यह शुरू की बात है। तब पढ़ाई अधूरी छोड़
कर गुड्डू भइया ने राजनिति के पवित्र व्यवसाय में पैर रखा ही था। इस व्यापार मे
अभी उनकी जड़ें जम ही रही थीं कि उनके छात्र जीवन की उपलब्धियां चारों तरफ फैलने
लगीं। उनके समर्थकों का मानना था कि गुड्डू भइया पढ़ाई के दौरान हद से ज़्यादा
मेहनती छात्र रहे हैं। एक-एक क्लास में पांच-पांच साल बैठने का भीष्म कर्म गुड्डू
भइया जैसे धैर्यवान छात्र ही कर सकते हैं। जब गुड्डू भइया नक़ल करते हुए पहली बार
पकड़े गये, उनकी उम्र केवल सात वर्ष की
थी। इस उम्र में जहां साधारण बच्चों के दूध के दातं भी नहीं टूटते, वहीं गुड्डू भइया स्कूल से निकाले जाने का अपमान मुस्कराते हुए झेल गये
थे।
वक्त बीतने के साथ उन पर चोरी,
मारपीट, छेड़छाड़ जैसे आरोप भी लगे, पर गुड्डू भइया ने आरोपों को ठीक उसी तरह सह लिया जैसे लड़के वालों के ताने लड़की वाले सह लेते हैं। आरोपों का सिलसिला
तब भी नहीं थमा जब गुड्डू भइया कालेज में छात्र यूनियन के अध्यक्ष चुने गये थे।
विरोधियों की शिकायत थी कि उन्होनें कालेज प्रशासन को भारी रिश्वत देकर रातों-रात
मत पेटियां बदलवा दीं। अगले रोज वोटों की गिनती हुई तो भइया भारी बहुमत से विजयी
घोषित किये गए । एक आरोप यह भी था कि गुड्डू भइया उन छात्रों को पास कराने के ठेके
भी लेते हैं, जो न तो पढ़ाई में दिलचस्पी रखते हैं और न कालेज
आने में।
किसी-किसी का कहना था कि गुड्डू भइया
कालेज में एडमिशन दिलाने का ठेका भी चलाते हैं। जिस विषय में भी चाहें-एडमिशन सौ
प्रतिशत तय है। बस बात सुविधा शुल्क तय होने तक थी।
इसी किस्म के अनेक जिद्दी दाग छात्र
जीवन में उनकी उजली चादर पर बार-बार लगे, मगर
बग़ैर सबूत के आरोपों की भला क्या हैसियत ? सभी दाग़ों को
गुड्डू भइया कुछ यों धोते कि आलोचक ढूंढ़ते रह जाते। इधर आलोचकों को दाग़ ढूंढ़ने की
पहेली में उलझा कर गुड्डू भइया कब राजनीति के राष्ट्रीय अखाड़े में जा कूदे,
किसी को पता ही न चला। एकाध को पता चला भी, पर
वह इतना ही कह सका कि ‘जो पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी था, वह देश
को क्या दिशा देगा’ - मगर गुड्डू भइया ने बेमतलब की बातों को अनसुना कर दिया।
उन्हें अपनी काबलियत पर पक्का भरोसा था। अकेले में वह गुनगुनाते- ‘हम होगे
कामयाब.... एक दिन....’।
मगर कामयाबी के दिन से पहले मायूसी का
एक मनहूस दिन ज़रूर उनकी जिन्दगी में आया, जब
उनके पिताश्री का संयम जवाब दे गया। इधर बीए में चौथी बार फेल होने का उनका रिजल्ट
आया और उधर उनके पड़ोसी पांडे के बेटे का आइएएस में पास होने का परिणाम। पांडे के
घर में उत्सव सा माहौल था। लोग बधाई देने आ रहे थे। गुड्डू भइया अपने कमरे की
खिड़की से छिपकर उस हृदय विदारक द्दश्य को देख ही रहे थे कि कड़कड़ाती आवाज़ कानों के
परदों क़ो चीर गयी-‘हरामख़ोर’ जरा देख। एक मामूली मास्टर का बेटा आइएएस अफ़सर हो गया।
जो कल तक हमें देख बगलें झांकते थे, आज वे हमारे सामने अकड़
कर चलेंगे और हम आंखें चुराएंगे। नाक कटवा दी गधे ने। बीए तक पास नहीं कर सकता तो
और क्या करेगा ?....वगैरह....वगैरह। पर अपमान के कड़वे घूंट
पीकर भी गुड्डू भइया ने आपा नहीं खोया था। डांट खाकर भी चुपचाप मुस्कराते रहे।
मानो कह रहे हों- कभी अपना भी वक्त आयेगा पिताश्री। ऊपरवाले के घर में देर है, अंधेर
नहीं।
समाज सेवा की राजनीति कालेज से
ज़्यादा प्रोफेशनल थी। यहां वफ़ादार कब पाले में आ जायें,
या कब पाला बदल लें कहना मुश्किल था। पर सियासत के पारखी गुड्डू
भइया जल्दी ही भांप गये कि वफ़ादारों की फौज़ के बगैर आगे की लड़ाई जीत पाना नामुमकिन
है तथा उनके खरचे-पानी के लिए धन की व्यवस्था करना और भी ज़रूरी है।
इस काम में भी उन्हें ज़्यादा
