आज फिर वही दिन है
मेरी आँखों के सामने, जब तुम गाँव में
नये-नये आए थे। तुम्हारे हाथ तब छोटे-छोटे थे। तुम्हारा पेट भी तब उतना ही बड़ा था
जितना कि आम आदमी का हुआ करता है। तब तुम्हें सैकड़ों मील आगे तक नहीं दिखाई पड़ता
था । तुम्हारी मासूम आँखों से निकलते डरावने, विशालकाय गिद्ध समूची बस्ती के आसमान पर मंडराने लगे हैं - यह सोचना भी तब कितना गलत लगता था ?
उस वक्त गाँव की हवा में तनी हुई मुट्ठियों
की कसमसाहट नहीं थी। चिड़ियों को तब किसी पागल बंदर का खौफ न था। वे तब सोच भी नहीं
सकती होंगी कि लौटने पर उन्हें अपने घोंसले छिन्न-भिन्न मिलेंगे और उनके छोटे-छोटे
पखेरू जिन्होंने अभी आँखें भी नहीं खोली हैं, तपती हुई जमीन
पर, पड़े तड़प रहे होंगे। अजगर की तरह लेटी नदी के उस किनारे
पर तब कांस के झुंड नहीं रोपे गए थे। दूर तक फैले चरागाह में ढोर चराते बच्चे तब
सावन के गीत गाया करते थे और पहली पुरवा चलते ही अमराइयों पर झूले भी तो हमेशा की
तरह पड़ा करते।
सावन का एक ऐसा ही दिन था, जब एक आम आदमी की शक्ल में पहली बार तुमने गांव में कदम रखा। कपड़े के नाम
पर तुम्हारे बदन पर सिर्फ अंगोछा था। बारिश की तेज बौछारों में भीगते हुए मेरे
दरवाजे पर आए थे तुम, बारिश ठहर जाने तक के लिए। मैंने बड़ी इज़्ज़त
से तुम्हें बिठाया, फिर इधर-उधर की बातें होने लगी। मालूम
हुआ कि तुम शहर से काम की तलाश में आए हो।
अगले रोज पंचायत बैठी। तय हुआ कि तुम फटेहाल
ही सही, लेकिन पढे़-लिखे, सुलझे दिमाग
के नौजवान हो। ऐसे कुछ लोग गाँव में रहें तो सभी के हक में अच्छा है। लिहाजा ग्राम
समाज की पांच बीघा जमीन तुम्हें दे दी गई। तुम्हें बसाने में भला किसने नहीं की थी
मदद। कहीं से छप्पर के लिए फूस मिला तो कहीं से मकान की चिनाई के लिए आदमी आ गए।
जवान लड़कों ने तुम्हारी जमीन में उगे बेर के झाड़ काट डाले। नदी की तरफ दूर तक कांस
के झुंड रोप दिए, ताकि बरसात में नदी की बाढ़ तुम्हें नुकसान
न पहुँचा सके। दर्जी जमील मियां ने अपने ही खरीदे कपड़े से कुर्तें-पायजामे का जोड़ा
सिल कर तुम्हें पहनाया और खुशी से झूमते हुए बोले थे-खुदा कसम, दूल्हा लगते हैं। जी करता है कि नवाब साहब को घोड़ी पर बिठा दें।
पंडित राम भरोसे
मिश्र ने बगैर दक्षिणा लिए अपने ही खर्चे पर धूमधाम से तुम्हारा गृह प्रवेश किया।
मैंने तुम्हारे खेत में हल चला कर धान रोप दिए। सारे गाँव ने आटा-चावल इकट्ठा करके
तुम्हारी तरफ से सामूहिक भोज दिया। गाँव का अपार प्रेम पाकर तुम्हारी आँखे छलछला
उठींं। कुछ कहना चाहते थे तुम,
पर आवाज गले से बाहर न निकल सकी।
गाँव में कहीं भी
कोई कारज होता, तुम सबसे आगे रहते। गाँव भर
के बच्चों के तुम प्यारे चाचा बन गए। रात को पंचायत घर में लालटेन की रोशनी में
तुम उन लोगों को पढाने भी लगे, जो किसी वजह से पढ़ लिख न सके
