कहानी -- सीमा-रेखा

              कुछ ज्यादा दिन नहीं हुए जब तुम पहली बार यहाँ आये थे -
पहाड़ की चोटी पर बने इस बंगले को खरीदने के सिलसिले में। चीड़, बाँज और बुरांस के घने जंगल से होकर यहाँ तक आती है एक घुमावदार पक्की सड़क। बंगले के सामने पहाड़ी ढलानों पर घास के हरियाले चरागाह थे जिन्हें यहाँ बुग्याल कहते हैं। ढलते सूरज की रोशनी में बुग्यालों पर चरते मवेशी कितने अच्छे लगते थे !

      बंगले के लॉन पर टहलते हुए तुमने देखा - आकाश से उतरे उजले बादल समीप के पेड़ों  से गले मिल रहे हैं। सुर्ख लाल फूलों से लदे बुरांस छुप गये हैं धुंध में। और थोड़ी ही देर में तुम भी खो गये थे बादलों के शीतल सुखद आगोश में।

     उस वक्त कुछ भी नहीं देख पा रहे होगे तुम। उस अन्तहीन सीमा-रेखा को भी नहीं, जहाँ धरती और आकाश मिलते जान पड़ते हैं।


     इस बंगले तक पहुँचने के तुम्हारे सफर को करीब से देखा है मैंने। तब तुम बहुत छोटे से थे। खिलौने से थोड़ी देर खेल कर उसे छिपा देते और नया खिलौना मांगने लगते। दूसरा खिलौना मिलता तो उसे भी थोड़ी देर खेलकर छिपा देते और तीसरा खिलौना मांगने लगते। मुझे याद नहीं आता कोई ऐसा दिन जब तुमने कहा हो कि अब और खिलौने नहीं चाहिये।
       और सर्विस लगने के बाद जब तुमने पाँच बीघा जमीन का एक टुकड़ा खरीदा तो मुझे लगा जैसे तुमने पहला खिलौना खरीद लिया हो। काफी खुश थे उस रोज तुम। घर लौटते वक्त मिठाई लेकर आये। इतवार को सभी लोग नई जमीन पर घूमने गये। पास ही बहती नदी के किनारे बैठ कर खाना खाया। बच्चे खुश थे कि जब भी जमीन पर आयेंगे - नदी नहाने का मौका मिलेगा। पत्नी खुश थी कि इसी बहाने आउटिंग हो जायेगी। पिताजी का मानना था कि सड़क से लगता टुकड़ा है। तरक्की जल्दी होगी। लेकिन माँ नाराज थी कि क्या जल्दी पड़ी थी जमीन लेने की। जबकि दो बहनें अभी शादी के लिये हैं। फिर पिता ने भी खाने-कमाने लायक जमीन तो जोड़ ही रखी है।

      तुम्हें भी एक बार को लगा कि माँ ठीक कहती है। वाकई ये गलत हुआ है। यह वक्त बहनों की पढ़ाई-लिखाई तथा शादी में पिता का हाथ बटाने का था। अपराध की भावना उठी तुम्हारे भीतर लेकिन धीरे-धीरे शान्त हो गई।

       इसी बीच तुम्हारे हाव-भाव में कुछ बदलाव आने लगा। जिस विनम्रता के लिए तुम जाने जाते थे, वह अब कम हो रही थी। स्वाभिमान की हलकी सी झीनी चादर तुम्हारे चेहरे पर जैसे चिपक गई। आफिस से लौट कर कुछ देर माँ-पिता के पास बैठना अब कम हो गया। हफ्ते में एकाध बार खड़े-खड़े उनका हाल-चाल पूछ लेते। बच्चे होमवर्क में कुछ पूछते तो तुम टाल देते। पत्नी जरूरत का सामान मांगती तो तुम्हारा जवाब होता- अभी पैसे नहीं है। ऐसे ही काम चला लो।


    आफिस से लौटने पर प्रापर्टी डीलर तुम्हारा इंतजार कर रहे होते। वे बताते कि बहुत मामूली कीमत पर कुछ और टुकड़े भी बिकाऊ हैं। ऐसे सौदे बस किस्मत से ही नसीब होते हैं। खरीदते ही दुगने का ग्राहक ला देंगे। तुम्हें धीरे-धीरे यकीन हो रहा था कि ये डीलर लोग ही इस दुनिया में तुम्हारे सच्चे हमदर्द हैं। यही लोग हैं जो तुम्हें जमीन से उठा कर आसमान पर बिठा सकते हैं। अगर ऊपर उठना है तो डीलरों की सलाह माननी होगी। रही घर वालों की बात। वे भला क्या समझेंगे इन बारीकियों को।


