
विचारपक्ष के प्रथम अतिथि रचनाकार की प्रस्तुति
(प्रवासी श्रमिक की व्यथा-कथा)
(प्रवासी श्रमिक की व्यथा-कथा)
दुनिया
का सब देखा खेला
अच्छा-बुरा
सभी कुछ झेला
गया
जहाँ भी स्वर्ग बनाया
बदले
में पर क्या है पाया?
कहने
को हूँ भारतवासी
लेकिन
कहते सब है प्रवासी
सार
यही पाया इन सबसे
अपना
घर था सबसे प्यारा
पाखी
उड़ता दूर-दूर तक
नीड़
में रहकर महल बनाता
सारे
सुख-साधन भर कर के
खुद
को मिटा,
उन्हें दे जाता
जब
विनाश की आँधी आती
तिनका-तिनका
है उड़ जाता
एक
नहीं महलों वाला तब
मेरे
दुर्दिन में है आता
पच्छिम, उत्तर,
दक्षिण जाकर
सब
सुन्दरतम करने वाला
विपदा
आते ही क्यों कर के
पूरब
को लो लौट रहा है
जल्दी-जल्दी
पंख चलाता
चूजों
को कंधों पर रखकर
बिन
साधन के,
बिना सहारे
क्यों
घर को वो लौट रहा है?
घर
में क्या है?
एक आस है
उस
घर का तो हूँ मैं निवासी
कोई
एक प्रतीक्षारत है
सहचर
है मेरे सुख-दुख का
फिर
जोड़ेंगे तिनका-तिनका
फिर
मिलकर कुनबां जोड़ेंगे
एक
नया निर्माण सृष्टि का
मिलकर
हर बाधा तोड़ेंगे
इसीलिए
तो फैली फैली
ऐश्वर्यों
से भरी ये दुनिया
नहीं
है मेरी बेगानी है
उससे
भ्रम मेरा टूटा है
कुछ
कहते सरकार को दोषी
कुछ
विपक्ष को गाली देते
जीवन
जिनके लिए खपाया
वो
मुझको बाहर का कहते
भूखे-प्यासे
कटे रेल से
मरे
न जाने कितने साथी
पहुँचे
जो अपने-अपने घर
दुनिया
जीत गये हैं वे सब
सबसे
बढ़कर अपना घर है
अपना
घर ही अपनी दुनिया
सार
यही पाया इन सबसे
अपना
घर है सबसे प्यारा
- सुरेन्द्र
शर्मा
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