व्यंग्य - अर्जुन का मोहभंग


 ‘कृष्णा मैनेजमेंट सर्विसेज़’ के आफिस में पहुंचकर अर्जुन सीधे उस कमरे में गया जहां श्री कृष्ण जी बैठते थे।

   अर्जुन को सामने देख श्रीकृष्ण ने उसे गले लगाया। बुआ कुंती और बहन सुभद्रा की कुशलक्षेम पूछी। फिर फलों का ताजा रस अर्पित करते हुए आने का कारण पूछा।

     फ्रूट जूस पीते हुए अर्जुन बोला- ‘हे प्रभो ! यह आपकी महानता है कि आप मेरे आने का कारण पूछ रहे हैं, वरना कौन नहीं जानता कि आप सर्वज्ञ हैं। आपकी द्दष्टि से कुछ भी छुपा नहीं है। किन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण आपने लौकिक व्यवहार  किया है तो मैं भी बताना जरूरी समझता हूं’.....

            जूस का गिलास खाली करके टेबल पर रखते हुए अर्जुन कहने लगा- ‘हे वासुदेव ! आप जानते ही हैं कि मैं आपके ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन’ का कटृर समर्थक हूं। आपके इसी सिद्धांत पर चलकर मेरी शिक्षा पूरी हुई, मुझे अर्धसरकारी विभाग में नौकरी मिली, नौकरी के दौरान अच्छी सेवाओं के लिए योग्यता प्रमाण-पत्र तथा पुरस्कार भी मिले। लेकिन प्रभो ! इतना सब कुछ होते हुए भी पिछले कई बरसों से प्रमोशन के लिए तरस गया हूं। अपनी लगातार असफलता का कारण मेरी तुच्छ बुद्धि में नही आता। अतः आपकी सर्विसेज़ लेने आ पहुंचा हूं। इस समस्या का कारण केवल आप ही बता सकते हैं।

       श्रीकृष्ण आंखे बंद किये मंद-मंद मुस्करा रहे थे। फिर अर्जुन की तरफ देखकर बोले- ‘हे धनुर्धर, तुम्हारी कर्मठता किसी से छिपी नहीं है। तुम मेरे प्रिय भक्त भी हो, तभी तो मेरे कर्म-योग पर चलते रहे। लेकिन तुमने  'कर्तव्य' को 'कर्म' समझने की भूल कर दी। कर्म का मतलब दस से छै बजे की डयूटी नहीं था। वह कर्तव्य है ।  करना ही है। उसके अलावा प्रमोशन  पाने के लिए जो कुछ किया जाता है- वह कर्म है। बॉस की नज़र में सिर्फ उसी की कीमत है। जरा याद करो अर्जुन, ऐसे कौन से कर्म अब तक तुमने किये हैं ?

      अर्जुन सोचने लगा, लेकिन ऐसा कोई भी काम उसे याद न आया। एक प्रकार का अपराध-बोध उसके मुख पर छा गया। श्रीकृष्ण बोले-‘हे अर्जुन, जिस प्रकार जंगल में मोर का नाचना बेकार हैं, उसी प्रकार कर्तव्य को चुपचाप करने जाना भी कोई मायने नहीं रखता । अतः तुम्हे चाहिये कि ज्यादा से ज्यादा प्रेजेंटेशन तैयार करो । जो कुछ किया है, उसे बढ़ा चढ़ा प्रोजेक्ट करो। बॉस के बॉस को भी पार्टी बनाओ ताकि बॉस की गरिमा भी बढ़े। तभी तो वह तुम्हें आउटस्टैंडिंग एसीआर दे सकेगा !

        यह सुनकर अर्जुन ने पूछा-‘हे प्रभो ! प्रोजेक्ट करने की आवश्यकता क्यों है? क्या बॉस को साल भर हमारा कर्तव्य होता हुआ नहीं दिखता ?

        श्रीकृष्ण बोले- बॉस को दिखता है, मगर बॉस के बॉस को नहीं दीखता। ऐसी स्थिति में अगर तुम्हें आउटस्टैंडिंग देता है तो लोग सोचेंगे बॉस अर्जुन को फेवर कर रहा है। ये तुम्हारे हित में नहीं होगा। इसलिये कर्तव्य को प्रेजेंटेशन के जरिये सार्वजनिक करना सीखो पार्थ।

       स बार बात अर्जुन की समझ में बैठ गयी। हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए उसने श्रीकृष्ण की ओर देखा और बोला -‘हे माधव, आपकी कृपा से मैनें ‘कर्तव्य’ एवम् ‘कर्म’ का अंंतर समझ लिया है। अब मैं यह जानना चाहता हूं कि इसके अलावा और कौन-कौन से कारण हैं। जो प्रमोशन को प्रभावित करते हैं ?’

            तब श्रीकृष्ण हंसकर बोले- हे भोलेे ‘पार्थ् ! कई बॉस बड़े सयाने होते हैं, वे दिखावा तो ऐसे करते हैं मानों तुम्हें ‘आउटस्टैंडिंग’ दे रहे हों, लेकिन भीतर ही भीतर वे तुम्हारी एसीआर ख़राब कर देते हैं। ऐसे बॉसों की परीक्षा करना ज़रूरी हो जाता है। अतः पी. एंड ए. सेक्शन में किसी असरदार व्यक्ति से पारिवारिक संबंध स्थापित कर लो। वह व्यक्ति तुम्हें हर साल की एसीआर की रैंकिंग बता देगा। इस प्रकार तुम जान लोगे कि बॉस की कथनी और करनी में फर्क है या नहीं। यदि फर्क हो तो ऐसे बॉस को जितनी जल्दी हो सके त्याग कर नवीन बॉस धारण करना चाहिये। सांप को दूध पिलाने से क्या लाभ ?

