आचार्य शुक्ल,
श्रीमती वर्मा,
राजभाषा अधिकारी
दूबेजी और दफ़्तर के बाकी लोग सभी हाथ हिला-हिला कर अलविदा कह रहे हैं। देखते जा
रहे हैं उस कार को, जिस पर बैठकर हिन्दी बिटिया ससुराल जा रही है। सभी नेत्र
अश्रुपूरित हैं। चश्मे उतारकर रूमाल से आंसू पोंछे जा रहे हैं। जहां रूमाल का अभाव
है, वहां कमीज़ की बांह आंसू पोंछने में काम आ रही हैं स्टेज़ पर
बैनर अभी लगा हुआ है, जिस पर बड़े-बडे लाल अक्षरों में लिखा है- ‘राजभाषा पखवाड़ा
समापन समारोह, 14 से 28 सिंतबर, 2006।
म्यूजिक सिस्टम पर अब भी पुराना गाना नयी डिस्को धुन पर
बज रहा है-‘बा-बा-बा, बाबुल की दुआ....लेती जा....लेती जा,
लेती....जा....’ कुछ
हिप्पीकट छोकरे मंच के आगे अपनी डिस्को शैली में बेतहाशा नाच रहे हैं। चाय के खाली
कप, समोसे-मिठाई की सूनी प्लेटें मेज़ों पर बिखरी पड़ी हैं।
दीवारों पर चिपके पोस्टर अनाथ बच्चों से उदास हैं। आज के इस मनहूस दिन से ठीक
पन्द्रह रोज़ पहले ही तो मायके पहुंची थी हिन्दी बिटिया। चार महीने पहले से ही
बिटिया के स्वागत की तैयारियां होने लगी थीं। बैनर,
पोस्टर,
स्टिकर और निमंत्रण
पत्र छपने जा चुके थे। पन्द्रह दिन तक बिटिया बोर न हो,
इसलिए निबंध,
कविता-पाठ,
सुलेख,
अंताक्षरी,
प्रश्न-मंच,
प्रशासनिक शब्द ज्ञान,
टिप्पणी और मुहावरे
जैसी रोचक प्रतियोगिताएं भी रखी गईं थीं।

14 सितंबर के रोज जब हिन्दी बिटिया मायके पधारी तो उसके आने
की ख़ुशी में ‘उद्घाटन समारोह’ किया जा रहा था। पहुंचते ही सबसे पहले हिन्दी बिटिया
की सेवा में हंसी-मज़ाक से भरा एक नाटक पेश किया गया। नाटक का थीम था कि जिल्ले
सुबहानी, हिन्दुस्तान की सरजमीं के बादशाह जहांपनाह शाहजहां अगर आज
की तारीख़ में अपनी प्यारी बेगम मुमताज महल का मकबरा यानी कि ताजमहल,
तामीर कराते तो उन्हें
कौन-कौन-सी मुश्किलें दरपेश आतीं ?
