डिलाइट कैफे शहर के ज्यादातर बुद्धिजीवियों की पहली पसंद था । चाहे वेे साहित्य से जुड़़े हों,
पेंटिंग से, संगीत या फिर थिएटर से - सब यहीं आना पसंद करते थे । डिलाइट आकर कॉफी पीना और बुद्धिजीवियों की
चर्चांएँ सुनना या उनका हिस्सा हो जाना अपने आप में सुखद अनुभव हुआ करता था। खास
तौर पर मेरे व धीर जैसे युवा रचनाकारों के लिये।
डिलाइट में
साहित्यिक गोष्ठियां होती रहती थीं । वैसे तो सभी अपने
आप में अनूठी होती थीं, लेकिन कुछ
गोष्ठियाँ बेहद दिलचस्प होती थीं । आज मुद्दतों बाद भी वे यादों मे
तरोताज़ा बनी हुई हैं। ऐसी ही एक गोष्ठी
मे धीर और मैं आमंत्रित थे। एक युवा
कथाकार की कहानी पर चर्चा होनी थी। हमारे सामने दो-तीन सीट आगे एक खूबसूरत व
सभ्रान्त मालूम पड़ती लड़की बैठी थी। उसके हाथ में कोई किताब थी। कॉफी का ऑर्डर देने
के बाद वह किताब खोल कर पढ़ने लगी। उसका चेहरा किताब से ढका हुआ था । कैफे मे बढ़ती
जा रही गहमा-गहमी से उसे जैसे कोई मतलब नहीं था । शोरगुल में भी वह किताब आराम से पढ़ रही थी ।
युवा कहानीकार ने कॉफी का ऑर्डर दिया। कॉफी सर्व
होने के बाद कहानी का पाठ शुरू हुआ। उस दौरान एक दम खामोशी छा गई । सभी ध्यान से सुनने लगे । टाइटल था - ‘कहानी रोटी मांग रही है’। कहानी खत्म हुई तो सभी
रचनाकारों ने बारी-बारी से कहानी की समीक्षा की। ज्यादातर की राय थी कि कहानी का थीम
कमजोर है। भले ही बात कहने का ढंग तकनीकी तौर पर मजबूत है।
लेकिन धीर को कहानी
बहुत पसंद आई। कभी किसी की तारीफ न करने वाले धीर ने उस कहानी की तारीफों के पुल
बांध दिये।
लंबा,
इकहरा बदन, सपाट, भाव-शून्य,
सांवला चेहरा, खादी का लंबा कुरता-पायजामा व हवाई चप्पलें, आँखों
पर मोटे कांच वाला नजर का चश्मा, जिसके पीछे से झांकती ‘चीर डालने वाली’ पैनी
नजरें, गालों पर बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी और कँधे से लटका लम्बी
पट्टी वाला थैला - जिसमें समाजवादी रचनाकारों की किताबें या फिर अपनी छपी-अनपछी
रचनाएँ - बस यही पहचान थी धीर की। लेकिन गजब का आकर्षण था उसके व्यक्तित्व में।
बहुत असर था उसकी आवाज में। उसे सुनकर असहमत होना बहुत मुश्किल था।
अब बोलने की बारी धीर की थी - ‘आज दुनिया को ऐसे ही कलम के सिपाहियों की जरूरत है जो बेबस और गूंगे बनाये
जा चुके लोगों की जुबान बन सकें। वरना उनकी कहने सुनने वाला कौन बचा है ? इसी कहानी के करेक्टर को ले लो । अच्छे नंबरों पर भी उसे नौकरी नहीं मिलती
! बैंक का दरवाजा खटखटाता है तो लोन नहीं
मिलता। आखिर वह कहाँ गलत है ? क्यों है उसके सामने गहरा
अँधेरा ? अपने ही मुल्क के लकड़ी, पानी,
तेल, लोहे, कोयले से जब
उसकी भागीदारी धीरे-धीरे हाशिये पर लाई जा रही हो और किसी अमीर आदमी को तश्तरी में
रख कर पेश की जा रही हो तो उसे क्या करना चाहिए - जवाब दीजिये ? अपनी पुश्तैनी जमीन से उसी को क्यों बेदखल किया जाता है विकास के नाम पर !
आखिर हजारों परिवारों का विनाश करके किस का विकास चाहते हैं आप ?
