व्यंग्य-- चिट्ठियाँ




            छोटे परदे की वह बड़ी प्रोडयूसर थीं। टीवी चैनलों पर कई धारावाहिक एक साथ चल रहे थे। पैसे और शोहरत ने दिमाग़ सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था। मगर फिर भी एक खालीपन का अहसास पांव में चुभे कांटे की तरह टीसता रहता। उसी अहसास को भुलाने के लिए वह दर्शकों की चिट्ठयाँ उठा लेती और पढ़ने लगतीं।

         

   उस इतवार को भीं वह खालीपन को भुलाने की कोशिश कर रही थीं।  लॉन में झूले पर हौले-हौले झूलते हुए उन्होंने पहली चिट्ठी खोली और पढ़ने लगीं।

लिखा था-‘बेटी अनेकता, गद्दो मउसी की तरफ़ से तुम्हें राम-राम पहुंचे। ये चिट्ठी अपनी लाडो बहू से लिखवा रही हूं। लिखी-पढ़ी नहीं हूं न, इसी वजह से। कई रोज़ से तुम्हारे नाटक टीवी पे देख रही हूं। रोने को मन करता है। कई दफे तो दिवाल पे माथा फोड़ने को जी करता है । बाल नोचने लगती हूं। एक-दो रोज़ तो मैंने टीवी बंद ही कर दिया। बिटिया, बताओ तो सही तुम सास-बहुओं के पीछे डंडा लेकर क्यूं पड़ी रहती हो ? न तो तुम्हारी कोई सास है और न तुम किसी की बहू हो, तो फिर अच्छी-भली गिरस्तियां बरबाद करने पर क्यूं  तुली बैठी हो? जानती हो तुम्हारे ये ड्रामे देख देख के   कितने घर उजड़ गये ? तो बिटिया, नाटक बनाओ तो ऐसे बनाओ कि वे झूठ-मूठ के न लगें। सच्ची के लगें, जिन्हें देख के आपस की प्यार-मुहब्बत बढ़े।   तुम्हारी मउसी......’।

         ‘बास्टर्ड ! पहली चिट्ठी ने ही मूड ख़राब कर दिया। आख़िर ये ‘रास्कल’ चाहते क्या हैं ? रामायण, सती-सावित्री देख-देख कर पेट नहीं भरा ? .....’ बड़बड़ाते हुए उन्होंने चिट्ठी फाड़कर फेंक दी और दूसरी चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगीं, लिखा था-

     ‘बहन अनेकता, ये चिट्ठी हम खुशहालपुर के बदहाल बेरोज़गार लिख रहे हैं। तुम्हारे ड्रामे हमें बड़े अच्छे लगते हैं। उनमें जो हीरो होते है वो तो बड़े रईस बाप के इकलौते बेटे होंगे न ? उनके  सूटबूट, आलीशान बंगले, चमचमाती गाड़ियां और साफ-सुथरी चौड़ी सड़कें देखकर तबियत खुश हो जाती है। उस वक्त हम अपने मट्टी के घरों को तो बिल्कुल भूल जाते हैं । 

 हमे ये भी याद नही रहता कि हमारे घरों के ऊपर फूस के छप्पर  छपे हैं। तुम्हारे नाटकों की आलीशान हवेलियां देख कर आंखें चुंधिया जाती हैं। हम कतई  भूल जाते हैं कि उस वक्त हम बिना पलस्तर के ईटों के अधबने मकानों के भीतर बैठे हैं।अनेकता जी कैसी साफ सुथरी चौड़ी सड़कें दिखाती हैं आप? जी करता है उन्हीं सड़कों मे देख देख के कंघी कर लें। उन्ही पे बिस्तर बिछा के सो जाएं ! 

सच्ची बताते हैं तुमसे – हम बिल्कुल भूल जाते हैं अपनी कच्ची सड़कों को, जो पहली बारिश मे ही घुटनों घुटनों तक के कीचड़ से भर जाती हैं। और चप्पल तो हमे कभी साल दो साल मे नसीब हो जाती है। उन्हें पहर कर तो हम पक्की सड़क पर भी न उतरें! कहीं गलती से ऐसे गारे मे चप्पल पहर कर घुसे तो गई चप्पल ! बाहर नंगा पैर ही आता है । चप्पल तो फिर गरमियों मे ही दीखती है ! अनेकता जी ! हमारी सड़क पर  बैलगाड़ी भी घुस जाय तो चौमासे के बाद ही बाहर निकले। बिजली कई-कई घंटे गुल रहती है पर बिल पूरा आता  है। खेती में जितनी लागत लगती है, उतने का अनाज नहीं मिलता। रोज़गार का  कोई जारिया नहीं है। इसी से गांव के कई लोग घर बार बेच-बेच कर शहरों में चले गये। कभी अनेकता जी, हमारी मुसीबतें देखने आ जातीं खुशहाल पुर ? कभी एकाध ड्रामा हमारे ऊपर भी बना  देना बहन। क्या पता उसे देखने के बाद कुंभकरण की नींद खूल ही जाय। तुम्हारे, भाई।....’