बिटिया को नाटक बेहद पसंद आया। शाहजहां,
गुप्ताजी और दूसरे
कलाकारों के साथ बिटिया की तस्वीरें भी खींची गयीं। बाद में चाय पीते हुए हिन्दी
बिटिया शाहजहां से बोली, बादशाह सलामत ! तुम्हारी बेगम के मकबरे जैसा मकबरा मैं अपने
लिये भी तामीर कराना चाहूंगी। मुझे यकीन है कि आप लोग मेरी यह नाचीज़ सी ख़्वाहिश
ज़रूर पूरी करेंगे। नाटक के बाद जब गिने-चुने लोग रह गये तो बिटिया ने कहा- ‘आपने
जो सम्मान , जो प्यार, जो अपनापन मुझे आज
बख्शा है उससे मैं बड़ी ख़ुश हूं तथा आप लोगों को वरदान देना चाहती हूं। अतः हे
मायके वालो ! बेझिझक होकर वर मांगो।’
इस पर सारा विभाग घुटनों के बल बैठ,
हाथ जोड़कर आचार्य
शुक्ल की अगुवाई में बोला-हे-जन-जन के कंठ में निवास करने वाली, जन
जन की प्यारी बिटिया ! हे विश्व के एक तिहाई इंसानो की भाषे ! यदि आप सचमुच
प्रसन्न हैं तो वचन दीजिये कि साल में एक बार श्राद्ध पक्ष में आप मायके अवश्य पधारा
करेंगी तथा गाजे-बाजे के साथ पूरे पन्द्रह दिन तक अपनी सेवा-सुश्रूषा कराने का हमें
स्वर्णिम अवसर प्रदान करती रहेंगी। आपकी सेवा-पानी से हमारे पिछले दुष्कर्म तो
क्षीण होंगे ही, साथ ही इस लोक में सुख भोगकर हम सत्यनारायण व्रत कथा के
सत्यदेव की भांति अंत में स्वर्ग लोक को प्राप्त होंगे।’
भक्तों की कातर प्रार्थना सुनकर बिटिया ने तत्काल दाहिना वरद
हस्त उठाया और बोली- ‘तथास्तु ! मैं हर साल 14 सिंतबर से 28 सितंबर, तक श्राद्ध-पक्ष में मायके आया करूंगी। मेरे नाम पर आप
बड़े-बड़े समारोह कराना, लाखों रूपये की सैंक्शन लेकर मनमाने ढंग से ख़र्च करना। मेरी
ख़ूब सेवा करना। इससे निश्चय ही तुम्हारा कल्याण होगा।’ यह वर पाकर सभी मायके वाले
फूले न समाए और दुगने उत्साह से काम में
जुट गए ।
बिटिया बड़ी ख़ुश थी। रोज़ किसी न किसी प्रतियोगिता को देखने
वह आर्चाय शुक्ल के साथ डायस पर आकर बैठ जाती,
तथा खूब आनंद उठाती।
हां ! कभी-कभी ऐसा भी होता कि अच्छा कार्यक्रम भी बिटिया को उदास कर जाता । वह सोचने लगती-मुझे ऐसे अच्छे कार्यक्रम साल भर
क्यों नहीं दिखाए जा सकते ?
आधी उमर बीत गई। कभी
बुला लेते हैं, कभी भूल जाते हैं। और ये बुलाना भी कोई बुलाना हुआ ?
इतनी शान-शौक़त,
इतनी तड़क-भड़क ! क्या
ज़रूरत है इस फालतू ख़र्चे की ? नहीं चाहिए मुझे ये झूठा,
नक़ली सम्मान। न करें
इतना आडंबर । बस, मुझे बुलाते रहा करें। कुछ मांगती थोड़े हूं किसी से ?’
उस रोज़ कविता-पाठ की प्रतियोगिता थी। एक महिला ने सुरीली
आवाज़ में सूरदास का पद गाया- ‘मेरे मन अनत
कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज को पंछी,
पुनि जहाज पे आवै....’
!

इस पर आचार्य शुक्ल
बोले थे- बेटा, रोज़ आने से इज्जत घटती है। तुम्हारे एक बार आने की वजह से
ही हम तुम्हारा इतना सम्मान कर पाते हैं। तुम्हारे स्वागत-समारोह की वजह से कितने
लोगों का रोज़गार मिलता है- कभी सोचा तुमने ?
ये फूल,
बुके,
म्यूज़िक,
बैनर,
पोस्टर,
उपहार,
पुरस्कार,
वीडियो वाले,
ये नाटक,
ये कैंटीन,
स्टेशनरी वाले ये
बड़े-बड़े कवि, कहानीकार, उपन्यासकार,
ये प्रेस,
टीवी-रेडियो वाले तथा
ये सारे श्रोता-साल भर तुम्हारी राह तकते हैं। तुम्हारे ही प्रताप से राजभाषा
अधिकारियों को देश-विदेश मे भ्रमण के अवसर प्राप्त होते हैं। अगर तुम रोज़-रोज आने
लगेगी तो इन सब लोगों का क्या होगा ?’
यह सुनकर बिटिया बडे़ भोलेपन से बोली थी,
‘तो इसका मतलब,
मैं जल्दी-जल्दी मायके
न आऊं पापा ?’
आचार्य शुक्ल मुस्कराकर बोले- मैंने मना कब किया है बिटिया ?