धीर की आवाज में
गहरा आत्म-विश्वास था। जी चाहता था कि सिर्फ विरोध के लिये उसकी बात का विरोध करूं
- लेकिन तब भी ऐसा नहीं कर सका मैं। और मैं ही क्यों,
कोई भी रचनाकार चाहकर भी उसके खिलाफ न बोल सका।
बैरा लड़की के सामने
कॉफी रख कर चला गया । कॉफी पीते हुए लड़़की
फिर उसी तरह किताब पढ़ने लगी। पर साफ साफ लगता था कि वह किताब पढ़ नहीं रही है
बल्कि पढ़ने का अभिनय कर रही है और हमारी
बातों को ध्यान से सुन रही है।
मैंने नोट किया -
धीर के साथ भी ऐसा ही कुछ होने लगा था। युवा कहानीकार की रचना पर बोलते बोलते लड़की
की तरफ मुहँ उठाकर, ऊँची आवाज में बोला था वह -
- ‘मौका निकाल के आम आदमी के
साथ बैठना कभी, तब पता चलेगा बेबसी क्या होती है? अपाहिज कहते किसे हैं? अरे कैसी दुविधा है कि आपकी
जुबान है पर आप बोल नहीं सकते। आपके पास दिमाग है पर आप सोच नहीं सकते ! लकवा मार
गया है सोसायटी को !’
दो घूंट कॉफी पीकर
धीर फिर शुरू हो गया - ‘पूस की रातें होती होंगी चन्द दौलतबाजों के लिये -
शराब-कबाब-शबाब में डूबने के लिये - मगर इस कहानी के करेक्टर के लिये पूस का मतलब
पसलियां खड़खड़ा देने वाली अँधेरी बर्फीली रातें होती हैं। बर्फ की सिल्लियों जैसे
सर्द फुटपाथ पर अखबार बिछा कर गड्ड-मड्ड पड़ा बीमार,
बूढ़ा जिस्म ‘लावारिस लाश’ बन जाने के खिलाफ जब हारी हुई जंग लड़ रहा
हो ? जरा सोचो दोस्त -रोंगटे खड़े हो जायेंगे ?
.......... और इन किताबों में ?......... बची-खुची
कॉफी का आखिरी घूंट पीकर धीर बोला -
‘कुछ नहीं
रखा है इन किताबों में, मानसिक अय्याशी के सिवा। रीयल लाइफ
में आके देखो। छू कर देखो जिन्दा करेक्टर्स को। बात करके देखो उनसे ! उनकी आँखों
में तुम्हें वो सब मिलेगा जो किताबों में नहीं मिल सकता ।’
फिर कुछ रूक कर,
कॉफी हाउस के बाहर घूमकर देखा धीर ने और उंगली से इशारा किया एक
बहुमंजिले शॉपिंग काम्प्लेक्स की तरफ - ‘कितने गुमनाम
मजदूरों का खून चूस कर उठी है वह इमारत - है कोई हिसाब ? और जब
इमारत तैयार हो गई -तो उसका मालिक बन गया अकेला
आदमी ! सिर्फ एक ! कहाँ गये वे दर्जनों परिवार, जो पीढ़ियों
से रहते थे जमीन के उसी टुकड़े पर ? किसे फुर्सत है चींटियां
गिनने की ?’....
आवेश में हाँफने
लगा था धीर। उसकी आवाज लगभग चीख में बदल गई थी। बु़द्धिजीवियों के माथे की लकीरें
गहरा गई थीं। मगर धीर का भाषण जारी था ..........
‘आखिर ये
डेमोक्रेसी उजड़े हुए लोगों के लिये क्यों नहीं है ? क्या उनकी
जमीन की कीमत सिर्फ पैसा है ? नहीं । जमीन के साथ
उजड़ने वाले की यादें, उसकी भावनाएं, उसका जीवन -ये सब जुड़े होते हैं । इन्हें पैसे से नहीं खरीदा जा सकता ! यह घाव आखिरी सांस तक भी नहीं भरता !
मैंने धीर को इशारा
किया कि अभी औरों को भी बोलना है,
लेकिन वह नासमझ बना रहा और फिर शुरू हो गया -
‘किसान संसद के सामने अपना गन्ना,
आलू जलाता है तो यह ‘सुरक्षा-व्यवस्था’ का प्रश्न क्यों बन जाता है?
