कहानी बारिश खत्म होने तक


          रेस्तरां में आये मुझे ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। अखबार के पन्ने पलटते हुए एक हैडलाइन पर मेरी आंखें ठहर गईं। लिखा था - ‘सामाजिक वानिकी के लिये भारत के डॉ. स्वामी को अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार’।
            डॉ स्वामी के साथ मेरी पहली मुलाकत करीब बीस वर्ष पहले हुई थी। पहाड़ के औषधीय पौधों पर शोध करने आये थे वह। स्कूल से छुट्टी के बाद मैं उनके शोध कार्य में सहायक का काम करता। जंगलों में जा कर उन्हें स्थानीय भाषा में पेड़-पौधों के नाम बताता। वे किस बीमारी में काम आते हैं - दादा जी से पूछ कर उन्हें बताता। इकट्ठा किये गये फूल, पत्तियों व जड़ों को अलग-अलग पैकेटों में रखवाता। बदले में डॉक्टर स्वामी मुझे कुछ पैसा भी देते थे और पढ़ाते भी थे.......................

            कॉफी लीजिये सर’ बेयरा कॉफी रख कर चला गया।

       खुली खिड़कियों से बाहर देखता हूं. थोड़ी देर पहले तक बिखरी धूप अब नहीं है। नीले आकाश में चारों तरफ से भूरे बादल घिर आये हैं। ठंडी हवा घाटियों से बहती हुर्ह रेस्तरां तक आ पहुंची है। बिजली चमकने के साथ ही गरजते बादल अब बरसने भी लगे हैं।

            कॉफी पीते हुए पुरानी यादें फिर ताजा हो जाती है.......

............ औषधीय पौधों के साथ साथ गांव के लोगों  से भी जुड़ने लगे  थे डॉ स्वामी। रात-दिन खेतों में ही लगे शिबूदा का कुटुंब कंडाली का साग खाकर ही क्यों सो गया - उन्हें मालूम था। घनश्याम  चाचा के बच्चे पढ़ाई में होशियार होते हुए भी आगे क्यों नहीं पढ़ सके - वह जानने लगे थे। दीपा भाभी को अपनी फूल-सी लड़कियों का विवाह दुगनी  उमर वालों से क्यों करना पड़ा ?  ससुराल में  लड़कियों ने क्या क्या विपदा नही झेली- – डॉ  स्वामी की आंखों से छुप नहीं सका।  पीड़ा से छलछलाती उनकी आंखों ने सभी  कुछ तो देखा था ! शोध ग्रन्थ लिखते हुए उनकी उंगलियां कई बार रूक जातीं और नजरें उठ जातीं कभी उन बहुओं, बेटियों की ओर, जो जेठ के घाम मे कंडे  भर कर खाद ले जा रही होतीं। या फिर लकड़ी व घास के भारे पीठ पर लादे जंगलों से हांफती हुई घर आ रही होतीं। घर-  जहाँ भूख से रोते बच्चे थे,  बूढ़े, अपाहिज  सास-ससुर होते, या फिर खूंटे पर बंधे भूखे -प्यासे जानवर।

            मुझे याद है आठवीं कक्षा के बाद मेरे  दोस्त बीरू की पढ़ाई छूट गई थी । पराए  खेतों में हल जोतकर भी उसके बाबा परिवार का पेट नहीं भर पाते थे । पढ़ाई तो फिर दूर की बात थी ।  डॉ स्वामी ने ही  बीरू का एडमिशन नवीं कक्षा में कराया और  कहा कि तुम अपनी फीस घर से नहीं जंगल से इकटठी करोगे ।  हर महीने एक टोकरी भर चीड़ के सूखे फल मुझे ला कर दोगे।

            स्कूल जाने से बीरू बहुत खुश था । चीड़ के सूखे फल एक की जगह दो टोकरी इकट्ठी करके हर महीने वह डॉ  स्वामी को देता, जिन्हें वह शहर जाकर बेच आते और बीरू की फीस जुटाते।

           डॉक्टर स्वामी ने  यह प्रयोग बीरू जैसे कुछ और बच्चों पर भी आजमाया । कैलाश को एक कांटेदार बेल की जड़ें लाने का काम मिला।   कैलाश के बाबा उस बेल को झिरणा कहते थे। संस्कृत में उसे शतावरी कहा जाता था जो बहुत महंगी बिकती थी और पौष्टिक दवाइयां  बनाने में काम आती थी। उन जड़ों को भी डॉक्टर स्वामी खुद बेचने बाजार जाते और कैलाश की फीस भरते।