तुम ज़रूर आओ,
पर उस रफ़्तार से आओ
जिस रफ़्तार से हमारे खिलाड़ी मैच जीतते हैं,
जिस रफ़्तार से सरकार
आत्महत्या करते किसानों का दुःख-दर्द समझती है या जिस रफ़्तार से पुलिसवालों में
इंसानियत या दया की भावना आती है या जिस रफ़्तार से अमीर-ग़रीब के बीच खाई पटती है।
बिटिया ! तुम आओ, ज़रूर, पर शेयर बाज़ार के सूचकांक- उस पागल सांड़ की तरह मत दौड़ी
आना। आटे-चावल और दालों की कीमतों की तरह बढ़ती हुई भी मत आना बिटिया। सांसदों के
भत्तों सी बढती हुई भी तुम न आना बिटिया। शिक्षा-केन्दों में लागू किए जा रहे
रिजर्वेशन की उतावली चाल से आना भी ठीक न होगा। भ्रष्टाचार की तेज़ रफ़्तार से आने
की सलाह भी मैं नहीं दूंगा बिटिया। इसी तरह राजनीति में बढ़ रहे बेटा-बेटीवाद की
रफ़्तार से आने में भी
दुर्घटना होने का डर रहता है। अतः आना ज़रूर पर संभलकर आना।’
इस तरह बार-बार समझाने के बाद कहीं जाकर बिटिया की सिसकियां
बंद हो सकीं।
इस हंसी-ख़ुशी के महौल में एक पाख कब बीत गया- पता ही न चल
सका। इधर श्राद्ध-पक्ष ख़त्म हुआ तो उधर समापन समारोह शुरू हुआ,
बल्कि समापन समारोह
क्या, वह बिटिया का विदाई समारोह था। बिटिया सबसे गले मिली। ख़ूब
रोई। अपने हाथ से उसने विजेताओं को पुरस्कार दिये। फिर मुख्य अतिथि बोले-‘साथियों,
मिलन के साथ जुदाई,
दिन के साथ रात,
संयोग के साथ वियोग
आता ही है। पन्द्रह रोज़ पितरों की तरह बिटिया हमारे साथ रहीं। रोज़ हमने उसको
श्राद्ध-भोज दिया। जैसे पाख ख़त्म होने पर पितर स्वर्ग लौट जाते हैं,
उसी तरह पखवाड़ा ख़त्म
होने पर आज 28 सितंबर को बिटिया भी ससुराल जा रही है। जाओ बिटिया,
वहां सबके साथ हिल-मिल
के रहना.....।’
कहते-कहते वयोवृद्ध मुख्य अतिथि की आखों से अश्रुधाराएं फूट
चलीं तथा वह मूर्छित हो गए । मौके़ की नजाकत भांप आचार्य शुक्ल पोडियम की तरफ लपके
। पानी पिलाकर मुख्य अतिथि की मूर्छा भंग की। उन्हें डायस पर बिटिया के बगल में
बिठाया और बोले-‘सज्जनों ! मुख्य अतिथि जी अपने युग के प्रख्यात शृंगार कवि रहे
हैं। नायिका के विरह-वर्णन में उन्हें विशेष योग्यता हासिल है। उनका ह्दय भावों
तथा घावों हमेशा से भरा रहता है। जरा-सा कोई वियोग रूपी कंकड़ कहीं से उनके
ह्दय-सागर में गिर पड़े तो विकराल ज्वार-भाटा की उत्ताल-तरंगे पछाड़ खाने लगती हैं।
इस समय बिटिया की विदाई बेला पर भी वही दौरा उन्हें पड़ा है।
मगर ज़रा सोचिये-बिटिया ससुराल जायेगी नहीं तो मायके आयेगी
कैसे ? अगले साल ये सारा उत्सव-समारोह किस बेस पर होगा ?
अतः हे बिटिया !
तुम्हें जाना ही चाहिए । जाओ बिटिया,
जाओ। अगले साल फिर
मिलेंगे- इसी श्राद्ध-पक्ष में, नये जोश, नयी उमंग के साथ। तब तक के लिए अलविदा.....’
(समाप्त)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें