें आराम करने लगीं। इसी बीच बिजली के विराट खम्बों पर मोटे-मोटे तार खिंच कर आ गए । गाँव के उपजाऊ खेतों को रौंदता हुआ विशाल बिजली-घर खड़ा हो गया और इसके साथ ही वे भारी मशीनें हरकत करने लगीं।

     फिर एक दिन अचानक हमसे आरे और कुल्हाड़े रखवा दिये गए । हमारा हिसाब चुकता कर दिया गया। मैंने सोचा-यह सब मेरी बदतमीजी से तँग आकर करना पड़ा है तुम्हें। मेरा बेटा बीमार पड़ता है । और मैं भी सिर्फ दस-पन्द्रह पेड़ ही गिरा पाता हूं दिन भर मे । मुझे मजदूरी भी देनी पड़ती है।

    मैं तुम्हारे काम नहीं आ सका - इसका मुझे बहुत अफसोस था, पर इससे भी ज्यादा अफसोस मुझे परमा की नौकरी का हुआ था। उसकी पढ़ाई अधूरी छूट रही थी। आज उसकी मां होती तो............अच्छा हुआ बिचारी इससे पहले चली गई।
पक्की सड़क बन जाने पर इस पहाड़ मे कालेज खुल गये, जहाँ अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र और वनस्पतिशास्त्र पढ़ाये जाते। मुझे अच्छी तरह याद है- इससे पहले यहाँ सिर्फ ज्योतिष के विद्वान ही होते थे और ज्योतिष का ताल्लुक भूस्खलन, बाढ़ और विनाश से नहीं था। उसका ताल्लुक तो आसमान में चमकते ग्रह-नक्षत्रों से था, जो कि मुझसे, पेड़ो से और इस समूचे पहाड़ से लाखों-करोड़ो मील दूर थे।

      जिस दिन मैंने सुना तुम आये हो बस, सब कुछ छोड़-छाड़ कर तुम्हें मिलने चल पड़ा। हाँ, आते हुए अंगोछा भर काफल लाया। रास्ते भर सोचता रहा- तुमसे नाराज होकर कहूगां, ‘सेठ जी, कोल्हू के बैल को बुढ़ापे में धक्का दे दिया। जिन्दगी भर आपके आरे कुल्हाड़े चलाए  हैं। अब तो कगार पर हू़ं। खेती-बाड़ी सब खतम हो गई। अब तो आपके कदमों का ही सहारा है। परमा की पढ़ाई भी अधूरी छूट रही है।’

      सोचा था, सब कुछ सुनकर तुम हँस पड़ोगे और कहोगे- अब तो बड़ी चिकनी चुपड़ी छौंकने लगा है बे धरमा। नेता-वेता बन गया है क्या? मैं मुंह फुलाकर कहूंगा- सेठ जी, चूहे की तो जा रही है जान, और बिल्ली का हो रहा है खेल। जरा सोचिये, जिन्दगी आपके लिये गुजार दी। न कोई तनखा है न कोई पिलसिन। एक ही सहारा था, वो भी छीन लिया। अब कहाँ जाऊं ?
    सामने पहुंच कर ठिठक गया। तुम पहचाने नहीं जा रहे थे। तुम्हारी आंखो पर काला चश्मा चढ़ा हुआ था। तुम्हारे चमचमाते सूट पर बेहतरीन इत्र की खूशबू लिपटी थी। तुम्हारे चिकने और सुडौल हो आए  गालों पर लाल रंग छलक रहा था। तुम्हारे सामने एक खूबसूरत युवा इंजीनियर खड़ी थी। अपनी पीले सुनहरे रंग की चमचमाती कार पर कुहनी टिकाये तुम अंग्रेजी में उस युवती से बातें करने और खिलखिलाकर हंसने में व्यस्त थे।
  
     हांफता हुआ मैं तुम्हारे सामने पहुंच गया। तुम्हारी हंसी रूक गई। चेहरे की मुद्रा कठोर हो गई। मैंने काफलों की अपनी मैली-कुचैली पोटली को कांख में छुपा लिया। मेरी आँखें तुमसे मिल नहीं पाती थीं। बस, हाथ जोड़े, सिर झुकाये खड़ा रहा। भौंचक्के खामोश पहाड़ की तरह।
हाँ, क्या है?’ तुम्हारी कठोर आवाज में कड़वाहट थी। मेरे मुँह से निकल गया- ‘भूखों मर रहा हूं मालिक, परमा की कालेज की फीस नहीं जुड़ती।’