           कई बच्चे आमेष (घिंगारू) के फल लाते तो कई बच्चे दालचीनी की छाल इकट्ठी करते । कइयों को असीन (अर्जुन वृक्ष) की छाल लाने तथा किसी को किनगोड़ (दारूहल्दी) तो किसी को रीठे लाने का काम सौंप कर डॉ स्वामी ने उनकी पढ़ाई नहीं छूटने दी ।

            अपने आस-पास ऐसी कीमती जड़ी बूटियां बिखरी पड़ी हैं, फिर भी हम एक - एक रूपये के लिये तरसते हैं !  मेरे गांव के लोग यह देख कर हैरान थे। अपनी छोटी-मोटी परेशानियों का  समाधान जंगलों व खेतों से होता देख कर लोग  बहुत खुश थे। उन्हें यकीन  हो गया  था कि पैसा कमाने के लिये शहरों में जा कर बरतन मांजना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है। उतना पैसा तो जड़ी बूटियों को  उगा कर भी कमाया जा सकता है। न किसी की गुलामी और न अपना प्यारा पहाड़ छोड़ कर परदेस जाने  का दुःख।
            डॉक्टर स्वामी के लिए लोगों के दिलों मे  एक खास जगह बनने लगी। अब कोई भी बच्चा पढ़ाई अधूरी नहीं छोड़ता था। गाँव के बेरोजगार लोगों को भी साथ बिठा कर डॉक्टर स्वामी समझाते। जड़ी-बूटियों की खेती के लिये उत्साहित करते। कौन पौधा जड़ से लगेगा, कौन-सी बेल बिना जड़ के रोपने से भी हरी हो जायेगी , किस पौधे को कहां बेचना है? उसका भाव क्या है- वह विस्तार से समझाते तथा रोप कर भी दिखाते। कई लोगों ने उनकी बात मानी। वत्सनाभ (अतीस), कुटकी (कड़ोई), अश्वगंधा (असगंध), पाषाण भेद(सिलफाड़ी), पिप्पली, सर्पगंधा, बांसा   आदि औषधियां उगा कर डॉक्टर स्वामी के माध्यम से बेचीं। शुरू में  दिक्कतें भी आई। जैसे पैदावार कम रही या दाम ठीक नहीं मिले। किन्तु डॉक्टर स्वामी की दौड़ धूप से भाव ठीक मिलने लगा। जो लोग पहले  कोदा, झंगोरा, भट्ट गहत या गेहूं - धान बोया करते थे, अब जड़ी-बूटियां भी उगाने लगे। खेतों की मेड़ों पर माल्टे, खुबानी, अखरोट, बादाम व जैतून  के पेड़ उगाए जाने लगे। बंजर पड़ी जमीनों पर लेमन ग्रास, दालचीनी या तुलसी की खेती की जाने लगी । डॉक्टर स्वामी बताते थे कि यहां का क्लाइमेट किन-किन फलों या जड़ी-बूटियों के लिये अच्छा है तथा उन्हें कब बोना या रोपना चाहिये।

            डॉक्टर स्वामी पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया था। एक तरफ  उनका शोध कार्य था जिसमें काफी मेहनत  लगती थी और दूसरी तरफ गांव के लोगों  के साथ मिल कर पौधे लगवाना,  देखभाल करना,  पैदावार बिकवाना, पैसे का समय पर भुगतान कराना वगैरह कई काम उनके कंधों  पर आ गए थे । दिन कब बीत जाता डॉ स्वामी को पता ही न चलता ।

            लेकिन परेशानी या थकान से डॉक्टर स्वामी के उत्साह में कोई कमी नहीं आईं। लोगों के चेहरों पर लौटती खुशियां, उनकी आंखों में जन्म लेते सपने ही तो असली धन थे डॉक्टर स्वामी का। पहले की तरह चौपालों और तिबारियों पर बैठ कर वक्त बरबाद करते लोग अब खेतों में काम करते मिलते। जगह-जगह क्रिकेट खेलते बच्चे अब अपनी-अपनी क्यारियों में उगती जड़ी बूटियों की देखभाल करते मिलते।

              डॉक्टर स्वामी लोगों के साथ किसी के भी घर पर बैठ जाते और बताते कि जेब का पैसा बचाने से भी माली हालत सुधरेगी। मैदान से गोभी, फ्रांसबीन, टमाटर खीरे यहां आ कर बिक रहे हैं, क्या आप अपनी सब्जी अपने सगोड़ों में नहीं उगा सकते ? क्या जानकारी चाहिए ? इतने बड़े कृषि विश्वविद्यालय हैं यहां ? अपनी सब्जियां खुद उगाओ. बाहर की महंगी सब्जी खरीद कर पैसा बरबाद क्यों करते हो ?  

