
जिस जगह अंग्रेजों को खुदाई में
‘नहाने का बड़ा तालाब’ मिला- डा० बंता सिंह की पैदाइश ठीक उसी जगह हुई थी। उनके
अवतार लेने के करीब दस साल बाद अच्छे भले मुल्क का बंटवारा हो गया। पकिस्तान की
क़िस्मत और उम्र- दोनो का कुछ भरोसा नहीं था, शायद इसी वजह से डॉक्टर बंता सिंह जी के कुनबे ने हिन्दुस्तान में बसने का फै़सला किया।
बंता सिंह जी के मरहूम वालिद जनाब झंडा सिंह रायबहादुर अपने जमाने के जाने-माने हकीम हुआ करते थे। पेशावर से लेकर सिंध कराची तक उनके नाम के डंके बजते थे
। हिन्दुस्तान की सरजमीं पर पहुंचते ही उन्होंने यहां
भी खानदानी शफाखाना खोला। उनके शफाखाने मे
ज़िन्दगी से आजिज आ चुके मर्दों का शर्तिया इलाज होता था। शायद ही इलाके में ऐसा कोई मर्द बचा हो
जिसकी बेजान रगों में हकीमजी ने नया खून न भर दिया हो।
जनाब झंडा सिंह रायबहादुर ने ऐसे ढेर
सारे खानदानी नुस्खे बंता सिंह जी को भी घोलकर पिला दिये थे । यह सोचकर कि नालायक अगर
पढ़ लिख न भी सका तो दो रोटियां तो शान से बैठ कर खा ही लेगा । नतीजा यह हुआ कि इस
हुनर में वह अपने वालिद से मीलों आगे निकल गये। उनका इश्तहार ‘दवाई से पहले, दवाई के बाद’ तो खासा मशहूर हुआ था। इश्तहार के पहले हिस्से में बंता
सिंहजी एक थके-मांदे, लुटे-पिटे शेर को दवाई की खुराक
पिलाते, दूसरे हिस्से में दहाड़ता भूखा
बब्बर शेर पीछे-पीछे और जान बचाकर बदहवास भागते डा० बंता सिंह आगे-आगे।
इस अकेले इश्तिहार की बदौलत
हिंदुस्तान की सरजमीं पर भी खानदानी हकीम
रायबहादुर झंडा सिंह जी का डंका बजने लगा।
पढ़ाई-लिखाई के मामले में बंता सिंह
कुछ ज़्यादा ही खुशक़िस्मत निकले। बस्तों का बोझ लादे जब बच्चे स्कूल के फासले नापा
करते-वह दवाखाने में बैठकर खरल में दवा घोटते। कभी वहां जंगली कबूतरों का शोरबा पक
रहा होता तो कभी उल्लुओं और चमगादड़ो का तेल कशीद किया जाता। कहीं पर मच्छी के
पित्ते में अबरक का कुश्ता घुट रहा होता तो कहीं पर रोगन बैजा मुर्ग में शिंगरफ को
तशविये दिये जाते। इन सारे महान कामों के बंता सिंह जी चश्मदीद गवाह तो थे ही-साथ
ही मौका मिलने पर वह प्रैक्टिकल करके भी देख लिया करते ।
दवाखाने के ऐसे खोजी माहौल में बायलोजी
(जीव-विज्ञान) या केमिस्ट्री (रसायन विज्ञान)
पढ़ने की बंता सिंह जी को ज़रूरत ही नहीं
पड़ी। बची-खुची कसर हकीम जी के गोदाम ने पूरी कर दी-जहां हत्याजोड़ी, गीदड़सिंगी,
भालू का पित्ता, गोरोचन, कस्तूरी, चुड़ैल के बाल तथा शैतान की आंत जैसी नायाब
चीज़ें कांच की शीशियों में महफूज़ रखी थीं ।
इन सभी चीज़ों के भौतिक और रासायनिक गुण बंतासिंह जी को जबानी याद थे। बंता सिंह जी
की अकूत जानकारियों का अंदाजा मास्टरों को
भी काफी हद तक हो गया था। तभी तो बंता सिंहजी को घर पर रहकर पढ़ने की छूट मिल सकी
थी। साल के आख़िर में आकर मास्टरजी उनकी मौखिक परीक्षा ले लिया करते। इस तरह वह
दरजा-दरजा करके आगे बढ़ते रहे। जहां तक बोर्ड के इम्तिहानों की बात है, कोई होनहार बिरवान उनकी जगह इम्तिहान
दे आता, और बंता सिंह अच्छे नंबरों से पास
हो जाते।
जिस यूनीवर्सिटी ने उन्हें डाक्टरी
की डिग्री से नवाजा-कुदरत का करिश्मा देखिये कि थीसिस जमा होने के फ़ौरन बाद उसमें
आग लग गई । सब कुछ जलकर खाक हो गया। उस अग्निकांड में अगर कोई चीज़ बची थी तो वह थी
बंता सिंहजी की डाक्टरेट की डिग्री । बकौल डाक्टर बंता सिंह, उनकी डिग्री आगजनी से कोई घंटा भर पहले ही डिस्पैच हुई थी।
कालेज की शक्ल देखे बगैर डाक्टर बन
जाने की वजह से बंता सिंह जी के बरताव में काफी नफ़ासत आ गयी थी। जैसे कि अपने पेशे
