व्यंग्य- बस एक नज़्म और


            बात उन दिनों की है जब तंत्र-लोक संगीन दौर से गुज़र रहा था। कहीं बम धमाकों से बेकसूर हलाकतों का जलजला जारी था तो कहीं बुनियादी उसूलों की धज्जियाँ हवा में सवार बेख़ौफ़ उड़ रही थी। कहीं स्पेशल इकोनामिक जोन बनाने के नाम पर हज़ारों-लाखों हैक्टर ज़मीन काश्तकारों से जबरन छीनीं जा रही थी तो कहीं रिज़र्वेशन की जहरीली सुई तालीमी मरकज़ों में ज़बर्दस्ती भोंकी जा रही थी। बाहरी मुल्कों की बड़ी कंपनियाँ यहाँ कारखाने लगाकर मुनाफ़ा कमाने लगीं तो देशी कारखा़ने  घाटा उठाते-उठाते तालाबंदी के क़रीब आ पहुँचे थे।

            तंत्र-लोक के ज्यादातर इंटेलेक्चुअल परेशान थे कि इन हालातों पर काफ़िया पढ़ें या मर्सिया। मगर तंत्रलोक में बुद्धिजीवियों, कवियों और लेखकों का एक ऐसा गुट भी मौज़ूद था - जिसे मौके की नज़ाकत समझ में आ गयी थी। इसी गुट ने तंत्रलोक के मौज़ूदा हालात पर एक मुशायरे का प्रोग्राम रखा।

            मुशायरे में बुलाए  गये शायर मुख़्तलिफ़ जायकों के थे और उनकी कद-काठियाँ भी अलग-अलग क़िस्म की थीं। मसलन एक शायर बिल्कुल पहाड़ से लगते थे तो उनकी बगल में बैठे दूसरे जनाब  मुर्गियों के चूजे से मालूम पड़ते। किसी की चमचमाती खोपड़ी पर मीलों तक बालों का अता-पता न था तो किसी की करीने से संवरी जुल्फ़ें कंधों पर फैली हुयी थीं। किसी की हजामत तसल्ली बख्श  हुई थी तो किसी ने दाढ़ी-मूंछों को कुदरती तरीक़े से उगने और फलने-फूलने की पूरी छूट दी हूई थी।

            ऐसे-ऐसे ‘गाव तकियों के सहारे बैठे’ शायरों के बीच ‘अचकन-शेरवानी’ पहने, बर्फ़-सी सफ़ेद लहराती दाढी-मूछों पर हाथ फिराते एक शख्स  सिमटे बैठे थे। ‘मजबूरी के मारे’ से ये संचालक नुमा सज्जन थे- ‘अश्क’ लोटेवाला, जो दूर से तो मुस्कराते लगते पर पास से देखने पर रूलाई को किसी तरह रोके नज़र आते।

            शाम धीरे-धीरे ढल गयी थी। नम और सर्द हवा के ख़ुशनुमा झोंके वादियों से टकराकर आने लगे। रौशनियाँ जल उठीं। ऐसे में ‘अश्क’ लोटावाला ने माइक क़रीब खींचा और बोले-‘आज की इस हर दिल अजीज़, मुक़द्दस और खुशगवार शामे-गज़ल के मौक़े पर मैं ‘अश्क’ लोटेवाला आप सबका इस्तक़बाल करता हूँ ।  मैं आप सभी सुननेवालों की हिम्मत की दाद देता हूँ कि आपने ‘मठ-उजाड़’ ग्रुप के इन शायरों को सुनने का हौसला जुटाया। मैं आपको यक़ीन दिलाना चाहता हूँ कि इनमें से किसी भी शायर ने आज से पहले मंच का मुँह नहीं देखा था। न आज से पहले किसी अख़बार में इन्हें अपनी नज़्में दिखाई पड़ीं और न रेडियो-टीवी वालों की हिम्मत पड़ी इन्हे दावत देने की। ये जो कुछ भी आपको सुनायेंगे, वह एकदम ‘मौलिक, अप्रकाशित’ होगा।