    इस पर तुमने कितने भोलेपन से कहा था- भाई धरमा जब फीस नहीं जुड़ती तो छुड़वा दे स्कूल। क्या करेगा पढ़ा-लिखा के ? कहाँ धरी है नौकरी ? और इसके साथ ही तुम और वह युवती खिलखिलाकर हँस पड़े। हँसते रहे थे देर तक।

       फिर थोड़ी देर बाद  बड़ी बेबस आवाज में बोले थे तुम- ‘मेरी कंडीशन तो जानता ही है तू धरमा। अभी हाल में तीसरी मशीन लगानी पड़ी मुझे। बीस लाख रूपया एक फैक्ट्री  में लगा दिया है। एक कौड़ी नहीं बची है। भगवान ही मालिक है अपना तो।’

     मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। होती भी कैसे? भला जिस परमा को बचाने के लिए एक दिन तुमने प्राणों की बाजी लगा दी, उसी के लिए आज तुम ऐसी बातें भला कैसे कह सकते थे? मुझे लगा, तुम मुझसे ऊपर हो गये हो। मैं तुमसे नीचे हो गया हूं। पहाड़ वही हैं। पेड़ वही हैं। चट्टानें, झरने और नीले आसमान पर फड़फड़ाती चिड़ियां भी वही हैं। पर तुम वह पहले वाले तुम नहीं रहे। और मैं ? मैं भी वह पहले वाला तुम्हारा सच्चा साथी नहीं रह गया हूँ। हम दोनों के बीच की समतल जमीन अब पहाड़ बन कर हमारे बीच में खड़ी हो गई है।

    तुम फिर कहने लगे-वक्त बड़ी अनोखी चीज है धरमा। हो सकता है पढ़-लिख कर तेरा बेटा बड़ा आदमी बन जाता, पर अफसोस है धरमा, इस वक्त मैं फाइनेंस करने की हालत में नहीं हूँ, आई एम वेरी सॉरी धरमा।

     मुझे लगा मैं बहुत थक गया हूँ। मेरे उठे हाथ गिर गये। बदन का रेशा-रेशा दुखने लगा। मैं ज्यादा  देर तक खड़ा न रह सका और भारी कदमों को ढोता हुआ चल पड़ा था अपने झोपड़े की तरफ। हाँ, अपना प्यारा घर, अपना गाँव, अपने भोले-भाले लोग, जिन्हें तुम्हारी खातिर मैंने डराया धमकाया था, जिनसे तुम्हारे लिये ज्यादा काम लिया था।

    तुम वापस चले गये। मुझे उम्मीद थी जाने से पहले एक बार जरूर आओगे।  प्यार से बिठाकर कहोगे- बुरा तो नहीं माना धरमा ? मैं मजाक कर रहा था उस रोज समझा ? मैं तेरे परमा की पढ़ाई नहीं छूटने दूंगा। वो जरूर बड़ा आदमी बनेगा।

   मगर तुम नहीं  आए ।
    एक लम्बा समय बीत गया है तब से अब तक। तुम बहुत बड़े-बड़े कारखानों के मालिक बन गये हो। मैं जिन्दगी के पहाड़ को चुपचाप ढोता चला आ रहा हूं। और मेरा परमा........? खैर छोड़ो।

    रिमझिम-रिमझिम बारिश अब भी हो रही है। दानवी मशीनें दहाड़ कर पेड़ो पर झपट रही हैं। झांय-झांय करते पेड़ कट कर गिर रहे हैं। मैं पहाड़ की ओर देखता हूं लेकिन वहाँ पहाड़ नहीं, तुम हो। तुम्हारे जबड़ो के बीच मांस के टुकड़े की तरह फंसा मैं छटपटा रहा हूं । तुम्हारी आंखों में मुझे निगल जाने की व्यथा झलक रही है। पर यह क्या?
मेरा आकार धीरे-धीरे फैलने लगा है। मैं फैलकर विशालकाय हो गया हूं। समूचा खामोश पहाड़ मुझमें समाता चला जा रहा है। यहाँ तक कि तुम और तुम्हारी दहाड़ती हुई विराट मशीनें भी मेरे सामने अब बौनी हो चली हैं........।
(समाप्त)















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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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