व्यंग्य- एक कारखाने की आत्म-कथा



       जी हां ! सही पहचाना आपने । मैं वही  बदनसीब कारखाना हूं, जिसकी दर्द भरी दास्तां आप पढ़ने जा रहे हैं ।  । गिरी हूई छतोंवाले बड़े-बड़े कमरे, मकड़ी के जालों से अटी पड़ी दीवालें, उखड़ कर ढल रही चारदीवारियां और चारों तरफ़ उग आये झाड़-झंखाड़ देखकर आप मेरी बदनसीबी का अंदाज़ लगा सकते हैं। भले ही इन खंडहरों में आज अबाबीलों, उल्लुओं और चमगादड़ों ने  बस्ती बसा ली हो, पर कभी वहाँ बड़ी-बड़ी मशीनें थीं, जिन पर हज़ारों मज़दूर काम करते थे।


तब मेरी हालत उस मेमने-सी थी जिसे बड़े प्यार से पालपोस कर, खिला पिलाकर जवान बनाया जा रहा था ताकि वक्त आने पर उसे बेरहमी से काट कर खाया जा सके।

जिस वक्त मेरी बुनियाद पड़ी, देश नया-नया आज़ाद हुआ था। ख़ज़ाने खाली थे। याद नहीं आता कि मेरी सालाना ज़रूरतों के लायक बजट कभी मुझे मिला हो।

मगर वह दौर ही कुछ और था। मेरे अफ़सरों और मज़दूरों में देश-प्रेम का ज़ज्बा कूट-कूट कर भरा था। सदियों की गुलामी के बाद आज़़ादी मिली थी। बड़ा जोश था, बड़ी उमंग थी लोगों में अपने वतन के लिये। मशीनों पर काम करते हुए मेरे मज़दूर गुनगुनाते थे-ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी क़सम, तेरी राहों पे हम सर कटा जायेंगे। दोपहर का खाना खाने के बाद जब सब लोग काम पर आते तो एक कहता- अपने देश में अपना राज। फिर सब मिलकर ज़ोर से चिल्लाते-‘खूब करेंगे काम-काज’। रात-दिन का फर्क नहीं रहा। लोग अपना समझ कर जी-जान से काम करते।

दोपहर को जब थोड़ी देर के  लिए खाने की छुट्टी होती तो मजदूर नाराज़ हो जाते कि मशीनें बंद  न की जाएं। हम खाने की छुट्टी नहीं चाहते । हम काम करते हुए  खाना खा लेंगे । कई मजदूर खुल कर गाते हुए सुने जाते- दिल दिया है, जां भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिए ....। जब भी दो चार मजदूर खाना खाकर बात करने बैठते तो मुद्दा यही रहता- आज प्रोडक्शन उतना नहीं बढ़ा जितना हम चाहते थे। चलो खैर, कोशिश करते हैं...।  

कड़ी मेहनत ने आख़िर रंग दिखाया। धीरे-धीरे मैं पैसा कमाने लगा। अब तक मेरी वजह से सरकार के ऊपर ख़र्चे का जो बोझ आ गया था, वह घटने लगा। यहाँ तक कि मैं अपनी सालाना ज़रूरतों के लायक पैसा खुद कमाने लगा। मेरे कामगारों को अच्छा पैसा मिलने लगा । उनके बच्चे अच्छे स्कूलों मे पढ़ कर डॉक्टर, इंजीनियर बनने लगे । कई मजदूरों के होनहार बच्चे विदेशों मे जा कर अच्छी नौकरियां भी करने लगे।

मेरे शुरू के चेयरमैन अपने ऐशोआराम पर मेरी कमाई जरा भी खर्च नहीं करते थे। ख़ून-पसीना बहाकर कमाए  पैसे ख़र्च करना उनकी नज़रों में संगीन जुर्म जैसी वारदात थी। उन्हें तो बस इसी बात की ख़ुशी थी कि जिस पौधे की देखभाल उन्हें सौंपी गयी, वह पौधा फलने-फूलने लगा था।

लेकिन मेरी हदों के बाहर जो हिंदुस्तान जवान हो रहा था- उसकी हालत अच्छी न थी। आज़ादी की याद दिलानेवाली तारीख़ें-झंडा फहराने, राष्ट्रगान गाने, लड्डू बांटने और झूठे वादे करने तक सिमट गयीं। शादी-ब्याह में देखा जाने लगा कि लड़के की सरकारी नौकरी है या नहीं। अगर है तो ऊपर की आमदनी कितनी है?

