‘बापू
संग्रहालय’ में डाका पड़ने की ख़बर सभी अख़बारों में छपी थी। उम्मीद की जा रही
थी कि बापू की घड़ी, चरखा, चश्मा, गीता, चप्पलें, अंगोछे नुमा धोती और हाथ में रहनेवाली लाठी-ये चीज़ें तो लुट ही चुकी होंगी।
मगर मौक़ा-ए-वारदात
पर जाकर पता चला कि न घड़ी उठी थी, न चश्मा,
न चरखा, न गीता, न
अंगोछे नुमा सफ़ेद धोती और न चप्पलें। ग़ायब हुई थी सिर्फ़ लाठी।
सवाल उठा-इल्जाम
किसके मत्थे मढ़ा जाय ? होती किसी और की सरकार
तो-गिरा देते। कह देते विरोधी दलों की साज़िश है। मगर सूबे और केंद्र, दोनो में अपनी सरकार थी। अपोज़ीशन ने राहत की सांस ली। वरना बदनाम करने में
देर कितनी लगती।
रपट लिखाने की
रस्म-अदायगी के बाद तहक़ीक़ात का दौर शुरू हुआ।
शुरूआत इलाक़े के दस
नंबरियों से हुई। थाने के ‘गुन्हे प्रकटीकरण कक्ष’ मे लाकर ज़बर्दस्त धुनाई की गयी।
रात बारह बजे से सवेरे चार बजे तक उलटा लटका कर नंगे ज़िस्मों पर इतनी लाठियाँ
बरसीं कि सूज कर नीले पड़ गये। फिर भी किसी ने गुनाह क़बूल नहीं किया।
बेइंतिहा लाठियां
भांजने के बाद भी बापू की लाठी जब बरामद न हुई तो पुलिस समझ गयी कि ‘काम दस
नंबरियों का नहीं लगता, वरना इत्ती देर में तो
बोल जाते साले। मानना पड़ेगा। मौत के आगे भी नहीं टूटे ।’
‘ऊपर’ से
धमकी आ रही थी-’हफ्ते भर में लाठी बरामद न हुई तो सबकी नौकरी जाएगी। सारे काम
छोड़कर बापू की लाठी खोजी जाए ।’
थाने में क्या
दरोगा, क्या सिपाही, सबकी
नींद हराम ्!
तय हुआ कि मुख़बिरों
से पूछा जाय। मोची, डुप्लीकेट चाबी बनानेवाले,
फल-भाजी की ठेली लगानेवाले, भिखारी, उठाईगीर, ज़ेबकतरे, भंगारवाले,
झूठी गवाही देनेवाले- जो-जो पे रोल पर थे, मुंह
अंधेरे ही सबको बिस्तरों से बीन-बीन कर हवालात में पटक दिया गया। वक़्त कम था।
गालियों की बौछारों के साथ तफ़्तीश शुरू हुई। एक ही जवाब था- माई-बाप ! जान बख़्श दी
जाए । ये काम हमारा नहीं है।’
‘ना’ सुनते
ही मुखबिरों पर कयामत टूट पड़ी । भद्दी भद्दी गालियों के साथ, लाठियां भी बरसने लगीं। चीख़-पुकार मच गयी। पेट, पीठ,
घुटनों पर बूटों की ठोकरें पड़ रही थीं। बाजूओं, नितंबों, जांघों और खोपड़ियों पर लाठियां तड़ातड़ बरस
रही थीं। कई सर फूट गये। खून के फव्वारे झरने लगे।
हड्डी-पसलियां चटक
गईं । फ़ौलादी मुक्कों से चेहरे सूज गए । देखते ही देखते चीख़-पुकार ख़ामोश हो गई ।
‘जनाब ! बेहोश
हो गये स्साले ! अब क्या हुकुम है ?’ एक सिपाही के पूछने पर
दरोगा दहाड़ा- ‘बरफ़ के पानी की बाल्टियां फेंको। होश आ जाए तो फिर तफ़्तीश करो।’
वैसा ही किया गया,
मगर चार मुख़बिर झेल नहीं सके। दम तोड़ दिया।
अगले रोज ख़बर
छपी-बापू की लाठी चुरानेवाले गिरोह से पुलिस की मुठभेड़। चार खूंखार अपराधी मौक़े पर
हलाक। बाक़ी अंधेरे का फायदा उठाकर फरार। समाचार लिखे जाने तक तलाश जारी।’
अब सिर्फ़ तीन दिन
बाक़ी थे। ‘तब तक लाठी न मिली तो वरदी उतर जाएगी। कंधों पर चमचमाते पीतल के बिल्ले
छीन लिये जाएंगे। रौब-दाब ख़त्म हो जाएगा। भूखों मरने की नौबत आ जाए तो बड़ी बात नहीं।
थाने में सन्नाटा
छाने लगा।
तभी किसी ने बताया-
नदी के कछार पर नटों, करनटों और कंजरों ने
डेरे डाले हैं। हो न हो-लाठी उन्होनें चुराई हो। लाठी से ही करनट तमाशे दिखाते है।
लाठी से ही दुश्मनों से अपने को बचाते है। लाठी उनकी तरह से रोज़ी-रोटी है।’
उसी वक़्त ट्रक में
भरकर कंजरोंं, करनटों और नटनियों को थाने
लाया गया। फिर शुरू हो गयी दरिंदगी की वही कहानी। कई मिन्नतें कीं उन्होंनें। पैर
पकड़े, क़समें खाई, नाक रगड़ी, मगर कोई फ़र्क़ न पड़ा। सारी रात हैवानियत का नंगा नाच होता रहा। इंसानियत
मुंह छुपाकर फूट-फूट कर रोती रही। बेगुनाह लोग, गुमनाम लाशों
में तब्दील होते रहे। पत्थरों से बंधी लाशें अंधेरी रात में नदी में डूबती रहीं।
पर बापू की लाठी
नहीं मिली। अब सिर्फ़ दो दिन
बचे थे।
रणनीति बदली गई ।
लाठी की तलाश में संघ के दफ्तरों में छापे मारे गये। वहां लाठियां तो मिलीं,
पर बापू की लाठी वहां भी न मिली।
उसके फ़ौरन बाद ‘भाई
लोगो’ के अड्डे पर अचानक छापा मारा गया। उस वक़्त वहां ‘शूटर’ ट्रेनिंग ले रहे थे।
भाई लोगों ने उठकर
अगवानी की। ठंडा पेश किया। फिर “बगैर सूचित किए”
आने की वजह पूछी।
-क्या बताएं
डॉन भाई, बापू की लाठी उठ गई है। अब तक बरामद नहीं हुई।
नौकरी ख़तरे में है।’
पुलिस प्रतिनिधि की
बात सुनकर ‘भाई’ बोला- अपुन को लाठी से क्या काम?
