व्यंग्य- मेरा भारत महान


            विकास की दुहाई दी। ऊर्जा प्रदेश बनाने के सब्ज-बाग दिखाए ।  पन-बिजली बनाने के नाम पर सारी नदियां बेच डालीं बाहरी पूजींपतियों को ! वह भी चालीस-पचास सालों के लिए !

            ठगे रह गए  भोले गांव वाले । नदी से पानी लेने गए  तो रोका गया उन्हें। गालियां दी गईं ।  पुलिस की मदद से डराया-धमकाया गया। जेल की चक्की पीसने का खौफ दिखाया गया।

            किन्होंने किया ये सब ? जवाब है- उन्होंने किया, जिन्हें बड़ी उम्मीद से जिताया था लोगों ने। पचास साल की लंबी जहालत उठाकर, सैकड़ों होनहार नौजवानों की कुर्बानी देकर-आखिर क्या मिला उस प्रदेश के लोगों को ?

            परत दर परत खुलकर सच्चाई सामने आई । पता चला कि नदियां ही नहीं, पहाड़ों की चोटियां, बड़ी बड़ी सभी नदियों के किनारे की जमीनें, सारे जंगल, सारे खनिज, यानी वह सब कुछ बेच डाला गया जिसके सहारे वहां का आदमी अपना खुद का रोजगार शूरू कर सकता था।

            वह  अभागा प्रदेश अपने पैदा होने से पहले ही बलिदान देने लगा था । और अब ? फिर बलिदान ! अब की बार प्रदेश की खाल उधेड़ते गिद्धों को भगाने के लिए ! नहीं ! कभी नहीं थमेगा कुर्बानियों का सिलसिला। न कभी गिद्ध खत्म होंगे, और न बंद होंगी कुर्बानियां ।

            छोटा किसान था करतार सिंह। कणक (गेहंू) बोई। महंगा बीज छिड़का। डाइ, फास्फेट, डीएपी खूब बिखेरा। पच्चीस रूपये घंटे का पानी भी सींचा। फिर बीस रूपये बीघा कटाई दी, तीन सौ रूपया घंटा गहाई दी। पूरे परिवार ने सरदी गरमी मे जो बदन तोड़ा सो अलग !

            मगर सूखे ने गेहूं की हवा निकाल दी। मंडी ले  गया तो छः सौ रूपये कुंतल भी नहीं उठा। हिसाब लगाकर देखा। छः महीने की कड़ी मशक्कत के बाद कट कटाकर तीस हजार बचे। यानी पांच हजार रूपये माहवार।


सामने चार जवान बेटियां। दो बेटे। पढ़ाई का खंर्च। कपडे-लत्ते, गुड़, तेल-मेहमानदारी, शादी-ब्याह। बिजली-पानी, जमीन का लगान, मकान का टैक्स। और ऊपर से बैंक के कर्जे की किश्तें ! कहां से पूरा करूंगा तीस हजार रुपल्ली मे ? इसी गम में नींद की ढेर सारी गोलियां खाकर हमेशा के लिये सो गया करतार। मुक्त हो गया सारे झंझटों से !

मगर टीवी का पंजाब ? गुरदास मान की ढपली। सूखे-मुरझाए  भंगड़ा पाते जट। सरसों के पीले खेत.... विकास दर चार फीसदी के ऊपर। संवेदी सूचकांक चार हजार के पार। यानी, तरक्की की आंधियों मे उड़ता पंजाब ।

हैदराबाद के नजदीक धान रोपा था अप्पा राव ने। सोचा था- धान बेचकर उधार चुकाऊंगा, कच्चे घरौंदे को पक्का कराऊंगा। बेटे के लिए बहू लाने से पहले रत्नम्मा (बिटिया) के हाथ पीले करूंगा......
मगर ? नहीं बरसा आसमान। सूखकर तिड़क गये धान के खेत। पीली पड़ गई मुरझाई पौध।