क्या उसे शौक है नुकसान उठाने का ? क्यों नही
मिलती उसे वाजिब कीमत ? अब तक बेरोजगार नौजवान ही देश-द्रोही
थे, अब किसान भी हो गए ?
इसी के साथ ठहाका लगा कर जोर से हँस पड़ा था धीर।
फिर अचानक गंभीर व उदास हो कर बोला था -
आपके इसी
सिविलाइज्ड शहर में एक औरत सड़कों पर बिना कपड़ो के सरे आम घूमती है । किसी के पास उसकी लज्जा ढकने को पुरानी धोती भी
नहीं है ? उसे ‘पागल’ कह कर हम जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं ! दुर्गा की निर्जीव मूर्तियों की तो खूब पूजा होती है ! रात-रात भर जगराते होते हैं ? और जिंदा माता’ भूखी प्यासी, नंग-धड़ंग सड़कों पर घूमती
है। भूख से बिलखते बच्चे को सूखे थनों से चिपकाए आपके आगे हाथ पसारती है। जवाब में चमचमाती गाड़ी से मुंह बाहर निकाल कर
आप बड़बड़ाते हैं - जाने कहाँ से पैदा हो जाते हैं ये साले भिखमंगे। हाँ ! ठीक ही तो
कहा आपने। कहाँ चूक गई आपकी योजनाएं, आपकी व्यवस्था ?
आपकी रणनीति ? इन्हे पैदा होते ही मार डालने
में कहां लापरवाही हो गई ? ये मनहूस अब तक जिंदा कैसे हैं ?
फिर ठंडी आह भर कर
बोला धीर- काश ! आप त्रिशूल,
तलवार और लाठियों की जगह दो
गज कपड़ा बाँटते, दो मुठ्ठी अनाज बाँटते ! उन्हें कुछ काम देते !
डिलाइट का मालिक थापा धीर के आगे कॉफी का एक और
प्याला रख गया। तीन-चार घूंट लगातार पी कर
धीर लड़की की तरफ मुंह करके बोला -
‘तो भई ऐसी
सिच्वेशन में मैं फिल्म फैस्टिवल, क्रिकेट, मिसयूनीवर्स, कैटवाक या नेताओं की रैली के बारे मे नहीं
पढ़ सकता। यह मानसिक अय्याशी अपने बस की नहीं।’
लड़की जो अब तक
किताब में आँख गड़ाए थी, उठ
कर हमारे सामने वाली सीट पर आ बैठी।
‘एक्सक्यूज मी,
मेरे यहाँ बैठने से आप लोगों को कोई प्रॉब्लम ?’ वह मुस्कुराते हुए बोली थी-
- ‘जी
बिल्कुल नहीं, हमें तो बल्कि खुशी है। इट्स अवर प्लेजर।
बैठिये न प्लीज’ - मैंने धीर और अपनी तरफ
से उत्तर दिया। लेकिन धीर चुप न रह सका। अपनी चिरपरिचित कठोर शैली में बोला - ‘मगर
मुझे प्रॉब्लम है’
- आवाज के
साथ उसके चेहरे पर भी सख्ती छा गई ।
- मगर
प्रॉब्लम क्यों है - जान सकती हूँ ?
- ‘वो
इसलिये कि लिटरेरी कहानियों में ऐसा नहीं होता। यही चीज अगर मैं अपनी कहानी में
डाल दूँ तो लोग मुझे भी सड़क छाप लेखक समझने लगेंगे।
लड़की धीर की आँखो
में आँखे डाल कर बोली -
‘श्रीमान जी
! कहानी को जितना ही आप जिन्दगी के करीब
खींचना चाहते हैं, उतनी ही वह जिन्दगी से दूर छिटक जाती है।
क्या पढ़ने वाले को सिर्फ शब्द चित्र चाहिएं ? जरा बताइए उन लेखकों को ज्यादा
क्यों पढ़ा जाता है, जिन्हें आप सड़क छाप कहते हैं ?