            तो  ऐसे बुनियादी फनकारों और जांबाज़ सुननेवालों के बीच कवाब में हड्डी बना मैं ‘अश्क’ लोटेवाला हटने की इजाजत चाहता हूँ, मगर हटने से पहले पेश करता हूँ आज के बेहतरीन शायर ‘दाल’ बेघरबारी को।

            तलियों के शोर के बीच ‘दाल’ बेघरबारी ने आडिएंस की ख़िदमत में आदाब पेश किया। फिर पान-रंगे होंठों की किनारियाँ दोनो तरफ़ खींची, और  अचानक ‘अश्क’ लोटेवाला के हाथ से माइक खींच कर ऊँची आवाज़ में बोले-मौजूँ है दाल की अभिलाषा। मुलाहिज़ा फरमाएँ-

                                                चाह नहीं मैं बाज़ारों में रक्खी ही रह जाऊँ,
                                                जमाख़ोर के गोदामों में या फिर सड़ती जाऊँ।
                                                चाह नहीं मैं बावर्चीखानों में पकती जाऊँ,
                                                या फिर पानी बन बीमारों को मैं परसी जाऊँ।
                                                चाह नहीं मक्खन से मिलकर दालफ्राई हो जाऊँ,
                                                या फिर पकी हुई मैं मोटे पेटों में खो जाऊँ।
                                                मुझे पका कर हे बावर्ची उस ढाबे पर देना भेज,
                                                जिस ढाबे पर खाने आते, लुटे-मिटे मज़दूर अनेक।

                        वाह! ‘दाल’ बेघरबारी जी, क्या बात है ? ......

            अश्क’ लोटेवाला ने माइक झपटकर कहना शुरू किया, - मालूम होता है ‘दाल‘ बेघरबारी बायें बाजू से तआल्लुक रखते हैं। आपकी दाल की ख़्वाहिश है कि उसे ग़रीब-गुरबा खायें, जैसे पहले खाया करते थे। वरना आज तो आलम ये है कि मलका ख़्वाबों की मलिका बन गयी हैं। सौ दो सौ से नीचे कोई दाल है ही नहीं। राजमा, अरहर, मूंग, मसूर, चना, लोबिया, उड़द, कुलथ कल तक रसोई के डिब्बों में भी थी पर आज वे सिर्फ दुकानों में हैं। और वह दिन भी दूर नहीं, जब दुकानों से निकलकर दालें म्यूजियम में दिखाई पड़ेंगी। दालों के नमूनों पर लिखा होगा- बहुत पहले इन दालों को तंत्र-लोक का आम-आदमी भी खाया करता था।

            मगर सज्जनों गलती हमारी भी है। हम दवा की जगह भी दाल खाने लगे। जैसे लूज मोशन में मूंग की पतली खिचड़ी, बुखार में दाल का पानी, पथरी में कुलथ की दाल और वजन बढ़ाने में धुली  उड़द के बड़े। और दाल-रोटी दो मुद्दतों से चली ही आ रही थी। आलम यह था कि दाल के बगैर हमारा खाना गले से उतरता ही न था। हमारी इस मज़बूरी को सिर्फ तंत्र-लोक की सरकार समझ पाई । उधर वह धीरे-धीरे कीमतें बढ़ाती गयी, इधर हमारी दाल से निर्भरता घटती गयी। और आज वह खुश नसीब दिन आ पहुँचा है जब हम दालों पर लेश मात्र भी निर्भर नहीं रहे। दालें हमारे खाने से काफी दूर जा चुकी हैं। उनकी जल्दी वापस लौटने की उम्मीद भी कम है।

            मैं ‘दाल’ बेघरबारी को उनकी नायाब दाल शायरी के लिए मुबारकबाद देता हूँ जिन्होंने आज के हालात का अंदाजा काफी पहले लगा लिया था। आपने दालों को आढ़त से निकाल कर शायरी में जो जगह बख्शी है, उसके लिए दालें आपकी शुक्रगुजार हैं। खुदा आपको तंदरूस्ती बख़्शे ताकि आनेवाले वक्त में आप सब्ज़ियों को भी शायरी में माकूल जगह दिला सकें। और फिर एक बार जहाँ शुरूआत हो गयी तो आटा-चावल, किरासन, गैंस, नून, तेल लकडी-जाने कितनी ही चीज़ें हैं, जो शायरी में जगह पाने को छटपटा रही हैं। उम्मीद कीजिये। वह दिन भी जल्द आ जायेगा।