लिहाजा तुम जमीन का एक और टुकड़ा खरीदने में जुट गये। बहनों के रिश्तों की तलाश अब बाद की बात हो गई। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई व माँ-पिताजी की सलाह अब तुम्हें बेमतलब सी लगती।

जल्दी ही घर में खबर आ गई कि तुमने पाँच बीघा जमीन और खरीद ली है। मगर इस बार घर में पहले जैसी खुशियां नदारद थीं। माँ की आँखों में चमक पहले से हलकी थी। पिता के माथे की लकीरें ज्यादा गहरी थीं।

जबकि घर से बाहर का माहौल ठीक उल्टा था। दोस्तों की निगाहों में तुम्हारा कद बढ़ गया था। तुम्हारे सुझाव को अब मजाक में नहीं लिया जाता था। तुम अब सोच-समझ कर मुँह खोलते। तुम्हें लगा कि छोटी ही सही पर समाज में अपनी अलग पहचान है।

इस पहचान को बढ़ाने के लिये जमीन का रकबा बढ़ाना जरूरी है - यह बात तुम्हारे दिमाग में अच्छी तरह बैठ गई। अब रात-दिन तुम इसी फिक्र में डूबे रहते कि दस बीघा रकबे को बीस बीघे में कैसे बदला जाय ? पैसे का बन्दोबस्त कहाँ से हो ?
     उस नाजुक मोड़ पर दोस्तों ने मुफ्त सलाहें दीं, कि जमीनों के लिये बैंक भी ऋण देते हैं। वह भी कम ब्याज और आसान किश्तों पर। आफिस से भी लौटाया न जाने वाला फंड जमीन के लिये मिल जाता है। दिक्कत की कोई बात नहीं। अच्छी व मुफ्त सलाह के लिये तुमने दोस्तों का शुक्रिया अदा किया और ऋण के लिये आवेदन कर दिया। उधर प्रापर्टी डीलर कई सस्ती जमीनें तुम्हें दिखा चुके थे, वह भी काफी कम कीमत पर। पैसा हाथ में आते ही सौदा हो गया और तुम बीस बीघा जमीन के मालिक बन गये।

     मुझे यकीन था कि अब तुम्हारी जमीन की भूख मिट गई होगी। लेकिन मेरा ऐसा सोचना गलत निकला। डीलरों से जब तुम चालीस बीघे की बात करने लगे तो मैं हैरान रह गया। तुम्हारे पास इनकम का एक ही जरिया है - नौकरी, जबकि तुम्हारी ख्व्वाहिशों को जैसे पंख लग गए  हैं। तुम इतनी जमीन कैसे खरीदोगे - यही यक्ष-प्रश्न मुझे बेचैन कर रहा था।

     इधर पिताजी काफी बीमार थे। मर्ज बढ़ता ही जा रहा था। डाक्टरों की फीस और दवाइयों का खर्च माँ दूध बेच कर उठा रही हैं - तुम्हें जैसे खबर ही न थी। कोई बताता भी कैसे ? तुम हमेशा गुस्से में भरे जो रहते। किश्तों की अदायगी से तनख्वाह घट गई थी जबकि खर्च बढ़ते ही जा रहे थे। आफिस से घर पहुँचते ही तुम्हारी मुस्कुराहट गायब हो जाती। बिना किसी बात के भौंहें तन जातीं जबकि घर से बाहर निकलते ही तुम्हारा चेहरा खिल उठता। तमाम परेशानियों के बावजूद चालीस बीघा जमीन खरीदने के इरादे से तुम हिले नहीं। दूसरे बैंको से भी ऋण लिया गया। बीमा पालिसियों को वक्त से पहले भुना लिया गया। बीस बीघा जमीन को भी कुछ अच्छे दाम पर बेच दिया और इस तरह आखिर चालीस बीघा जमीन का टुकड़ा खरीद ही लिया तुमने।


     लेकिन इसके बाद घर व दफ्तर से तुम्हारा संबंध नाम-मात्र का रह गया। सुबह खा पी कर तुम डीलरों के साथ निकल जाते। रात गये घर लौटते तो सब सो चुके होते, सिवाय बीमार पिताजी व माँ के। लगातार खांसने व कराहने की आवाज उनके कमरे से रात भर आती रहती। दबे पांव खिड़की से झांक कर देखते तुम। बूढ़ी-बीमार माँ रात भर जाग कर पिताजी के पांव दबा रही होती। तुम भीतर जा कर हाल-चाल पूछने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते और लौट जाते। रसोई मे ढका कर रखा खाना खाते और भविष्य का ताना-बाना बुनते-बुनते सो जाते। पत्नी व बच्चे अब तुमसे बात नहीं करते थे। तुम्हारे सामने सवेरे का नाश्ता लगा पत्नी दूसरे कामों में लग जातीं। बच्चे स्कूल चले जाते और तुम रह जाते अकेले। भरे-पूरे घर में भी एकदम अकेले। मगर तुम तब भी हमेशा की तरह दिन भर भटकते रहते और रात गये घर आते।