- क्योंकि ज्यादातर पढ़ने वालों की मेंटलिटी
अभी परीलोक वाली है। यहाँ का इंटहलेक्चुअल कन्फ्यूज्ड है। वह विश्वास तो धर्म पर करता
है और मुखौटा लगाता है कर्मयोगी का। वह
स्पिरीचुअल भी दिखना चाहता है और ‘संभोग से समाधि’ भी पढ़ता है । करोड़ों किलोमीटर
दूर स्थित तारे भाग्य कैसे बनाते हैं ? या फिर हमारे पुरखों
ने अतीत मे क्या तीर मारे थे - यह शेखी
बघारने से भी वह नहीं चूकता। उसके शेल्फ
में रिलीजन, फिलॉसफी और साइंस की मोटी-मोटी किताबें होंगी तो
भीतर कहीं मस्तराम का सचित्र साहित्य। ऐसा
डबल स्टैंडर्ड जब पाठक में हो तो लेखक और क्या लिखेगा ? वही
लिखेगा न जो बिकेगा ?
- नहीं ! आपका सोचना गलत है
.......... लड़की तिलमिला उठी थी
- ‘प्रॉब्लम आपके लेखन में है मिस्टर,
तभी लोग आपको नहीं पढ़ते ।
- ‘जैसे’? चौंकने
का अभिनय करते हुए मुस्करा दिया था धीर !
- पहली बात,
आप सो कॉल्ड घटिया लेखकों
से अलग दिखने की कोशिश करते हैं- अपने को बड़ा और बुद्धिजीवी साबित करने के लिए ! आप
लोग हिप्पोक्रेट हैं। आप हमेशा ट्रेजेडिक ही लिखते हैं। ट्रेजेडी जीवन में वैसे ही
कम है क्या ? आप प्रॉब्लम तक लाते हैं बट सॉल्यूशन नहीं देते । थका
हारा आदमी फुर्सत मे आपकी कहानी खोलता है तो जल्दी ही किताब एक तरफ रख देता है।
वहाँ भी वही रोटी, कपड़ा, मकान, भूख, बेरोजगारी ! क्या यही प्रोफेशनल ऑनेस्टी है ?
‘आप कहना
क्या चाहती हैं ? धीर की आवाज में अब पहले जैसी मजबूती नहीं
थी जबकि लड़की का आत्मविश्वास बढ़ता ही जा रहा था।
‘मुझे यही कहना
है कि दुनिया ठीक वैसे ही नहीं चलती जैसे कि आप सोचते हैं। इसी शहर के मिस्टर सिंह सड़को के बल्बों की रोशनी में पढ़ कर आई.ए.एस. बने ? कइयों के इसी शहर में निजी बैंक
थे पर आज उनकी औलादें नौकरी करती हैं। कई लोग ऐसे हैं जिनके लिये पैसा ही भगवान
है। जो पैसे के लिए अपना धर्म, ईमान, दोस्ती,
वैल्यूज़, एथिक्स- सब कुछ बेच सकते हैं। मगर
ऐसे लोग भी हैं जिनके लिये उनके संस्कार,
उनका चरित्र, उनके ट्रेडीशंस ही सब कुछ हैं।
क्या इन टॉपिक्स पर नहीं लिखा जा सकता ?
लड़की भावावेश में बोलती जा रही थी।
धीर ने गहरी सांस ली
। कुछ रुका, और फिर बोला - समझ गया मैडम
! आप बुर्जुआ हैं। मगर कान खोल कर सुनिये
- अकेले मिस्टर सिंह की छलाँग से पूरा समाज नहीं उछल जाता । इंडिवीजुअलिज्म एक खतरनाक
आइडियोलाॉजी है, जिसे आप फिलहाल समझ नहीं पा रही हैं।
कॉफी हाउस का माहौल
बाहर जितना ठंडा था भीतर उतना ही गर्म । युवा रचनाकार की कहानी की समीक्षा करने
आये ज्यादातर बुद्धिजीवी या तो जा चुके थे या फिर छोटी-छोटी टोलियों में बंट कर
माचिस खेल रहे थे ।
तभी थैला कँधे पर
लटकाते हुए धीर उठा और मेरी तरफ घूम कर बोला’ चल यार चलें। अभी प्रेस भी जाना है।
जाने से पहले धीर
लड़की की तरफ मुड़ा और बोला - तुम्हें पढ़ना चाहिये ! तुममें टेलेंट है।
लड़की के उत्तर की
प्रतीक्षा किये बगैर लंबे-लंबे डग भरते हुए हम दोनों कॉफी हाउस से बाहर निकल गये।
(समाप्त)
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