व्यंग्य- जुगाड़



       हमारी रोजमर्रा की बोल-चाल में कुछ शब्द ऐसे भी आते हैं-जिनका कोई एक अर्थ नहीं होता, जिन्हे कई अर्थो में इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे शब्दों को आप चाहें तो अनेकार्थी शब्दों के बट्टे खाते मे भी डाल सकते हैं।

            ऐसे शब्द दो क़िस्म के होते हैं- मांसहारी तथा शाकाहारी। मांसाहारी शब्दों का हिंदी साहित्य में वही स्थान है, जो कभी अपने यहां चांडालों का हुआ करता था। वे गांव-बस्ती से बाहर, जंगल के करीब रहते थे ।  ठीक उसी तरह मांसाहारी शब्द भी हिंदी साहित्य से जरा बाहर ही रखे गये हैं।

            रही बात शाकाहारी वर्ग में आनेवाले ऐसे शब्दों की, तो इनका साहित्य में वही स्थान है, तो अपने यहां कभी अतिथियों का हुआ करता था। जैसे कुछ अतिथि बगैर बुलाए आ जाते हैं, और धकियाने पर भी जाने का नाम नहीं लेते- ठीक उसी तरह से शाकाहारी शब्द हैं जिन्होंने हिंदी शब्दकोष में से जाने का विचार फिलहाल टाल  दिया है।

       

     ऐसे ढीठ शब्दों मे से एक है ‘जुगाड़’। “जुगाड़”  का हिंदी साहित्य में पर्दापण कब हुआ, कहां से हुआ, कैसे हुआ-कोई नही जानता। हिंदी का कोई महारथी अब तक यही नहीं बता सका कि ‘जुगाड़’ तत्सम है, तद्भव है, प्राकृत है या फिर देशज। सुना है कि एक महाशय ने ‘जुगाड’ पर पीएचडी का ‘जुगाड’ भी कर लिया है।
            जुगाड़ के वैसे तो कई मायने हैं-जिन पर हम आगे प्रकाश डालेंगे, लेकिन आटोमोबाइल के क्षेत्र में इस शब्द ने जो अर्थ कमाया है-उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा होनी चाहिए ।

            उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुज़फ़्फ़रनगर और मेरठ जि़लों में एक अत्यंत मौलिक प्रजाति का तिपहिया वाहन सडकों पर दौड़ता दिखाई पड़ता है। इसकी उपस्थिति आंखो की मोहताज़ नहीं है। नेत्रहीनता की अवस्था में भी इस वाहन की मौज़दूगी का पता इसकी  आवाज़ से ही  चल जाता है । क्या गंभीर नाद है ? कितने अप्रत्याशित स्वर फूटते हैं इसमें से -इन्हें सिर्फ वही जानता है, जो उन्हें सुन चुका  हो।
            इसकी बनावट एकदम आसान है। यह समझिये कि झोटा-बुग्गी में झोटे के स्थान पर ट्यूब वैल वाला डीज़ल इंजन बिठा दिया गया है। वाहन के दिशा- परिवर्तन के लिए इसमें स्वदेशी हैंडल तथा रोकने के लिए देश में ही निर्मित ब्रेक प्रणाली है। इस वाहन का प्लस प्वाइंट यह है कि विशुद्ध व्यावसायिक होते हुए  भी आरटीओ वाले इसका रजिस्ट्रेशन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। यह वाहन देहातों से शहर आनेवाली सवारियों की जरूरतों के मुताबिक बनाया गया है। इसमें सीटें नही होती। लोग घर से बोरी, टाट या दरी लेकर चलते हैं, और टिकट कटाने के बाद जहां जगह मिली, वहीं अपनी दरी-बोरी बिछा कर बैठ जाते हैं। जब जुगाड़ मे सीट होती ही नहीं तो कोई यह नही कह पाता कि तेरी सीट मेरी सीट से अच्छी कैसे ? जिन्हे आराम की जरूरत होती है वे बोरी फैला कर लेट भी जाते हैं।

         

   इस अद्भुत अर्पूव वाहन के लिए भला ‘जुगाड’ से अच्छा क्या नाम हो सकता है ? बारिश के मौसम में सवारियां अपनी-अपनी छतरियां खोल ही लेती हैं। अतः जुगाड़ में छत डालने की ज़रूरत नहीं समझी गई । बारिश  की रिमझिम, शीतल फुहारों का सुख भला ‘जुगाड़’ के अलावा और किस वाहन में मिल सकता है।
           
माना कि ‘जुगाड’ से यात्रा करने के कुछ अति विशिष्ट ख़तरे भी हैं। जैसे कि गांव के लोहार की बनाई ब्रेक-प्रणाली इनसैट 4 ई की तरह कब बैठ जाए , या डीजल इंजन हवा लेने लग जाए, और  कब बंद हो जाए -इसका अनुमान लगाना टेढ़ी खीर है। मगर जुगाड़ के यात्रीगण ज्यादातर ऐसे विकट जीव होते हैं जो जि़न्दगी में बड़ी-बड़ी मुसीबतें हंस कर झेल चुके होते  हैं, या फिर जो जिन्दगी से परेशान हो चुके होते  हैं । जिन्हें जिन्दगी और मौत में कोई फ़र्क़ नज़र नहीं आता। अतः किसी होने वाले  खतरे  के प्रति वे उदासीन नज़र आते हैं।