    गर्मियों  का ऐसा ही एक दिन था। तुम सौ बीघा जमीन का टुकड़ा देखने गये हुए थे। बूढ़ी माँ और भयंकर ज्वर से जूझते पिताजी के अलावा उस दिन घर में कोई न था। खांसी व बुखार एक साथ बढ़ते जा रहे थे। छटपटाते पिता को यथाशक्ति सहारा देती रही अकेली माँ। मगर दवा बेअसर हो गई और अचानक पिताजी ने शरीर छोड़ दिया।

     यह सचमुच एक जबरदस्त धक्का था जिसने तुम्हारे दिमाग पर सवार जमीन के भूखे शैतान को हिला कर रख दिया। पिता की निष्प्राण देह से लिपट कर देर तक रोते रहे तुम। मांगते रहे क्षमा अपनी करतूतों की। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

   पिता के पार्थिव शरीर को गंगा में स्नान करा कर जब तुमने अग्नि को समर्पित किया तो धैर्य कर बांध टूट गया। संवेदनाओं की पछाड़ खाती विकराल लहरें सारे बंधन तोड़ कर उमड़ पड़ी। स्वर्णिम लपटों मे जीवित पिता को ढूंढते रहे तुम, जब तक कि लपटें  शान्त नहीं हो गई।


    पिता का वियोग थोड़े समय तक रहने वाला शोक नहीं था, बल्कि ऐसा घाव था जो जीते जी नहीं भरता। ऐसा अभाव जो फिर कभी पूरा नहीं होता। एक बार के  लिये मुझे लगा - कि तुम्हें पूरा अहसास हो गया है अपनी गलतियों का। सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है - मगर यह क्या ? तुम्हारे दिमाग पर जमीन का भूखा जो ब्रह्मराक्षस सवार था - वह तब भी नहीं उतरा। उल्टे और बेखौफ व ताकतवर बन उठा। दिल कभी जमीनों का विरोध करता तो दिमाग पर सवार शैतान पागल हो उठता। दिल की सारी दलीलें फाड़ कर चिथड़े उड़ा देता।

    चालीस से सौ, सौ से दो सौ, दो सौ से तीन सौ .... इस अन्तराल में जाने कितनी सीढ़ियां पार कर गये तुम ? बच्चे, पत्नी माँ और बहनें-बहुत पीछे छूट गये हैं। बहुत और बहुत दूर निकल आये हो तुम।

   पहाड़ी ढलानों पर घास के वही हरियाले बुग्याल आज भी उसी तरह मौजूद हैं। ढलते सूरज की रोशनी में बुग्यालों पर चरते मवेशी कितने अच्छे लगते हैं  ! नीचे तक सारी घाटी मे फूले हुए हैं बांज, बुरांस, चूली और काफल के हजारों पेड़ । बंगले के सामने दूर, जहां धरती और आकाश मिलते हुए जान पड़ते हैं वहां तक की  सारी जमीन अब तुम्हारी है । बंगले के लॉन से आराम कुरसी पर बैठे निहार रहे हो तुम उस सैकड़ों बीघा जमीन को !

     अचानक चौंक कर तुम बाईं तरफ देखते हो । लेकिन वहां पत्नी नहीं है । फिर अपने दाईं तरफ देखते हो। लेकिन वहां पूज्य माता-पिता नहीं हैं । देखते हो सामने – लेकिन वहां न बेटा दिखाई पड़ता है, और न बिटिया । बगल मे हाथ बांधे खड़ा है तो एक चौकीदार ।

     सैकड़ों बीघा  जमीन का मालिक आज है एकदम अकेला ! शरीर बूढ़ा व शक्तिहीन हो गया है। अब एक कदम बढ़ाने की हिम्मत भी नहीं बची।
चौकीदार से नजरें बचा कर तुम जेब से रूमाल निकालते हो और जल्दी जल्दी पोंछने लगते हो आंसुओं की धाराओं को, जो काले चश्मे के भीतर से आकर सफेद दाढ़ी को भिगो  रही हैं।
लेकिन यह क्या ?

    तुम जल्दी ही अपने आपको संभाल लेते हो । तुम्हारे सिर पर बैठा जमीन का भूखा शैतान फिर से अट्टहास करने लगा है ! वह पहले से भी ज्यादा शक्तिशाली हो गया है। लगता है- तुम्हारे शरीर के निष्प्राण होने पर भी वह शैतान मरेगा नहीं ।  बिना शरीर के ही बदहवास भागता रहेगा उस मायावी सीमा-रेखा की ओर, जिसे आज तक कोई नहीं छू सका।

(समाप्त) 
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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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