            रामू ने  चिल्ड एप्पल जूस का गिलास उनके हाथों मे थमाया। एक सांस में गिलास खाली करने के बाद उन्होंने दूसरी चिट्ठी भी फेंक दी और तीसरी चिट्ठी पढ़ने लगीं।

लिखा था – प्यारी बहना  अनेकता जी,  हम नसीबपुर जिला मथुरा की अभागिन बहुओं की तरफ से तुम्हे  राम राम पहुंचे । ये चिट्ठी  हम अपनी लाडो बहन रामकटोरी से  लिखवा रइ  हैं। वैसे तो बहुओं को तुमने थोड़ी आज़ादी दिखाई है, पर बहना, ये कमती  है. जब अगली बार ड्रामा बनाओ तो ऐसा  बनाओ कि जिसमे बहू सास को लातों और घूसों से मार रही हो। सास की छाती पर चढ़ कर  मुक्के ही मुक्के बरसा रही हो। और बहू का मरद  भी बगल मे खड़ा होके मां को मां- बहन की गाली दे रहा हो। जोरू के इशारे पे बूढ़ी, बीमार मां को घसीट कर घूरे के ढेर पर फेंक रहा हो।  अरे बहना , का बताई, इन खूसट औरतन  ने हमारी जिंदगी गरक कर दई । न मरती हैं, न हमे जीने देत  हैं। आप तो हमरे लिए देवी का अवतार बन के आई हैं। अब जरा रणचंडी बन के हमे इन पुरानी चुड़ैलों के कब्जे से छुड़वाइए न ! ना खुल के पड़ौसी नौजवानों से बात कर सको, न घर की परेसानी बगल वाली दुरगी मौसी को बता सको। करमजली छुप छुप के ताका करे हैं ! भला ये भी कोई जीना है ?

      इस चिट्ठी को पढ़ कर अनेकता जी के होंठों पर खतरनाक मुस्कराहट तैर गई। उन्होने सिर हिलाया और झूला झूलते हुए रामू को  चिल्ड बियर लाने का हुक्म दिया.   

     चिट्ठियां बहुत थीं। एक और चिट्ठी उठा कर पढ़ने लगी अनेकता जी – 

लिखा था - हलो डियर अनेकता। व्हाट ए ब्यूटीफुल सीरियल यार ।   जब तक बहू के दो चार  एबॉर्शन न हों  तो मजा ही नही आता स्टोरी मे। पहली बार ये रेवल्यूशनरी काम आपने किया है। थैक्स अ लॉट! क्या यार वही पकाऊ इंडियन आइडल्स ? दुनिया कहां से कहां पहुंच गई हम अभी तक एक पर ही अटकी हुई हैं। निकालो यार हमे इस गटर से ! अरे दो चार रेप सीन डालो। दो चार डाइवोर्स दिखाओ। तब जाकर कहीं चटपटा स्वाद आएगा। वैसे आप सही डायरेक्शन पर ले जा रही हैं इंडियन टीवी को। हमारी शुभकामनाएं। हम हैं देल्ही असोशिएशन ओफ़ वुमेन इंडिपेंडेंस की वर्कर्। कभी हमारी जरूरत पड़े तो लिखना। इस हिप्पोक्रेट इंडियन सोसायटी का बैंड न बजा दिया तो कहना। थंक्स अ लॉट्। अनेकता जी ।

     रामू चिल्ड बियर और बर्फ ले आया था। गिलास बना कर उसने झूला झूलती अनेकता जी को थमाया जो पांचवी चिट्ठी खोल कर पढ़ने लगी थी । 

    लिखा था-‘अनेकता जी, सादर अभिवादन ! मंत्रीजी की तरफ से उनका सचिव लिख रहा हूं। समस्याओं से हटा कर जिस खूबसूरती से आपने कैमरे का मुंह सास-बहू के झगड़ों की ओर मोड़ा है वह प्रशंसनीय है। कलात्मक है। निर्देशन के क्षेत्र में क्रांति हैं। आपके सभी सीरियल ‘देश-सेवा’ के काम में बखूबी लगे हूए हैं। आपका योगदान देखते हुए इस बार ‘पद्मश्री' के संभावित उम्मीदवारों में आपका नाम भी शामिल किया गया है। सरकार की ओर से किसी भी सहयोग की अपेक्षा हो तो तत्काल लिखें.....’

     आखिरी  चिट्ठी पढ़ने के बाद उनका मूड ठीक हो गया। जाड़ों की चमकीली धूप की तरह मुस्कराहट चेहरे पर खिल उठी। चिट्ठी को चूमते हूए वह मन  ही मन   बोलींं    -‘बस यही एप्रीशिएशन तो चाहिए था ! बाक़ी दुनिया जाए भाड़ मे । आइ डोंट केयर। लेट देम ब्लडी गो टु हेल।

   कहते हुए वह मंत्री जी का मोबाइल नंबर मिलाने में व्यस्त हो गयीं।
(समाप्त)

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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