        डॉ स्वामी लोगों को यह भी बताते कि इतने खून पसीने की कमाई को दारू मे बरबाद करना ठीक नहीं है. बच्चों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाओ. दूध घी खाओ. शराब पीने से घर बरबाद हो जाएगा । लोग उनकी बातों की गहराई समझने भी लगे थे ।

            लेकिन कुछ  लोग डॉक्टर स्वामी  को शक की नजरों से भी देखने लगे। उन्हें लगा कि डॉक्टर स्वामी जासूस हैं तथा किसी बाहरी मुल्क को यहाँ की खबरें भेजते हैं। बात यहाँ तक बढ़ गई कि पहाड़ के छोटे छोटे बाजारों मे भी  डॉक्टर स्वामी के विरोध में जुलूस निकलने लगे, सभाएं होने लगीं । रणनीतियां बनाई जाने लगीं कि इस बाहरी आदमी को पहाड़ से  कैसे भगाया  जाये।

            और उस दिन तो हद हो गई । बच्चों की लाई  जड़ी-बूटियां बेच कर जब डॉक्टर स्वामी घर आ रहे थे तो  ठेके के पास किसी ने उन पर हमला कर दिया।  रूपये पैसे छीन कर फरार हो गए । बाजार में उस वक्त काफी भीड़ थी पर कोई  मदद के लिये नहीं आया। वह खुद ही गिरते पड़ते अस्पताल पहुंचे और पट्टियाँ बंधवाईं ।

            .......अंकल पेपर देंगे प्लीज। हमारी मम्मी पढ़ेंगीं।

            चौंक  कर देखता हूं। करीब पांच वर्ष का एक बालक मुस्करा कर मुझे देख रहा है। बाहर अब भी धाराषार वर्षा हो रही है। ठंडी फुहारें खुली खिड़कियों को आकर चूम जाती हैं।  ग्रिल पर  बैठी गौरैया, टुकुर-टुकुर बारिश को देखती है । भूरे बादल पहाड़ों की चोटियों से उतर कर हरी भरी घाटियों में बरस रहे हैं। दूर तक दिखाई पड़ते खेत-खलिहान बादलों की धुंध मे खो गये हैं।

            बच्चा अखबार ले जा कर महिला के सामने रख देता है । महिला  कॉफी पीते हुए खिड़की से बाहर देख रही है, धुंध में खोते जा रहे पर्वतों, जंगलों और खेतों को।

            पुरानी यादों का सिलसिला एक बार फिर जुड़ने लगता है..........

            डॉक्टर स्वामी पर  ठेके के सामने हमला हुआ - यह खबर सुनते ही लोग बेकाबू हो गये। महिलाओं, विद्यार्थियों  व दूसरे लोगों की भीड़ लाठी-डंडे लेकर ठेके पर पहुंच गई। लोगों ने एक मिनट का भी इंतजार नहीं किया। दुकान पर हमला बोल दिया गया। बोतलें फोड़ डाली गई। शराब की नदी बहने लगी । दुकान में काम कर रहे नौकर जान बचा कर भागे ।  बहती शराब को आग के हवाले करके  भी भीड़ शांत न हुई ।  नारे लगने लगे- पहाड़ के दुश्मन शराब के ठेकेदारो, वापस जाओ    पहाड़ का  खून पसीना -  मत लूटो, मत लूटो. ........ पहाड़ के मित्र डॉ स्वामी जिंदाबाद..... जिंदाबाद. !