थे, लेकिन जिन्हें पढ़ने का बहुत शौक था।
तुम्हारे इस बरताव
से चक्की वाली ताई बहुत खुश थी। गाँव के बड़े़-बूढ़ों की सलाह लेकर ताई ने अपनी
इकलौती बिटिया का हाथ तुम्हें थमा दिया। इस विवाह से साथ ही तुम ताई की दस बीघा
जमीन और चक्की के मालिक भी बन गए। तुम्हारा घर बस गया है। इस पर सारे गाँव में
खुशी की लहर थी। मैं भी इस मौके पर मुबारकबाद देने पहुंचा। तुमने भींचकर मुझे छाती से लगा लिया।
तुम्हारी आँखे नम
थीं, पर यह क्या। आँखों का नीला आकाश इस बार
पहले की तरह साफ न था। वहाँ थे दो नन्हे गिद्ध, । छोटे-छोटे
डैने फैलाए, फौलादी चोंच
पर धातुई पंजे रगड़ कर चिंगारियां पैदा करते हुए। सारे आसमान पर छा जाने की
महत्वाकांक्षा अपनी मक्कार आँखों में छिपाए, बेफिक्र हो कर उड़ते वे दोनों गिद्ध, जिन्हें बहुत करीब से ही देखा और पहचाना जा सकता था।
मै इसके बाद और देर
तक तुमसे आँखें न मिला सका और विदा लेकर वापस घर लौट पड़ा। भले ही तुमने दावत खाकर
जाने के लिए बहुत जोर दिया था, पर जाने
क्यों मुझे एकाएक डर लगने लगा था तुमसे। मेरे भीतर यह अहसास जाने कहां से आ गया था कि तुमसे बच कर रहना चाहिए।
हो सकता है कि मेरा
यह अहसास कुछ वक्त बाद खुद ही खत्म हो जाता, पर इसी बीच एक ऐसी बात हो गई कि मेरे भीतर उगा
संदेह का पौधा अचानक बड़ा होकर बरगद के वृक्ष में बदल गया। बात सिर्फ इतनी थी
कि जमील मियाँ कुछ रूपया उधार लेने तुम्हारे पास आए थे। बेटी के निकाह पर ससुराल
वालों ने नकद पैसे की घिनौनी पेशकश की थी। मुझे और जमील मियाँ को भी उम्मीद थी कि
तुम लड़के वालों को जाकर समझाओगे कि रिश्तेदारी के बाद इस तरह फिरौती वसूल करना
अच्छा नहीं होता, पर ऐसा नहीं हुआ। उल्टे
मुस्कराते हुए कहा तुमने-कोई बात नहीं जमील मियां, रूपया
आखिर घर में ही तो रहेगा, कहो कितना दे दूं ?
तीन हजार रूपया
लेकर अहसान के बोझ तले दबे जमील मियाँ उठ कर जाने लगे तो चेहरे पर कठोर मुस्कराहट
बिखेरते हुए तुमने कहा-तुम्हारा अपना घर है जमील मियाँ,
आधी रात को भी पैसे की
जरूरत हो तो बेखटके चले आया करो..........ज़मील मियाँ सजदे में झुक गए। तभी आवाज
में शहद घोलते हुए तुमने -वो क्या है जमील मियाँ, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता कि आप जैसे बुजुर्ग
मेरे अहसान मंद हों। इसका एक तरीका आया है मेरे दिमाग में। आपका हुक्म हो तो कहूं।
गुलाम से कहीं
हुक्म मांगा जाता है मालिक ? आवाज भर
उठी थी जमील मियाँ की।
तुमने कहा- वो,
जमीन के कागज, आपके यहाँ भी पड़े हैं जमील
मियाँ, उन्हें अमानत के तौर पर मेरे यहाँ रख दें तो ?
बस आपको एक स्टाम्प पेपर पर अंगूठा ही तो लगाना है। जब जी में आए
रूपया लौटा देना और अपने कागज ले जाना, सूद न दे सको तो कोई
जरूरी भी नहीं। ठीक है ?