         अर्जुन ने सहमति से सर हिलाया। साथ ही शंका व्यक्त की- ‘हे मुरारी, कई बार अच्छी एसीआर होते हुए भी प्रमोशन नहीं हो पाता। इसके पीछे क्या रहस्य हो सकता है ? यदि गोपनीय न हो तो बताने की कृपा कीजिये।’

         प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण बडे़ प्रसन्न हुए और बोले-‘बड़ा ही उत्तम प्रश्न पूछा है अर्जुन तुमने। वास्तव में अच्छी एसीआर का फायदा तभी है जब राजनीतिक क्षेत्र में भी तुम्हारी अच्छी पकड़ हो। अन्यथा होता क्या है ? प्रमोशन के समय उच्च अधिकरियों के पास ऊपर से’ सिफारिशी फ़ोन ‘आने लगते हैं। ऐसे फ़ोनों की उपेक्षा करने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता। नतीजा यह होता है कि खराब एसीआर वाले  प्रमोट हो जाते हैं, मगर तुम जैसे ईमानदार और कठोर परिश्रम करनेवाले रह जाते हैं। अतः ‘कर्तव्य’ एवम् ‘कर्म’ के साथ-साथ तुम्हें किसी ऊंची हैसियतवाले राजनेता से भी संपर्क रखना चाहिये। और संपर्क इतना मजबूत भी होना चाहिये कि वक्त आने पर टूट न सके। कोई उसकी उपेक्षा न कर सके।

    इस पर अर्जुन उदास हो गया। हाथ जोड़े हुए भी बोला-‘हे द्वारिकाधीश, मैनें तो आपके अलावा  किसी भी नेता, राजनेता की पूजा नहीं की। मैं तो पूर्ण रूप से आपके लिए ही समर्पित हूं। आपके अतिरिक्त  मेरा मन किसी और के आगे नहीं झुकता। क्या करूं ?’

       इस पर भगवान कृष्ण बोले-‘हे अर्जुन, मतलब निकालने के लिए कभी-कभी गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। नज़रों के सामने केवल ‘लक्ष्य’ होना चाहिये। चाहे वह किसी भी रास्ते से क्यों न हासिल हो ? फिर राजनेताओं में भी तो मैं ही हूँ। उन्हे प्रसन्न रखने का मतलब है मुझे प्रसन्न रखना।’

      अर्जुन ने भारी मन से सहमति में सिर हिलाया और कहने लगा-‘हे प्रभो, जब आप स्वयं कहते हैं तो मुझे स्वीकार है। मैं अपने क्षेत्र में किसी नेता को ढूंढकर आज से ही उसे प्रसन्न करने में लग जाता हूं।’

       फिर तनिक ठहर कर अर्जुन बोला-‘आपने अब तक जो भी सुझाव दिये वे मैंने भली प्रकार हृदय में धारण कर लिये हैं केशव। लेकिन क्या इस सबके अतिरिक्त भी कोई कारण हैं जो प्रमोशन दिलाने में सहायक होते हैं ?

       कृष्ण जी मुस्कराये व कहने लगे-‘बॉस को उसके जन्मदिन पर सपरिवार डिनर पर बुलाना चाहिये। भोजन बॉस की रूचि के हिसाब से बने। बॉस के बच्चों को बर्थ-डे पर कीमती उपहार देना न भूलो अर्जुन। बॉस की पत्नी को उसके जन्म दिन पर उसकी पसंदीदा आइटम गिफ्ट करने में भी कोताही न बरतो। तुमने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘लवमी लव माई डॉग।’ तो यदि बॉस के यहां कोई कुता है तो कोशिश करो कि उसे बब्बर शेर का पालतू संस्करण सिद्ध कर सको। साथ ही उस भाग्यशाली जीव को रोज दोनों वक्त बाहर घुमा लाना भी कभी न भूलो। बॉस के घर में होने वाले हर फंक्शन में तुम महत्वपूर्ण भूमिका निभाना न भूलो। इससे क्या होता है कि आफिसीय संबंधों  की जलेबी मे आत्मीयता की  मधुर  चाशनी  भर जाती  है। समझे ?’

       अर्जुन का मुखमंडल प्रसन्नता से चमक उठा। हाथ जोड़कर वह बोला- 

‘नष्टो मोहः स्मृर्तिलब्धा, त्वत्प्रसादान्मयाच्युतः।
 स्थ्तिोस्मि गत संदेहः करिष्येहं वचनं तव।।

      हे कृष्ण, हे अच्युत, मेरा मोह अब दूर हो गया। आपकी कृपा से मेरी स्मरण शक्ति वापस लौट आई है। मेरे सभी संदेह दूर हो गये हैं। मैं स्वयम् में स्थित हो गया हूं तथा आपके निर्देशानुसार ‘कर्म’ करने के लिए तत्पर हो गया हूं।
  (समाप्त) 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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