के डाक्टर साथियों से वे दूर ही रहते। भूल से सामना हो गया तो मुँह बंद रखते थे।
बोलने की बजाय गरदन कुछ इस तरह हिलाते कि उसके ‘हां’ और ‘ना’-दोनो मतलब निकलते।
जिसे जो मतलब माफिक आता-निकाल लेता। हालत यह थी कि बंता सिंह जी को यह भी पता न था कि वे चिकित्सा वाले डाक्टर हैं या पीएच डी वाले डाक्टर ? मुंह जब तक बंद था, वह तभी तक के करोड़पति थे। इधर मुँह खुला नहीं कि
बनी-बनाई इज्जत मिट्ठी में मिलने को बेताब। गोया इज्जत न हुई नक़ली बत्तीसी का सेट
हो गया, जो ढीला होकर अब गिरा, तब गिरा।
जब कभी किसी कॉलेज मे या
यूनीवर्सिटी मे उन्हे चीफ गेस्ट बनना पड़ता तो वे लमहे डाक्तर बंता सिंह जी पर बहुत
भारी पड़ते। बोलना होता था इंफंरमेशन टेक्नोलोजी पर, बोलने लगते
चमगादड़ों का तेल कशीद करने के नायाब तरीकों पर्। या फिर बोलने लगते पारे और शिंगरफ
के सौ आंच वाले बिजली जैसे असरदार कुश्तों पर ! उस वक्त मुंह रुमाल से ढके, सिर नीचा किए श्रोताओं को देख कर उन्हे ऐसा लगता जैसे सरे बाजार किसी ने पतलून खींच कर उन्हें नंगा कर दिया है।
रेत की कनी आंख में गिरकर जैसे
चुभती रहती है, डाक्टरी की डिग्री भी कुछ उसी तरह
उन्हें परेशान किये रहती। हर वक्त दिमाग मे यही टेंशन रहता कि मुंह से कहीं कुछ उल्टा
पुल्टा न निकल जाए । इस बीमारी का कोई भी इलाज डाक्टर बंता सिंह अब तक न खोज पाए थे
। हालांकि कोशिशें जारी थीं ।
इसी बीच कुदरत का एक और सियासी
करिश्मा हुआ। हिकमत की दुनिया के वह बेताज बादशाह थे ही । शोहरत बुलंदियों पर थी ।
देश की नामी गिरामी पार्टी ने आम चुनाव मे उन्हे अपना उम्मीदवार बना लिया। सत्तर की पक्की उम्र में भी आसानी से चुनाव जीत गये और पहले ही झटके मे उच्च शिक्षामंत्री
बना दिए गए । पर एक शिकायत, आंख मे रेत की कनी सी फिर भी चुभी रह गयी। शिक्षा मंत्री बनाने की बजाय, खेल मंत्री या फिर जेल मंत्री बना देते तो क्या बिगड़ जाता ?

मगर आहिस्ता आहिस्ता उर्दू जबान के
साथ साथ बच्चों ने उन्हे अंग्रेजी के कुछ आम लफ्ज भी सिखा दिए थे। जैसे ही स्पीच
के बीच मे बंता सिंह जी कहते- इजंट इट? , या एम आइ राइट ? या
फिर गौट इट? तो भीड़ मे बिठाए हुए गुर्गे तालियां पीटने लगते।
उनकी देखादेखी बाकी लोग भी बगैर कुछ सोचे समझे तालियां पीटने लगते । इस तरह चीफ
गेस्टी के संगीन लमहों से पार पाने का नुस्खा आखिर खुद ही खोज लिया था डाक्टर
बंता सिंह जी ने ।
अपने पी एस को मंत्री
जी ने खास ताकीद दी हुई थी कि उर्दू के प्रोग्रामों मे ज्यादा से ज्यादा शिरकत
कराई जाए. उर्दू मजलिसों के तकरीबन सारे प्रोग्रामात वह जरूर अटेंड
करते। खास तौर पर उर्दू मुशायरों मे मेहमान खुसूसी करने का अगर कोई
इज़्ज़तनामा मिलता तो उनकी बांछें खिल जातीं । उन लमहों मे तो वह जान ही डाल देते।
उनकी लच्छेदार शायराना जुबान सुन कर लोग बेतहाशा तालियां पीटने लगते ।
धीरे धीरे डॉक्टर बंता सिंह जी को
बात समझ मे आ चुकी थी। बात बस इतनी सी थी कि तुम्हारे सामने जो भी बैठे हैं, जितने भी बैठे
हैं- समझ लो सारे गधे हैं । उन्हे कुछ
नहीं आता जाता। आप उनसे कई गुना ज्यादा
जानते हो । इसलिए फेंको, जितनी दूर तक फेंक सकते हो । सोचो
सिर्फ वर्तमान के बारे मे। भविष्य उसी से बनेगा जो तुम आज छौंक रहे हो । और हां ! जिंदगी
मे किसी से भी डरने का नईं। उल्टे अच्छे अच्छों को डरा कर रखने का ।
इसी नुस्खे की बदौलत हिकमत मे भी और
सियासत मे भी कामयाबी की नई नई तारीखें गढ़ते चले गए डाक्टर बंता सिंह । यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है ।
(समाप्त)
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