चूर-चूर हो गए सपने। छा गया काला अंधेरा। किसे पुकारूं ? कहां रक्खूं अगला कदम ? कुछ भी तो नहीं सूझता।
डूब गया हताश दिल, टूट गई हिम्मत। सूख गई पौध भी-उम्मीद भी।
सुबह घर में रूदन था। मातम था। अप्पा राव की लाश झूल रही थी पेड़ पर।

और, टीवी का आंध्र प्रदेश-साइबराबाद। हाइटेक सिटी। इंडिया की सिलिकान वैली। ग्रोथ रेट पांच फीसदी। संवेदी सूचकांक का बैल पांच हजार के पार थूथन उठा कर , पूंछ खड़ी कर बेतहाशा भागता हुआ ....।

सिंगूर-कोलकाता के पास गांव। कारों के काफिले। मोटी तोंद वाले पूंजीपति, गांव और गांव की हजारों एकड़ जमीन को यों परखते, जैसे बकरा खरीदते वक्त कसाई परखता है, उसकी रानों में छुपे गोश्त को।

ये क्या ? बेच दिया वामपंथियों ने सारा गांव ? राइटर्स बिल्डिंग में बैठकर ले आये अनूठा समाजवाद ? वाह दोस्त। खूब निभाई दुश्मनी, दोस्ती की आड़ में। मगर। एक हैं गांव के सब लोग। नहीं बेचने देंगे अपनी जमीन। नहीं बनेंगे शरणार्थी अपने ही मुल्क में।

और टीवी का कोलकाता ? वी फार विक्टरी दिखाते बेशर्म हँसते नेता। नेताओं की धोतियों में मुंह छुपाते धोती पत्रकार। मीडिया व्यस्त - दुर्गा पूजा की कवरेज पर। इंटेलेक्चुअल व्यस्त- आर्ट मूवी में नये प्रतीकों और बिंबों की खोज में । और ग्रोथ रेट-छह फीसदी। संवेदी सूचकांक छह हजार के पार।
नागपुर हवाई अड्डे के आसपास सवा लाख कर्ज लेकर कपास बोई थी गावडे़ ने। फसल ठीक थी। मगर ऐन वक्त पर कीमत बुरी तरह गिर गई। लागत भी नहीं मिली।


सोचा था-इस बार बेटी ब्याह दूंगा। कर्ज चुकाने के बाद कुछ बचा तो बैंक में रखूंगा-बुरे वक्त के लिए, अगले साल बीज के लिए।
पर हुआ क्या ? सूद बेतहाशा बढ़ गया। कहां से चुकाऊं ? आजाद मुल्क में कैद हो गया गावड़े। आधा लीटर कीटनाशक पिया और हो गया आजाद साहूकार के कर्ज से, अपमान से, बेटी की शादी की फिक्र से...लुट गई  जमीन। कौड़ियों के भाव। साहूकारों से होती हुई पहुंच गई नेताओं के पास, बन गई बेनामी । और फिर बिक कर पहुंच गई कारपोरेटों के पास ! वाह ! क्या रूटिंग है ?

कारपोरेट वहां हवाई अड्डे बनाते ! मॉल बनाते, हाउसिंग प्रोजेक्ट बनाते ! नेता उन्हें मंजूरी देते !
वाह, क्या खूब खेल ? दुनियां का सबसे बड़ा....‘तंत्र’। ठगा हुआ किसान। छके हुए नेता, माफिया और दौलतबाज। और टीवी पर ? महाराष्ट्र के हवाई अड्डों का आधुनिकीकरण। विकास, इंफ्रास्ट्रक्चर। बेसिक एमेनिटीज़।

मगर विकास किसका ? विनाश किसका ? कहीं कोई हलचल नहीं। मरने वाले मर रहे हैं। जीने वाले जी रहे हैं। और इस जीने मरने के बीच लोकतंत्र का चौथा खंभा कहां है ? डांस बार में, बालीवुड में। भोले नेताओं के स्टिंग आपरेशनों में। घुटे नेताओं की रथ यात्राओं में ! गणपति विसर्जन में ! गोविंदा हांडी की लाइव कवरेज मे ! मंत्रियों की बाहों में, क्रिकेट की चिंताओं में।