एक और फ़र्क मेरे हिंदुस्तान मे आ रहा था। पहले योजनाओं में भ्रष्टाचार होता था, मगर धीरे धीरे  भ्रष्टाचार के लिए योजनाएँ बननें लगीं। और एक दौर ऐसा भी आया कि यूरिया ख़रीदा ही नहीं गया और सैकड़ों करोड़ का भुगतान विदेशी कंपनी को कर दिया गया। रिश्वतख़ोरी पहले भ्रष्टाचार कहलाती थी, अब वह शिष्टाचार बन गयी। ऊँची कुर्सियों पर बैठे देश के “सेवक” घोटालों के नये-नये रिकार्ड बनाने में जुट गये। कहा तो यहाँ तक जाने लगा- ‘सौ में से निन्यानबे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान’।

गिरावट का वह बुरा दौर जो एक बार शुरू हुआ तो रुक कर नहीं दिया। आए दिन अखबार घोटालों के किस्सों से भरे रहते । चीनी घोटाला, स्टांप घोटाला, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, जैसे सैकड़ों घोटाले रोज होने लगे । कारखानों मे परले दरजे के बेइमान, भ्रष्ट और घूसखोर चेयरमैन भरती होने लगे । उनका काम यही था कि मोटी मलाई को कैसे ऊपर पहुंचाया जाए ?


 गिरावट का यह संक्रामक रोग आख़िरकार मेरी चहारदीवारी के भीतर भी पहुँच गया । दौलत से लबालब भरे मेरे ख़जाने पर भूखी, ललचाई आंखें गड़ गईं । मेमना अब खा पीकर जवान हो गया था । उसकी रानों मे अब स्वादिष्ट गोश्त जमा हो चुका था ।  अब उसे जिबह करने के तरीके खोजने मे जुट चुके थे आका और सरकार मे बैठे रहनुमा ।

शुरूआत सरकार की तरफ़ से हुई। मेरे ख़जाने की लूट पहले तो सरकार ने ही शुरू की। कभी बजट घाटा पाटने के बहाने तो कभी सड़क परियोजना के नाम पर तो कभी शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर मेरी गाढ़ी कमाई लूटी जाने लगी । विकास के बहाने से लूटी गई मेरे खून पसीने की कमाई अब नेताओं और बड़े अधिकारियों के विदेशी खातों मे जमा होने लगी ।ऊपर से खुला इशारा मिल चुका था । अब नया आने वाला हर चेयरमैन एक एजेंडा लेकर आता था कि मेरे खातों मे जो माल जमा है उसे हड़पने के लिए कौन सा बहाना ज्यादा ठीक रहेगा ?

हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने लगा। मेरा चेयरमैन बनने के लिए करोड़ों की रिश्वत दी जाने लगी। रीवैंपिंग के नाम पर सैकड़ों करोड़ की योजनाएँ शुरू कर दी गयीं। दलाली खाकर अफ़सर और नेता मालामाल होने लगे। मेरे हमदर्द मजदूरों को तनख़्वाह के लाले पड़ने लगे। छंटनी शुरू हो गयी। जिन मज़दूर साथियों ने मुझे कड़ी मेहनत करके अमीर बनाया था- उन्हें सरप्लस बताकर ज़बरन घर भेजा जाने लगा। जिनके खून पसीने की खाद पाकर मै आज कमाने लायक बना था वे सब छांट छांट कर घर भेजे जा चुके थे। निकम्मे और घूसखोर क़िस्म के लोग तरक़्क़ी पाकर ऊपर आने लगे।  दौरों के नाम पर सैर सपाटे होने लगे । हेलीकॉप्टर खरीदे गए । एक सी एक बेशकीमती गाड़ियां खरीदी गईं। कई इमारतें बनने लगीं। खून पसीने से जोड़ी गई मेरी कमाई अय्याशियों पर खुलकर लुटाई जाने लगी । ऊंची कुर्सियों पर बैठे आकाओं का आशीर्वाद पाने के लिए करोड़ों रूपये किसी न किसी बहाने से ऊपर भेजे जाने लगे । लूट-खसोट की सारी हदें पार होने लगीं।