मुश्किलें नहीं आईं। वफादारों के जरिये वह नगरपालिका की ज़मीन पर दुकानें या
झुग्गियां डलवा देते। बदले में अच्छी खासी रकम ऐंठ लेते और अभयदान देते-डरना मत।
मैं हूं न ? उधर पुलिस और पालिका
प्रशासन से मिल आते कि जितना कुछ निकले, निकाल लेना। मेरे
आदमी हैं। मगर एक तिहाई हिस्सा मेरा होगा। इस तरह उन्हें तीन फायदे होते।
पहला-क़ब्ज़ा करनेवाले का वोट पक्का हो जाता। दूसरा- पुलिस और प्रशासन की नज़र में वह
‘लायक नेता’ हो जाते, तीसरा-अच्छी खासी रक़म हाथ लग जाती।
ऐसे अनेक कारनामों को समय-समय
पर गुड्डू भइया अंजाम देने लगे। शोहरत बढ़ने लगी। पैसा उससे भी ज़्यादा बढ़ने लगा।
खादी का घुटनों तक लंबा सफ़ेद कुरता व पायज़ामा पहने विनीत मुद्रा में हाथ जोडे़
मंद-मंद मुस्कराते गुड्डू भइया अब समाचार-पत्रों में भी दिखाई देने लगे। कहीं
विधायक के हाथों नलकूप का उद्घाटन कराते तों कहीं मलिन बस्तियों में सार्वजनिक शौचालयों
का लोकार्पण कराते। कहीं विद्यालय का शिलान्यास करा देते। ऐसे समारोह कराना उनका
मानों शौक हो गया था। मामूली समारोंहों में भी जिंदाबाद के लिए इतनी अथाह भीड़ जोड़
देते कि देखकर बड़े नेताओं की बांछें खिल जातीं।
भीड़ इकट्ठी करने की गुड्डू भइया की
प्रतिभा का उपयोग अब विधायकों ने करना शुरू कर दिया था। जब भी राजधानी में सरकारी
रैली का आयोजन होता, गुड्डू भइया के पौ बारह हो
जाते। उन्हें भीड़ जुटाने के एवज में भी अच्छी खासी रक़म मिलने लगी।
इस भीड़ का उपयोग गुड्डू भइया उन
भ्रष्ट अफ़सरों के खिलाफ़ भी करने लगे जो उनके ‘इलाके’ में रिश्वतखोरी से अच्छी कमाई
कर रहे थे।
अब उन अफंसरों के दफ्तरों के आगे
ट्रालियों में भर-भर कर गुड्डू भइया हजारों की भीड़ इकट्ठी कर देते। मुर्दाबाद के
नारे लगते, इस्तीफा या तबादला मांगा
जाता। यह क्रिया तब तक दोहराई जाती जब तक अफ़सर गुड्डू भइया का ‘मासिक सुविधा
शुल्क’ तक न कर देते।
कमाई के ऐसे अनेक जरिये मिल जाने के
बाद गुड्डू भइया पैसे की तरफ़ से बेफिक्र हो गए । दिखाने के लिए उन्होंने एक बस भी
फाइनेंस करा ली। परमिट भी आसानी से मिल गया। बस रैलियों में भी किराये पर जाने
लगी। अब उनकी नज़रें एमएलए की कुरसी पर जा टिकीं।
लक्ष्य वाकई मुश्किल था। लंबी रणनीति
बनाने की ज़रूरत थी। राजनीति का दूसरा अध्याय शुरू हो चुका था। इलाके़ के हिस्ट्री
शीटर दस नंबरी अब ‘गुड्डू भइया की शह’ पर दूकानदारों से हफ़्ता वसूलने लगे। हफ़्ते
का आधा हिस्सा पुलिस प्रशासन में जाता। बाक़ी में से आधा गुड्डू भइया को मिलने लगा।
इलाके में छांट-छांट कर महाभ्रष्ट अफसरों की तैनाती होने लगी। इससे कमाई तो बढ़ी ही,
साथ ही जनता की परेशानियों की शिकायतें गुड्डू भइया तक आने लगीं।
गुड्डू भइया का एक ही जवाब होता- मैं क्या करूं ? ये अफ़सर
विधायक जी के आदमी हैं।
लिहाजा विधायक के खिलाफ जनता का
गुस्सा भड़कने लगा। हाइ कमान तक विधायक की ‘नालायकी’ पहुंच गयी। तय हुआ कि किसी तेज़
तर्रार युवा नेता को टिकट दिया जाय।
ऐसा योग्य युवा हृदय सम्राट गुड्डू
भइया के सिवा भला कौन हो सकता था। पूरे बीस लाख का चंटा पार्टी फंड में जमा कराने
के साथ ही गुड्डू भइया ने सीट पक्की कर ली।
चुनाव सर पर थे ही। क्षेत्र की जनता
को जैसे ही ख़बर मिली कि टिकट गुड्डू भइया को मिला है- लोग खुशी से नाचने लगे। सभी
के चेहरों पर संतोष था कि अब भ्रष्ट अफ़सरों की खैर नहीं। बिजली-पानी वक्त पर
मिलेगा। दुकानदार क़ीमते नहीं बढ़ाएंगे। पुलिस किसी बेकसूर को नहीं लूटेगी।
रिश्वतख़ोरी बंद होगी।
नारे लगने लगे-हमारा नेता कैसा हो-
गुड्डू भइया जैसा हो।
चुनाव परिणाम बेहद चैंकानेवाले थे।
गुड्डू भइया लाखों वोटों के भारी भरकम अंतर से जीते थे।
(समाप्त)
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