कहानी- अन्तर्कथा




बाहर भीड़ चीख रही थी- 

-लाठी गोली खाएंगे, जयंत भाई को लाएंगे’

-‘जयंत भाई- जिन्दाबाद’

-‘देश के नेता- जयंत भाई’

कई हाथों में अखबार थे, अखबारों की सुर्खियों में छपा था-

‘विरोधी दलों द्वारा जयंत भाई पर जानलेवा हमला। हालत चिन्ताजनक।’

            अखबारों में जयंत भाई का फोटो भी छपा था। फोटो देखकर कोई भी कह सकता था कि इतना सीधा-सादा आदमी जयंत भाई के अलावा कोई नहीं हो सकता। सफेद टोपी, सफेद बंगाली कुर्ता और धोती, हंस के पंखों सी बेदाग सफेदी।

            इस चमचमाती सफेदी को हासिल करने में जिन्दगी धूल मे मिला दी थी जयंत भाई ने। वरना कौन नहीं जानता था कि वह बड़े अफसर थे। अच्छी तनख्वाह मिलती थी। बंगला, जीप वगैरह सभी कुछ था, पर वह जयंत भाई ही थे जिन्होंने जनता की सेवा के लिए इतनी अच्छी नौकरी पर लात मार दी। जब वे देखते कि करोड़ों लोगों के पास दोनों वक्त पेट भरने लायक रोटी नहीं है, गर्मी-सर्दी से बचने के लिए छप्पर नहीं, बदन ढकने के लिये गज भर कपड़ा भी नहीं हैं, तो उनकी आत्मा टीस उठती। विद्रोह हो जाता था उनके भीतर उन गोदामों के खिलाफ, जिनके बन्द तालों के भीतर लाखों क्विंटल अनाज सड़ रहा होता। उन आकाश चूमती बहुमंजिली इमारतों के खिलाफ, जिनके सैकड़ों कमरे बिल्कुल खाली पड़े रहते है। उन दुकानों व कारखानों के खिालफ जिनमें लाखों मीटर कपड़ा बुना और जमा किया जाता है।
            नतीजा यह निकला कि नौकरी से इस्तीफा देकर जयंत भाई दीन-दुखियों की सेवा में जुट गये। बरसों तक बिना किसी स्वार्थ के उन्होंने जनता की सेवा की। फिर चुनाव आये। जनता का हुक्म हुआ कि तुम भी चुनाव लड़ो। न चाहते हुए भी टिकट लेना पड़ा। जनता की आवाज थी। भला कैसे टाल पाते ! चनाव बेमन से लड़ा, और भारी बहुमत से जीत गये। बस, तब से कितने ही बरस बीत बए। कभी हार का मुँह नहीं देखना पड़ा जयंत भाई को। उनकी कठोर “जन-सेवा”  का ही फल था कि आज तक जयंत भाई अनेक मंत्री पदो पर रह कर सत्ता सुख भोगते आये थे। जनता आज भी उनसे बेहद खुश है। वह खुद भी जनता को बेहद प्यार करते हैं। जनता को जरा सी तकलीफ हो जाये तो जयंत भाई की नींद हराम हो जाती है। जनता को बराबर  डर बना रहता है कि विरोधी दल कहीं मौका पाकर उनके प्राणों से भी प्यारे नेता को मार न डालें ।


            इस हालत में अगर जयंत भाई पर हमला हुआ था तो भीड़ क्यों न उमड़ पड़ती अस्पताल के बाहर।

-‘देश के नेता-जयंत भाई’

-‘जयंत भाई जिन्दाबाद’