            ‘जुगाड’ का कोई स्टाप नहीं होता। सवारियां उसे जहां चाहें रोक सकती हैं। ज़्यादातर लोग ‘जुगाड़’ को अपने घरों के आगे रूकवाते हैं। ‘जुगाड़’ में मनुष्य योनि के अलावा कुत्ते, बिल्ली, बकरी, बछड़ी, सुअर, मुर्गी, तोते, तीतर, बत्तख, बटेर आदि अनेक जीवधारी भी बेरोकटोक यात्रा कर सकते हैं-बशर्ते उनका कोई टिकट कटवा दे। जुगाड़ में नाना योनियों में समुत्पन्न  जीवों के साथ यात्रा करते हुए  शास्त्रों का यह संदेश बरबस याद आ जाता है कि प्राणियों के शरीर तो जस्ट कपड़े हैं, अलग-अलग यूनीफ़ार्म हैं। असली चीज, यानी आत्मा तो सबकी सेम है।

 इस जीवन-दर्शन को न सिर्फ़ ‘जुगाड़’ परिवहन के मालिक ही बखूबी समझते हैं बल्कि जुगाड़ के नियमित यात्री भी इस शाश्वत सत्य से भलीभांति परिचित हैं। हां ! जब कोई कुत्ता टांग उठाकर भरे ‘जुगाड़’ के बीचों-बीच लघु शंकाओं का निवारण करने लगे, बस तभी सहयात्री ज़रा-सा विचलित होते हैं किन्तु फिर जल्दी संभल जाते हैं कि चलो मूत्र भी जल का ही एक रूप है, जैसे नदी का जल, वर्षा का जल, झरने का जल। यह भी तो हाइड्रोज़न और आक्सीजन जैसी पवित्र गैसों के संयोग से बनता है- फिर मूत्र से घृणा कैसी ?

लेकिन वही कुत्ता जब दिन दहाड़े खचाखच  भरे  जुगाड़ मे दीर्घ शंकाओं का निवारण करने लगे तो सवारियों का धैर्य जरूर जवाब दे जाता है. उस आपात्कालीन परिस्थिति मे जुगाड़ के ड्राइवर से गाड़ी  रोकने की  रिक्वेस्ट की जाती है और कुत्ते को  तत्काल प्रभाव से लात मार कर जुगाड़ से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । 


            यातायात के साधन के रूप में तो ‘जुगाड़’ राष्ट्र की असीम सेवा कर ही रहा है। लेकिन ‘जुगाड’ का असली स्वरूप तो परोपकार में छिपा हुआ है। ‘जुगाड़’ से आप अपना और पड़ोसियों का भला-बुरा दोनों आराम से कर पाते हैं। यदि आपको लाखों-करोड़ों का लोन लेना है तो उसका ‘जुगाड़’ भी है, और वही लोन डकार जाना है तो उसका ‘जुगाड़’ भी बैंकवाले ही कर देते हैं। बोर्ड मे टॉप करना हो, कंपीटीशन टेस्ट क्लीयर करना हो, प्रमोशन लेना हो, ट्रांसफर कराना या रूकवाना हो या फिर बिटिया की शादी करनी हो- तो घबराने का नहीं, सिर्फ  जुगाड’ तलाशने का। गौर से देखिए - आपके आसपास कोई न कोई ‘जुगाड़’ ज़रूर होगा। बस मिलिए, डील फ़ाइनल कीजिए  और फिर बेफ़िक्र होकर सो जाइए । आपके गले में पड़ा मरा सांप ‘जुगाड़’ ने अपने गले में डाल लिया है।

            ये मानवरूप में विचरते ‘जुगाड़’ दरअसल महात्मा, साधू होते हैं, और साधुओं का अपना कुछ तो होता नहीं है। वह तो ‘परमारथ के कारने....’ ही शरीर धारण करते हैं। किसी की शादी करा दी, किसी की नौकरी लगवा दी, किसी का घर-बार बिकवा दिया, किसी ज़रूरत के मारे का एडमिशन करा दिया।


            परोपकार के बदले उन्हें आप जो दक्षिणा भेंट करते हैं, वह भी परोपकार में ही जाती है। उस पैसे से जुगाड़ी महात्मा अगर प्रापर्टी ख़रीदते हैं तो बेचनेवाले पर एक तरह से कृपा ही करते हैं। अगर दक्षिणा के धन से वे शराब पीते हैं तो सही मायने मे ठेके की बिक्री ही बढ़ाते हैं। यही दक्षिणा अगर वे बारबालाओं को अर्पित करते हैं तो ये भी बेसहारा का सहारा बनना हुआ। अतः ‘लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्....’ न्याय के पथ से ये धीर जुगाड़ पुरूष विचलित नहीं होते।


            ‘जुगाड’ का समाज-विज्ञान जितना कल्याणकारी है, उससे भी ज्यादा हितकारी है-‘जुगाड़’ का राजनीति-विज्ञान। वे राजनीतिक दल, जो अपने बूते पर सरकार बनाने की  सोच भी नहीं सकते थे-‘जुगाड़’ के प्रभाव से सत्ता का सुख भोगते देखे गए  हैं। अब ‘बहुमत’ अल्पमत जैसे शब्द अर्थहीन हो गए  हैं। इन शब्दों का अर्थ अब ‘जुगाड़’ ने हजम कर  लिया है। ‘जुगाड़’ है तो अल्पमत होते हुए  भी सरकार बन जाएगी। ‘जुगाड’ नहीं है तो बहुमत होते हुए भी सरकार गिर जाएगी।

            ‘जुगाड़’ है तो लोकसभा का चुनाव लडे़ बगैर भी आप मंत्री बन जाएंगे। राज्यसभा रूपी बैक डोर का जुगाड़  ऐसे ही महान जन नायकों के लाभार्थ किया गया है- जिन्हें पब्लिक जीते जी नहीं समझ पाती। मरने के बाद समझती है।

            ऐसे ताक़तवर अतिथि को हिन्दी शब्दकोष के बाहर बिठाना कहां तक ठीक  होगा-आप ही बतायें ?

(समाप्त) 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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