मुझे घाटे मे लाने के लिए मेरे गोदाम मे कई बार आग भी लगाई गई । उस वक्त मै ही जानता हूं कितनी पीड़ा होती थी मुझे ? थोड़े से मुनाफे के लिए मेरे आका मुझे आग के हवाले भी कर सकते हैं - यह सोच कर ही मुझे अपनी भीतर शर्म महसूस होती थी ।  


ऐसे हथकंडों का नतीजा यह हुआ कि मैं बीमार पड़ गया । मेरा घाटा साल दर साल बढ़ने लगा। मुझे अपनी तरक्की के लिए बैंकों से कर्ज लेने पर मजबूर होना पड़ा ।

इस बदहाली मे पहुंचने से मुझे जो तकलीफ़ हुई - उसे मेरे प्यारे मज़दूर दोस्तों के सिवा और कौन जान सकता था ? अपनी बदक़िस्मती पर मैं ख़ून के आंसू रोता, पर उन्हें पोंछनेवाला कोई न था। मेरी ज़िंदा लाश  पर गिद्धों, सियारों, लोमड़ों और वफ़ादार कुत्तों का महाभोज जारी था। मगर आंसू बहाने के अलावा मैं कर भी क्या सकता था ?

धीरे धीरे मेरी तरफ से सरकार की दिलचस्पी घटने लगी । बजट का एक पैसा भी अब मेरे विकास पर खर्च नही होता था ।

आख़िर वह मनहूस दिन भी आ पहुंचा, जब सरकार ने मुझे लाइलाज़ घोषित कर दिया। अखबारों मे मेरी खतरनाक बीमारी पर लंबे लंबे लेख छपने लगे । उनमे लिखा होता कि मेरी टेक्नोलोजी बहुत पुरानी पड़ गई है। अब मै ज्यादा मुनाफा नही दे सकता ।

इसी बीच मेरी  मशीनें  उखाड़ कर नीलाम कर दी गईं । मज़दूरों को ज़बरन क्वार्टरों से बेदखल कर दिया गया। मेरे गेट को बंद करके बड़ा-सा ताला ठोंक दिया गया। एक इश्तिहार भी मेरे मेन गेट पर चिपका दिया गया । उस पर लिखा था – कारखाना नीलामी पर है ।


क्वार्टरों से जबरन बेदखल किये गए मेरे कई मजदूर साथी - अब दर दर की ठोकरें खाने पर मजबूर थे । कोई दिहाड़ी मजदूरी करने लगा, किसी ने सब्जी की ठेली लगाई, तो कोई सड़क के किनारे पकौड़े तलने लगा ।

एक अरसा बीत गया है उस दर्दनाक हादसे के बाद। मेरी चहारदीवारी के भीतर एक खौफनाक सन्नाटा पसरा हुआ है। चारों तरफ़ झाड़-झंखाड़ उग आये हैं, मगर मेरी ज़मीन की क़ीमत आज सैकड़ों-करोड़ में पहुंच चुकी है।

जिन लोगो ने मेरी गाढ़ी कमाई पर डाका डाला था, जिन्होने मुझे शर्मनाक अंजाम तक पहुंचाया-था- सुना है वही लोग मिलकर नीलामी मे मेरी बोली लगाएंगे ।

(समाप्त)

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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