-‘लाठी-गोली खाएंगे-जयंत भाई को लाएंगे’.........भीड़ अब भी चीख रही थी।

            कल तीसरे पहर लाया गया था जयंत भाई को यहाँ। तभी से कमरे की सजावट में लगातार बदलाव आ रहा था। सूनी जर्द दीवारें दूधिया रोगन से जैसे नहा गई थीं। जगह-जगह महान क्रान्तिकारियों की तस्वीरें जड़ी जा रही थीं। दरवाजों व खिड़कियों के मैले व फटेहाल परदे उतार कर नये उजले परदे लटका दिये गये थे। तेज मरकरी लाइटों की जगह ठंडी निआन ट्यूब्स लगा दी गई। पलंग से कूछ हट कर खिड़की के समीप एक खूबसूरत चौड़ा मेज और आरामदायक रिवाल्विंग चेयर लगा दी गई। मेज पर जयंत भाई के लेटर पैड, काल बेल, पेन व प्रमुख समाचार पत्रों के वे अंक रखे थे जिनमें इस हमले की खबर सुर्खियों मे छापी गई थी। मेज के एक कोने पर रखी घड़ी जैसे उनकी वक्त की पाबन्दी का प्रमाण थी। सामने दीवार पर आदमकद आईना लगा था।
            बराबर वाले कमरे को मिलने-जुलने वालों तथा साक्षात्कार आदि देने के लिये खाली करवा दिया गया। कमरे में दस-पंद्रह आराम-कुर्सियां और इतनी ही छोटी-छोटी मेजें लगा दी गई। ठीक सामने एक सादा दीवान था जिस पर बेड शीट  बिछी थी व गाव तकिये रखे थे। सामने माइक्रोफोन भी लगा था।

जयंत भाई शान्त मुद्रा में, आँखें बन्द किये, गले तक उजली सफेद बेडशीट ओढे़ पड़े थे। उनके माथे पर लाल क्रास की शक्ल में चौड़ी पट्टियाँ बँधी थी। कमरे के बाहर जयंत भाई का निजी सुरक्षा गार्ड मुस्तैदी के साथ खड़ा था। डाक्टरों या अति महत्वपूण हस्तियों के अलावा किसकी मजाल थी कि उसके रहते कमरे में झांक भी सकें ?

ठीक इसी वक्त अस्पताल के बाहर कार रूकी। सफेद खादी टोपियां, कुरते व तंग शेरवानियां पहने कुछ स्थूलकाय नेता उतरे। सबसे आगे सफारी सूट पहने आंखों पर गहरे रंग का चश्मा चढ़ाए मंद-मंद मुस्कराते श्री सिंह थे। चीख-चीख कर नारे लगाते अथाह भीड़ के सागर को  लहराते देख श्री सिंह विभोर हो उठे और धीरे से बड़बड़ाए-‘ऐसी दिल तोड़ भीड़ देखे तो मुद्दतें बीत गई थी। सैंतालीस के बाद ऐसा सैलाब पहली बार टूटा है। मान गए जयंत बेटे तुझे।’

भीड़ अब भी चीख रही थी-

-‘लाठी गोली खाएंगे, जयंत भाई को लाएंगे’

-‘हमारे नेता- जयंत भाई’.........
            श्री सिंह के शरीर में बिजली दौड़ गई। उन्होंने इधर-उधर देखा। सामने अस्पताल से जुड़ा कुछ ऊँचा सा प्लेटफार्म था। बात ही बात में श्री सिंह उछल कर उस पर चढ़ गये। क्षण भर को सामने गरजते-उफनते जन-समुद्र को देखा, परखा। मन ही मन मुस्कराए। फिर ताली बजा कर भीड़ को ऐसे शांत कर दिया जैसे कोई सिद्धहस्त मदारी मामूली प्रयास से क्रुद्ध नाग को वश में कर लेता है। भीड़ में सन्नाटा छा गया।


            .......भाइयों, बहनों व मेरे नौजवान दोस्तों ....... श्री सिंह ने बोलना शुरू किया ...... अपोजीशन किस हद तक नीचे गिर सकता है, आपने देख लिया। लेकिन हम कहते हैं, और आप भी मानते है कि सवाल एक जयंत भाई की जिन्दगी या मौत का नहीं है। सवाल ये है कि इस मुल्क में लोकतंत्र रहेगा या नही ? ये हमला जयंत भाई पर नहीं हुआ। ये हमला हुआ है हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर, हमारी जम्हूरियत पर। ताकि आपकी आवाज को दबाया जा सके। मगर साथियों .....