जमील मियाँ सकते
में आ गए। तुम अचानक ऐसा प्रस्ताव रख दोगे-- हो सकता है कि जमील मियाँ ने सोचा भी न हो,
पर कानों ने जो कुछ सुना था, उसे झुठलाया भी
कैसे जा सकता था। गहरी थकी हुई सांस छोड़ते हुए कहा था जमील मियाँ ने- आबरू का सवाल
है भइया, रूपया तो चाहिए ही । मुझे मंजूर है।
उसी रोज कागजों और
अंगूठे के निशान के साथ अपने हाथ काट कर तुम्हें सौप दिए थे जमील मियाँ ने। फिर तो
ऐड़ी -चोटी का जोर लगा लिया जमिल मियाँ ने। रात गए तक सिलाई करते,
फसल का सारा अनाज बेच देते। पर मूल रकम तो दूर ब्याज भी चुकता न कर
सके। और जब रकम हद से ज्यादा बढ़ गई तो शहर जाकर जमील मियाँ की सारी जमीन तुमने
अपने नाम करा ली।
यह एक शालीन और
खामोश डकैती थी, जिसे सारे गाँव ने पूरे
होशो-हवास के साथ देखा। जमील मियाँ के किसान बेटे अब खेतिहर मजदूर हो गए। खुद
उन्हें ऐसा सदमा लगा कि एक बार खाट पर पड़े तो फिर उठ न सके। सिलाई की मशीन
दवा-दारू में बिक गई। हर दूसरे-तीसरे रोज पड़ोस से आटा उधार आने लगा। हफ्ते में
दो-तीन फाके मामूली बात हो गई। उधार इतना बढ़ गया कि घरवालों का उजाले में बाहर
निकलना मुश्किल हो गया।
जमील मियाँ की जमीन-जायदाद हड़प जाने के बाद कुछ रोज तक कितने
खुश दिखाई पड़े थे तुम ! मानों कई रोज के भूखे
शेर ने पेट भर किसी परिवार के मुखिया
सांभर का समूचा गोश्त खा लिया हो। ठीक वैसी ही तृप्ति,
वैसा ही संतोष तुम्हारे चेहरे की भीतरी खाल से रह-रह कर ऊपर उठ आता।
लेकिन कुछ ही अरसे
के बाद गाँव में एक बार फिर तूफान उठा। ऐसा डरावना तूफान कि उस रोज सुबह का सूरज भी
शर्म से लाल हो उठा।
गाँव में बात तब
फैली, जब पंडित राम भरोसे मिश्र रोते-पीटते
खेतों की तरफ भागे। मैं भी भागा। बड़ा ही हैरतअंगेज नजारा था। उजला धोती-कुरता व
खादी टोपी पहने तुम मिश्र जी के खेत पर खड़े थे और बाहर से आए आठ-दस लठैत उनकी गन्ने की खड़ी फसल काट रहे थे। मिश्र जी ने रोते हुए तुमसें इस अन्याय कीं वजह पूछी
तों उसी तरह शांति से मुस्करा कर कहा तुमने, ‘क्यूंं दिल्लगी
करते हो पंडित जी, अभी कुछ ही रोज पहले तो हजार रूपये में
आपने खड़ी फसल हमें बेची है, भूल गए ?
‘‘लेकिन कब? तुम्हारा दिमाग ठीक तो है भइया ?
मारे गुस्से
के तुम्हारा चेहरा तमतमा उठा। हंसिए जैसी भौहें और आग उगलती मोटी-मोटी तुम्हारी
आँखें देख कर सारा गाँव सहम गया। करीब-करीब दहाड़ते हुए बोले थे तुम-भगवान से डरो
पांडे, एक पैर चिता पर है, अब तो झूठ से बाज आओ । तुम्हारे बाकायदा दस्तखत किये कागज मेरे पास पड़े हुए हैं।
इस पर मिश्र जी
फूट-फूट कर रो पड़े थे। तुम्हारे पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाए थे वह। ऐसा न करो भइया,
मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। जिंदगी भर भूखे-नंगे रह कर जोड़ी है मैंने
यह जमीन। मैं कोट-कचहरी में नहीं पड़ सकता। मुझ पर तरस खाओ भइया।
पर तुमने जैसे कुछ
सुना ही न था। एक के बाद एक फसल तुम पंड़ित रामभरोसे मिश्र के खेत से काटते रहे।
मिश्र जी छाती पर पत्थर रख कर जुल्म सहते रहे। और फिर वह दिन भी आ गया जब उनकी
जमीन पर भी तुम्हारा कानूनी कब्जा हो गया।
इतनी सारी जमीन
होने के साथ ही तुमने जोतने-बोने के लिए ट्रैक्टर खरीद लिया। जुताई’
गहाई की मशीनें ले लीं। लम्बरदार जी को एक चौथाई कीमत पेशगी देकर तुमने उनकी आलीशान हवेली पर कब्जा कर लिया। और
जब शराबी लम्बरदार ने बाकी रकम मांगी तो तुमने गंदी-गंदी गालियाँ देकर बाहर निकाल
दिया।
धीरे-धीरे तुम्हारा
खौफ खुले तौर पर गाँव में छा गया। शहर से बड़े नेता और अफसर कारों में तुम्हारे
यहाँ आते। रात-रात भर जश्न चलते। सड़क, पुलिया, स्कूल और ट्यूब वैलों के ठेके तुम्हें मिलने लगे। पड़ोस के कई गाँवों
तक जुताई-बुवाई तुम्हारे ट्रैक्टरों से ही होती। ग्राम समाज की कई बीघा जमीन तुमने
लाठी और कलम की ताकत पर जोत ली । वही ग्राम समाज, जहां कई
गाँवों के डंगर आकर चरा करते थे। किसकी हिम्मत थी कि जुबान खोलता। खूंखार लठैतों
की पूरी फौज हर वक्त तुम्हारी हवेली में तुम्हारे हुक्म का इंतजार करती रहती।
सबसे ज्यादा तकलीफ की बात ये थी कि गांव का अकेला प्राइमरी स्कूल अब बंद हो गया. उस इमारत मे अब शराब का ठेका खुल गया. गांव मे बात फैल गई थी कि ये ठेका तुम्हारा है.