ग्रोथ रेट-सात फीसदी। सूचकांक का पागल सांड़-सात हजार के पार।

कलिंग नगर। पुश्तैनी जमीन से उजाडे़ गये आदिवासी। दौलतबाजों  की फौलादी हवस के शिकार। मुआवजे के बदले मुख्यमंत्री से गोलियां-गालियां खाते। सड़कों पर पानी सा बहता बेगुनाह खून। कटे हाथ, फूटी चूड़ियां, सिंदूर मिटी मांगें। बाप की लाश पर रोते मासूम। मुल्क के भावी कर्णधार।


और टीवी का उड़ीसा ? इस्पात में आत्मनिर्भर होते हम। विकास दर-सात दशमलव पांच फीसदी। सूचकांक का बैल आठ हजार के पास।

बहराइच की बाईस लाशें। भूख से तड़प-तड़प कर, खामोश। संसद में पक्ष-विपक्ष की नूरा कुश्ती। सरयू तट पर जलती चिंताएं। लखनऊ में नाचती संसद सदस्या। नौटंकी देखते-रहनुमा। टेलीफोन पर गंदगी उड़ेलते सिंह। मऊ में, अलीगढ़ में मौत के घाट उतरता भाईचारा। बाजार में बिकता बहराइच के सरकारी सस्ते गल्लों का राशन।

और पत्रकार ? रैंप शो के कवरेज पर, बार बालाओं की कानूनी जीत के जश्न पर, रहनुमा की छींक पर, अमेरिका के प्रेज़ीडेंट के कुत्तों की कवरेज पर, क्रिकेट पर, नौटंकी के अगले कार्यक्रम पर।

टीवी पर- विकास दर आठ, संवेदी सूचकांक नौ हजार के पार। देश महाशक्ति बनता हुआ।


एक लाख कर्ज लेकर कांदा (प्याज) बोया नासिक के गणपत इंगले नें। भाड़ा करके मंडी लाया। कीमत मिली पचास पैसा प्रति किलो। कुल फसल का सात सौ अस्सी। तीन सौ भाड़े का दिया। बाकी चार सौ अस्सी राष्ट्रपति जी को मनीआर्डर कर दिया। लिखा-इतने से मेरा साल भर का खर्च नहीं चलेगा। राष्ट्रपति कोष में देता हूं। शायद देश के काम आये।

पर कहीं कोई हलचल नहीं। नर्मदा तट पर जलती इंगले की लाश। ग्रोथ रेट आठ दशमलव पांच। संवेदी सूचकांक दस हजार के पार। विराट आर्थिक प्रगति। न कभी देखी, न सुनी।


नर्मदा का बांध। मेधा की भूख हड़ताल। आमिर खान का समर्थन। अपने लिये नहीं-डूब, क्षेत्र वालों के पुर्नवास के लिये। पद्मश्री के, टिकट के या मैगसेस के लिये नहीं। उस पीढ़ी के लिये-  जिसे जीते जी जलसमाधि दी जा रही है ।

और मीडिया ? राजभवन में, फार्म हाउसों, फाइव स्टार होटलों में होती कांफ्रेंस में। चाटुकारिता में। अमानवीय विकास के समर्थन में, मेधा से दग्ध प्रतिशोध की मुद्रा में। चारण-भाटों के साथ। गरीब के हकों के खिलाफ। ताकत के साथ। मरते हुओं से सवाल करता हुआ- कैसा लग रहा है आपको ?
चीरहरण की जाती द्रौपदी जनता के लिए अकेली लड़ती मेधा। खमोश भीष्म, विदुर। पत्रकारिता के कृष्ण-व्यवस्था से गायब।

मगर आगे बढ़ता देश। विकसित होता देश। दुनियां का सबसे बड़ा ‘.....तंत्र’। सबसे मानवीय ! सबसे सत्य, शिव, सुंदर।

आरक्षण के चूल्हे पर वोटों की रोटियां सेंकते, लाशों की दाल गलाते मेरे देश के सौ में निन्यानबे रहनुमा।
इन्ही निन्यानबे ईमानदारों के अथक प्रयत्नों से बनता-मेरा भारत महान !

 (समाप्त) 




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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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