 श्री सिंह को कुछ देर के लिये रूक जाना पड़ा। क्योंकि भीड़ मे भगदड़ मचने लगी थी। लोग गुस्से में पागल हो उठे थे। अफरा-तफरी का माहौल बन गया। श्री सिंह ने मुश्किल से भीड़ को शान्त किया और बोलने लगे-

            ..... साथियों, चन्द लोगों की मर्जी से नहीं, ये मुल्क चलेगा तो सिर्फ आपकी मर्जी से। फैसला आपको करना है। और मुझे यकीन है आप किसी के बहकावे में नही आयेंगे। जै हिन्द।

            कह कर श्री सिंह नीचे उतरे और तालियों की अनवरत गड़गड़ाहट के बीच भीतर जाने लगे। असीम शान्ति और आत्मविश्वास छलक आया था उनके चेहरे पर, जिसे रूमाल से पोंछकर उन्होंने जेब में रख लिया। भीड़ अब भी चीख रही थी ........

-विरोधियों की....... नहीं चलेगी,

-लाठी-गोली खाएंगे, जयंत भाई को लाएंगे .......
          

  साथियों को बाहर वाले कमरे में बिठा, ज्यों ही श्री सिंह भीतर वाले कमरे की तरफ बढ़े कि हट्टे-कट्टे भीमकाय सुरक्षा गार्ड ने विनीत भाव से किन्तु दृढ़तापूर्वक रास्ता रोक लिया व बोला - साहब मैं मजबूर हूँ। उन्हें इस वक्त इंजेक्शन लग रहे हैं।
       
     एक मिनट के लिए कुछ सोचा श्री सिंह ने फिर मुस्कराते हुए पूछा - कितनी देर हो गई ? सुरक्षा गार्ड ने मुस्कराते हुए सिर झुका लिया। श्री सिंह को समझते देर न लगी कि अभी काफी वक्त लगेगा। वह लौट कर दूसरे कमरे में आ गये जहां बाकी नेता बैठे थे।

            ‘आज तो तूने कमाल कर दिया सिंग’। एक साथी ने उन्हें हाथ खींच कर बगल में बिठाते हुए कहा, श्री सिंह तपाक से बोले - ऐसी भीड़ भी तो आज मुद्दतों के बाद नसीब हुई है। ऐसी लहलहाती, पकी-पकाई फसल भला कौन छोड़ देगा ? हंसी के गुब्बारे फूटने लगे। लेकिन श्री सिंह एकाएक गंभीर हो गये, चश्में को उतारकर आंखे पोंछते हुए बोले - सालों, जयंत अकेला अकेला क्या-क्या करेगा? चरबी तो तुम पर भी चढ़ी है। इस जहाज पर तो तुम सब भी सवार हो। अगर ऐसे ड्रामें अपने-अपने इलाकों में सभी करें और ऐसी ही भीड़ जुटती रहे तो इस बार भी हमें पावर में आने से कोई माई का लाल नहीं रोक सकता।

-           नहीं सिंग, अब ड्रामों का वक्त नहीं है, पब्लिक समझने लगी है ........ एक बुजुर्ग नेता गंभीर आवाज में बोले ......... ‘अब तो किसी चमत्कार का ही भरोसा है। मैं एक अघोरी बाबा को जानता हूँ, जिसमें चमत्कारी शक्तियां छिपी हैं। वह चाहे तो हमारी पार्टी को बहुमत मिलना तय है। बस ! उसे खुश करना पड़ेगा।

-           क्या लेकर खुश होगा वह ? एक बूढ़े नेता ने खल्वाट खुजलाते हुए पूछा तो बुजुर्ग नेता बोले -

-           बस ज्यादा कुछ नही, पांच-सात करोड़ कैश और फिलहाल एक साध्वी सेवा के लिए। इतने में सौदा पट जायेगा। मगर उसके बाद जो गत अपोजीशन की बनेगी-तुम सब देखते रह जाओगे।