दिन भर वहां शराबियों का जमघट लगा रहता. ठेके के आस पास मारपीट, गाली गलौज अब आम बात हो गई. ठेका खुलने के बाद इलाके मे ताबड़तोड़ चोरियां होने लगीं.
उधर समाज सेवा के
कामों में दिनों-दिन तुम्हारी दिलचस्पी की खबरें अखबारों में छपने लगी। कभी खबर
छपती कि छोटे किसानों की समस्याओं लेकर तुम बड़े-बड़े अफसरों से मिले हो,
तो कभी दहेज की समस्या के खिलाफ तुम्हारे जन-आंदोलन छेड़ने की धमकी
होती। अखबारों और इश्तिहारों में हाथ जोड़े और मंद-मंद मुस्कराती तुम्हारी तस्वीरे
मानों वरदान सी देतीं । अब तुम शहरों-कस्बो में अक्सर भाषण देते हुए दिखाई पड़ने
लगे। तुम्हारे भाषणों में भी इसी बात पर जोर होता कि गाँवों में रहने वाले छोटे
किसानों की कई समस्याएं हैं। उनका बिजली का बिल और पानी का लगान माफ होना चाहिए।
उनकी फसलों का भी कारखानों की तरह बीमा होना चाहिए और जुताई-गहाई की किराया दरें
कम से कम होनी चाहिए। अनाज की उन्हें वाजिब कीमत मिलनी चाहिए।
तुम्हारी इन तमाम
कोशिशों का नतीजा यह निकला कि गाँव पंचायत के चुनाव में तुम्हें निर्विरोध ग्राम
प्रधान चुन लिया गया।
खुशी के उस मौके पर
आस-पड़ोस के कई गाँवों के लोग तुम्हें
मुबारकबाद देने पहुँचे। बिजली की रोशनी में हवेली दुल्हन की तरह जगमगा रही थी।
लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बज रहे थे। शामियाने के नीचे मंच था और सामने कुर्सियों
की कतारें।
फूलों की माला लेकर
मै भी तुम तक पहुँचना चाहता था। लेकिन तुम तक पहुंचना अब इतना आसान कहाँ रह गया
था। शहर से कारों में आए बड़े-बड़े आदमियों से घिरे थे तुम। तुम्हारे हाथ उस वक्त भी
जुड़े थे। मांसल गर्दन फूल-मालाओं से ढकी हुई थीं। तुम्हारा जिस्म भी तो कितना भारी
हो गया था।
भीड़ से बाहर मैले-कुचैले कपड़े पहने हाथ में कटोरा लिए
जमील मियाँ की विधवा खड़ी थी। वहीं पास ही कंधे पर लाल साफा लटकाए,
लाठी टेककर खडे थे बीमार और बूढ़े पंडित रामभरोसे मिश्र।
माला हाथ में लिए
भीड़ को चीरता हुआ मैं आखिर तुम्हारे पास पहुँच ही गया। माला तुमहारी गर्दन की तरफ
बढ़ाते हुए एकाएक मेरे हाथ रूक गए। मेरे सामने एक नहीं सैंकड़ों गर्दनें थी। तुम्हारे
विराट शरीर पर दो नहीं सैकड़ों हाथ जुड़े
थे। और तुम्हारी आँखों के आकाश पर अनगिनित दैत्याकार गिद्ध अपने विशाल डैंनें
फैलाए निश्चिंत भाव से मंडरा रहे थे।
................
मेरी आँखों के सामने एक बार फिर वही दिन
घूम गए जब सिर्फ अंगोछा पहने, गाँव में पहली बार आया था एक
नौजवान ! पढ़ा-लिखा ! लेकिन बेरोजगार ! जिसे
जमील मियाँ ने अपने हाथ से सिला कुरते-पायजामे का जोड़ा पहनाया था, और......। और पंडित राम भरोसे मिश्र ने बगैर दक्षिणा लिए अपने ही खर्चे पर
जिसका गृह प्रवेश किया था।
(समाप्त)
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