             खबर पा कर डॉक्टर स्वामी मौके  पर पहुँचे जहाँ भारी भीड़ जमा थी। उन्होंने भीड़ को समझाया कि यह हमला डॉक्टर स्वामी पर नहीं हुआ। यह हमला एक विचारधारा पर हुआ। वह विचारधारा जिसका उल्लेख हमारे वेदों में भी है। जिसका संदेश है कि इस प्रकृति के साधनों का हम सब मिल कर उपभोग करें। सब सुखी हों, सब नीरोग हों,  सब समृद्ध हों । किसी को भी दुःख न हो।

            कुछ ठहर कर फिर कहने लगे थे  डॉक्टर स्वामी - लेकिन साथियों, नफरत का इलाज नफरत नहीं, प्रेम है। जिन लोगों ने यह हमला किया उन्हें मारने की नहीं गले लगाने की जरूरत है। वह बेचारे मजबूर होंगे। हमारा फर्ज यह बनता है कि उन्हें भी हम तरक्की का रास्ता दिखायें। स्वाभिमान, ईमानदारी और मेहनत से जीना सिखाएं ।  उनका भरोसा, जो टूट चुका है, उसे फिर से पैदा करें ।

            भीड़ धीरे-धीरे छंट गई। डॉक्टर स्वामी व प्रशासन की समझदारी से स्थिति सामान्य हो गई। ऐसा लगा कि  हमले और तोड़- फोड़  जैसी कोई बात हुई  ही नहीं।

            वह दिन इतवार  का था जब पंचायत भवन पर  प्रधान की तरफ से सारे गांव को न्यौता भेजा गया था । दवा बनाने वाली कंपनियों के लोग वहाँ पहले  ही पहुँच गए थे ।  रसोइये  खाना बनाने में जुटे थे । दीवार पर सफेद परदा लगा था । परदे  के सामने मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर व लेपटाप कम्प्यूटर रखे थे ।
            डॉक्टर स्वामी ने बताया कि बाहर से आए हमारे साथी औषधीय पौधों की खेती के बारे में  जानकारी देना चाहते हैं। अतः हम ध्यान से देखें व फायदा उठायें। किसी के मन में कोई सवाल हो तो वह भी पूछ सकता है।

            फिल्म शुरू हुई ।  देश-विदेश के कई फार्म दिखाये गए, जहाँ बड़े पैमाने पर जड़ी-बूटियां उगाई जाती है। फिर कारखाने में उनसे दवाइयां कैसे बनती हैं, उनका परीक्षण कैसे होता है-  वह भी बड़े रोचक ढंग से दिखाया गया। आने वाले दिनों मे किन  पौधों की मांग बढ़ेगी  तथा उन्हें उगाने से  कितना फायदा होगा - यह जानकारी भी लोगों को बहुत अच्छी लगी ।

            फिल्म खत्म होने के बाद  डॉक्टर स्वामी बोले – साथियो ! जड़ी बूटी विक्रय केंद्र यहीं खुल रहा है । आपकी पैदावार अब यहीं बिक जायेगी तथा पैसा भी हाथ के हाथ मिल जाया करेगा। शहर जा कर बेचने की मेरी ड्यूटी अब खत्म ! अब ठेके के सामने मेरी पिटाई भी नहीं होगी। कहते हुए हँस पड़े थे डॉक्टर स्वामी।

तालियों की गड़गड़ाहट से आकाश गूंज उठा। फिर सामूहिक भोजन हुआ। कंपनियो के प्रतिनिधि,  डॉक्टर स्वामी और गाँव के लोग - सबने एक ही पंगत  में बैठ कर खाना खाया था .........

            यादों का सिलसिला एक बार फिर टूट जाता है। बाहर देखता हूँ – बारिश खत्म हो गई है । आसमान साफ हो गया है। हरे-भरे पहाड़ों पर ढलते सूरज की रोशनी बिखर गई है। दूर तक फैले हुए सीढ़ीदार खेत, खेतों की मेड़ों पर फलों से लदे पेड़, चीड़, देवदार के त्रिकोणधारी वनों से ढकी चोटियां और नीचे घाटी में बहती बलखाती  नदी - जैसे एक दम करीब आ गए हैं मेरे।

            तभी सामने की टेबल पर बैठी वह  महिला  उठती है। अखबार से एक खबर को काटकर रेस्तरां की दीवार पर चिपका कर बाहर निकल जाती है। महिला को गौर से देखता हूं। हाँ ! बड़ी मुश्किल से आंसू रोके हुए वह दीपा भाभी की बड़ी लड़की है ।  जिसने शादी के बाद तमाम मुश्किलों के बावजूद हिम्मत नहीं हारी । प्राइवेट पढ़ाई करके बी.ए.और फिर बी.एड. किया । और फिर एक स्कूल में अध्यापिका बन गई थीं ।

            रेस्तरां की दीवार पर चिपकी उस कटिंग को पास जा कर पढ़ने की जरूरत मैं नही समझता। मुझे यकीन है, वहाँ लिखा होगा - सामाजिक वानिकी के लिये भारत के डॉक्टर स्वामी को अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार।

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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