-           मेरी मानो तो इन्द्रा स्वामी इस काम के लिए बिल्कुल फिट है। साल में आठ-दस महीने तो वह विदेश में ही रहता है। कौन सा देश है, जिसके मुखिया उसकी जेब में नही हैं । कौन से ऐसे आंतकवादी संगठन हैं , दुनिया में, जिनके सरगाना उसका कहना नहीं मानते ! हथियारों की खरीद-फरोख्त में दलाली खाकर खरबपति बने वे कौन से धनकुबेर हैं जिन्हें इन्द्रा स्वामी की जरूरत नहीं पड़ती ! इसलिये मेरा ख्याल है कि आशीर्वाद ही लेना है, तो इन्द्रा स्वामी का लो। इन मौनी बाबाओं तथा अघोरियों का वक्त बीत चुका है दोस्त। एक युवा नेता ने झकझक सफेद कुरते पर पड़ी धूल झाड़ते हुए कहा। सभी बूढ़े नेता उसकी तरफ घूम गये और उसकी ओर ध्यान से देखने लगे।


            तभी सुरक्षा गार्ड भीतर आया और सिंह मुस्कराते हुए जयंत भाई के कमरे में घुस गये। भीतर से दरवाजा बन्द करके वह हंसते हुए जयंत भाई की तरफ मुड़े-साले बहुरूपिये, ये जानलेवा  हमला है। बता, तू कर क्या रहा था ?

            सिंह ने खपच्चियों से हाथों का तथाकथित जबरदस्त कराटे प्रहार जयंत भाई की पीठ पर किया जिससे हंसी आ गई उन्हें। श्री सिंह का हाथ अपने हाथों में लेकर जयंत भाई बोले-‘नही भूल पाता हूं नीलिमा को। इस नर्सिग होम की प्रोपराइटर डाक्टर नीलिमा, जिसे कालेज के दिनों से भी पहले से मैं बेहद प्यार करता था ........जयंत भाई की निर्निमेष पलकें शून्य में कुछ खोजने कोशिश करने लगीं.  इसी बीच श्री सिंह ने कुर्ते की जेब से एक शीशी निकाली। ढक्कन खोला और एक ही सांस में गटागट  पीने लगे। किन्तु तुरन्त ही इस क्रिया में व्यवधान पड़ा। जयंत भाई विद्युत गति से उछले। शीशी सिंह के मुंह से खींच ली और निश्चिंत भाव से एक ही सांस में पी गए। गले में आई तरावट से आनन्द विभोर हो उन्होंने लम्बा सांस खीचा और रोमांटिक अंदाज मे बोले’......हम दोनों साथ-साथ पढे थे। साथ-साथ जीने-मरने की कसम खाई थी हमनें। मगर नीलिमा ने धोखा दिया। इंजीनियर का रिश्ता आया और वह फिसल    गई...।


            श्री सिंह जिनकी उत्तेजना अब शिथिल पड़ गई थी- आराम कुर्सी पर धंस गये। नकली दांतों का सेट निकाल कर मेज पर रख दिया। आखों से गहरे रंग का चश्मा भी उतार कर रखने के बाद वह दयनीय तथा असहाय से हो गये। उनके चेहरे पर असीम शान्ति थी, मानों नकली इन्द्रियों से मुक्त होने के बाद उन्हें राहत मिली हो। बन्द दरवाजों के बाहर से अब भी रह-रह कर आवाज आ रही थी-हमारे नेता.....जयंत भाई......विरोधियों की.........‘नहीं चलेगी...... लाठी गोली खाएंगे....... जयंत भाई को लाएंगे......।

            और बन्द कमरे में बिस्तर पर लेटे जयंत भाई के चेहरे पर  कुटिल मुस्कराहट उभर आई, उनके होंठो से एक ही शब्द निकला-‘गधे’। जो बहुत  धीमा था।

(समाप्त)

Share on Google Plus

डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें