क्या कीजिए


      


कसम खाए , करे वादे, वफा का वास्ता भी दे ।
बेवफा फिर भी कोई हो जाए तो क्या कीजिए ॥

अब तलक जो खेलते आए थे होली रंग से ।
खून से अब खेलने लग जाएं तो क्या कीजिए ॥

आपकी दाढ़ी पे तिनका देख  कर चिपका हुआ ।
आपकी नीयत पे शक हो जाए तो क्या कीजिए ॥

मुखौटे और मुख में फर्क होता है जनाब ।
फिर भी धोखे में कोई आ जाए तो क्या कीजिए ॥

लगा कर आसमानों पर बयानों की झड़ी ।
वे जमीनों पर बरस पाएं न तो क्या कीजिए ॥

दिल निहायत व्यक्तिगत सम्पत्ति होता है 
किंतु कोई दिल चुरा ले जाए तो क्या कीजिए ॥

अंधेरी रात हो और बस्तियों के गिर्द लपटें हों ।
नींद से फिर भी न वो जग पाएं तो क्या कीजिए ॥

आपका दुनियां में ग़र कुछ है तो वो है दोस्त ।
दोस्त ही दुश्मन अगर बन जाए तो क्या कीजिए ॥

दवा भी काम करती है बशर्ते ज़ख्म  ताज़े हों ।
ज़ख्म ही नासूर ग़र बन जाए तो क्या कीजिए ॥

जुल्फों के साए में ख्वाहिश चैन की  पाले हुए ।
उलझनों में वो अगर फंस जाएं तो क्या कीजिए 

इमारत को धमाकों से हिला कर फिर कोई
हिफाजत चाहने लग जाए तो क्या कीजिए ॥  



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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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