            फिर बगल में रखा पानी का लोटा एक ही सांस में खाली कर दिया ‘अश्क’ लोटावाला ने और सुबकते हुए बोले-‘अब पेशे खि़दमत हैं आपके चहेते जवां शायर जख़्म ‘नासूरी’....


            लोटेवाला की बात खत्म होने से पहले ही जख्म ‘नासूरी’ ने माइक झपट लिया। कायदे आज़म टाइप की टोपी को ठीक से खोपड़ी पर बिठाते और धागे से बंधे गोल चश्में को नाक पर अटकाते हुए बोले-‘साहबान! यूं तो कुछ कहने की गुंजाइश है ही नहीं। सब कुछ शीशे की तरह साफ है। मगर कर कुछ नहीं सकता, इसलिए कह रहा हूं। गौर फ़रमाइये-

                                    टके सेर पागल टके सेर लाशें,
                                    तेरे राज में हमने देखी हैं राजा।
                                    टके सेर भाजी टके सेर खाजा,
                                    कहां बिक रहा है हमें भी बता जा।
                                    यहां और वहां रोज बम फट रहे हैं ।
                                   वो कानों में रूइ डालकर सो रहे हैं।
                                    तो ऐसे में फरियाद किससे करें हम,
                                    ज़रा जख़्म को बात इतनी बता जा।
                                    जिसे देखिये बेचने में मगन है,
                                    जहां देखिये कुछ न कुछ बिक रहा है।
                                    महज़ चंद सिक्कों की खातिर यहां पर,
                                    सरे आम ईमान भी बिक रहा है।
                                    ये बाजा तेरा झूठ कहता है राजा,
                                    कहीं भी नहीं है टके सेर भाजी ।
                                    कहीं भी नहीं है टके सेर खाजा।


            जख्म अपनी नज़्म पर ख़ुद ही झूमते रह गये। नज़रें उठा कर देखा। हाल में श्रोता तो दूर, परिंदा तक न था। वक्त  की नजाकत भांप खंजर ‘रामपुरी’ ने फुरती से जख़्म ‘नासूरी’ के पजों में क़ैद माइक छीना और हाल के कोने की तरफ़ दौड़े, जहां एक आदमी बेहोश पड़ा था।

            खंज़र मुस्कराये। जेब से परचा निकाला और वहीं बैठकर सुनाने लगे- मेरे प्यारे दोस्त, जहां ‘दाल’ बेघरबारी और जख़्म ‘नासूरी’ को तुमने झेल लिया वहीं मेरी चंद नज़्में भी कुबूल फरमा लो। उसके बाद चाहे बेशक मर जाना, नही रोकूंगा। तो सुनो-

          अंधा बांटे रेवड़ी गधा पंजीरी खाय।
          तेल कहीं दिखता नहीं राधा नाची जाय।
          गालहिं हाथी पाइये गालहिं हाथी पांव।
          गालहिं साधै सब सधै गाल जाय सब जाय।
          पैगाम यहां मैं नहीं नर्क का लाया।
          इस भूतल को ही नर्क बनाने आया।

            अभी और नज़्म पढ़ने के लिए ख़ंजर ‘रामपुरी’ पन्ना पलट ही रहे थे कि वह बेहोश आदमी अचानक उठा और बिजली की तेजी से भागने लगा। पर ख़ंजर इतनी आसानी से हार माननेवाले जीव न थे। वह भी पीछे-पीछे दौडे़।

            आगे-आगे भागता श्रोता पीछे मुड़-मुड़कर चीख़ता जा रहा था, ‘बचाओ’।

            बेसाख़्ता भागते ख़ंजर गिड़गिड़ा रहे थे- बस एक नज्म और।

(समाप्त)


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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