लाठी से आजकल धंधा नहीं चलता। कुत्ता तक लाठी से नहीं डरता । पन अगर
बापू की लाठी इदर आती तो मैं उसको इज़्ज़त से रखता था । वह लाठी तो चीज़ थी न !
हताश प्रतिनिधि दल
खाली हाथ लौट आया।
उसी वक्त सुराग हाथ
लगा कि अंतर्राष्ट्रीय स़्मगलरों के अड्डे पर आजकल सरगर्मियां कुछ बढ़ गई हैं । हो
न हो लाठी उन्होने ही पार कराई हो और इंटरनेशनल मार्केट मे बेचने की कोशिश चल रही
हो ।
छापा मारा गया।
तलाशी शुरू हुई। बहुत कुछ आपत्तिजनक चीजें मिलीं,
जो पैक करके बाहर भेजी जानी थीं। मगर तलाश तो सिर्फ़ लाठी की थी,
जो वहां नहीं मिली।
पुलिस दल वहां से
भी खाली हाथ लौट आया। बेचैनी बढ़ गई । ‘कितनी शर्म की बात थी एक पूरा का पूरा थाना
हफ़्ते भर से बापू की लाठी नहीं खोज पाया ?
सिर्फ़ एक दिन बाक़ी
था। सवेरे से ही चुंगी पर, हर नाके पर तलाशी शुरू
हो गयी। ट्रक, कार, बस, यहां तक कि स्कूटर और साइकिल वालों की भी तलाशी ली गई ! रात हो गई, मगर लाठी न
मिली।
अल्टीमेटम का आख़िरी
दिन आ पहुंचा। अख़बारों और टीवी चैनलों में एक ही ख़बर थी-बापू की लाठी। आखिर कहां
गायब हो गई बापू की लाठी ?
क्या ज़मीन उसे निगल गई ?
या फिर आसमान उड़ा ले गया ? जब लाठी तक यहां
सुरक्षित नहीं है तो और क्या उम्मीद की जा सकती है ? क़ानून-व्यवस्था
की बिगड़ती स्थिति पर चिंता व्यक्त की जाने लगी।
अल्टीमेटम का आखिरी
दिन बीत गया।
गनीमत है,
मियाद एक महीने बढ़ा दी गई ।
मामला चूंकि राजनीतिक था, सो तत्काल, ‘लाठी आयोग’ का गठन किया गया, जिसके एक मात्र सदस्य नब्बे वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी ‘राही’ जी थे। आयोग
को छह महीने के भीतर रिपोर्ट पेश करने को कहा गया।
जिस वक्त राही जी
को यह कार्यभार सौंपा जा रहा था, वह अख़िल
भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान में आईसीयू में बेहोश पड़े थे। डाक्टरों ने उनकी हालत
स्थिर, किंतु चिंताजनक बताई थी। उनकी हृदयगति कृत्रिम
श्वासप्रणाली के सहारे चल रही थी। याददाश्त तो वह हफ्ते भर पहले ही खो चुके थे।


इधर बापू की लाठी
का मामला था तो उधर आरक्षण विरोधी छात्रों के धरने,
जुलूस, क्रमिक अनशन और मानव श्रृंखला ! मुसीबत
पर मुसीबत ! बापू की प्रतिमाओं के आगे छात्रों के आमरण अनशन ! थर्ड डिगरी का भी
स्कोप नहीं। ज़रा सी चूक से आंदोलन जोर पकड़ गया तो नौकरी तो जाएगी ही, लाठी भी अपने ऊपर ही पड़ेगी।
फिर भी राजभवन की
तरफ़ बढते निहत्थे छात्रों को पुलिस ने बेतरह पीटा। जैसे कि वे आतंकवादी हों।
मगर यह रहस्य अब तक
नहीं खुला कि बापू की लाठी आख़िर गई कहां ?
(समाप्त)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें