
जिस रोज नींव खुदी,
गाँव में लड्डू बांटे थे मैंने। कितने अरमान थे मन में ! सोचा-अब
यहाँ बड़े-बड़े आदमी आकर बसने लगे हैं। खूबसूरत हवेलियां बनती जा रही हैं। अपना फूस
का छप्पर भी तो कितनी बार तूफान में उखड़ा और बरसातों मे भात की तरह गल कर बैठ चुका
था।
बिरादरी के लोगों
ने ढेरों बातें बनाई थीं। सबसे ज्यादा बिगड़े थे ईसुरी चाचा। जहाँ बैठते,
बस यही कहते-महीधर तो सठिया गया है। सारी उमर छान तले गुजार दी अब
क्या चाटेगा हवेली को। घर फूंक तमासा दिखाएं तो दिखाओ भाई, हमें
कौन गरज पड़ी है कि किसी का कारज रोकें।‘
दुरगी मौसी की जबान
पर भी एक ही बात रहती। हर ग्राहक से खोद-खोद कर पूछती-‘पत्थर आ गए ?
ईंट बजरी कब आयेगी। सीमेंट तो छटांक भर नहीं मिलने का। चाहे देख
लेना। कहाँ-कहाँ दौड़-भाग करनी पड़ती है। किस-किस की खुशामत करनी पड़ती है, इस गंवई महीधर को क्या पता !
घर बनने की खबर
पाकर बाबा बड़े खुश हुए थे। चिट्ठी मिलने के सात-आठ रोज पीछे ही पहाड़ से चले आए। घूम-घूम
कर खुदी हुई नींव देखी उन्होंने और सिर हिला-हिलाकर खुशी जाहिर की। भले ही उनकी
आँखों में फूले पड़ गए थे पर थोड़ा बहुत फिर भी दीखता था। रोज सूरज उगता,
चाय का घूंट पीकर बाबा मकान पर चले जाते। किसीं बड़े पत्थर पर बैठ,
या घूम-घूम कर मजदूरों का काम देखते रहते। पीछे जब बीमार रहने लगे
तो आगंन में ही खाट बिछाकर पड़े रहते। तब भी बच्चों से पूछते-‘नींव पूरी भर गई ?’ बच्चों के “हां” कहने पर उनके होठों पर मुस्कराहट दौड़ जाती और
मुँह ढांक कर सो जाते।
जब से मकान पर काम
शुरू हुआ, सारा घर हंसी खुशी से भरा रहने लगा। लड़का खुशी-खुशी
बैल खोलकर पानी पिलाने ले जाता। छोटी परतिमा गुड़िया की तरह हंसती खेलती। बच्चों की माँ के
चेहरे पर भी हल्की सी मुस्कराहट छाई रहती। उसकी आँखों में चमक भी अब साफ-साफ दिखती थी। बड़ी लड़की के सास-ससुर और
दूसरे रिश्तेदार पंद्रह-बीस रोज में चक्कर लगा जाते। दामाद हर हफ्ते आकर हालचाल
पूछ जाता।
इसी बीच नींव भर गई।
चिनाई के लिए
सीमेंट नहीं था। मिस्त्री ने काम रोक दिया। मैं इसे बरदाश्त न कर सका। रोज सवेरे
उठकर शहर जाता। दफ्तरों के बाहर सांझ गए तक बैठा रहता। कोई कहता ‘अप्लीकेशन टैप’
कराओ। कोई कहता, अपने प्रधान से लिखवा के
लाओ। मै वैसा ही करता पर हर बार एक ही जवाब मिलता, “इस्टाक खतम है । अगले हफ्ते पता करना” ।
शहर आते-जाते मैं
देखता, बड़ी-बड़ी हवेलियों पर काम चल रहा हैं, कहीं नीवें भरी जा रही है,
कहीं चिनाई हो रही है, कहीं लिंटर और फर्श पड़
रहे हैं।
ये कहाँ से लाते हैं सीमेंट। मैं नहीं समझ
पाता। मुझे अफसोस जरूर होता कि इतनी जंगी हवेलियों का काम तो छिन भर भी नहीं रूकता
पर मेरे छोटे से मकान के लिए हर बार ‘इस्टाक’ ही खत्म हो जाता है।
मेरा उत्साह घटने लगा। शहर जाकर ‘इस्टाक’ का
पता करने को जी न चाहता। सवेरे उठते ही फावड़ा या पाठल लेकर खेतों की तरफ चला जाता।
पर मिस्त्री आकर चेता गया-चौमासे में चिनाई हो जानी चाहिए। लिंटर के वास्ते खूब
तरावट रहेगी। दो पैसे ऊपर लग जाएं कोई बात
नहीं । मकान रोज-रोज नहीं बना करते। और हाँ ! लोहा-लंगड़ भी लेके रख लो कौन जाने कल
भाव कितना हो जाए” ?
पर उस वक्त मैं खुद नही समझ
सका कि बिना ’इस्टाक’ के सीमेंट कहाँ मिल जाएगा ?
गेहूँ की लहलहाती फसल से मुझे उम्मीद थी। बड़ी
आशा से मैंने मशीन में गहाई करवाई,
पर गेंहू का भाव इस बीच धीरे-धीरे गिरता चला गया। महीना भर पहले ही
तो डेढ़ सौ का भाव था और अब अस्सी में भी कोई उठाने को राजी न होता। पन्द्रह मन के
कट-कटा कर साढ़े चार सौ मिल सके ।
बरसात शुरू हो गई। छप्पर जगह-जगह टपकने लगा।
बाबा की हालात बिगड़ती ही जाती थी। अभी आंखों का आपरेशन कराया था । पानी लगने से
बुखार चढ़ जाता। अब बात-बात पर चिड़चिड़ाने लगते।
बाबा की गिरती हालत देखकर मैं सोचता-कहीं वह
चैमासे में ही चल बसे तो क्या होगा। उस पर उनकी एक ही रटन कि लाश हरिद्वार ही
पहुँचाई जाए। जितने बरस हाड़ गंगा जी मे
रहेंगे तब तक तो स्वर्ग में रहूंगा। हरिद्वार ले जाकर बाबा बैकुण्ठ चले जाएंगे,
कहना मुश्किल था, पर इतना तो तय था कि इसमें
हजार बारह सौ का डांड़ जरूर पड़ जाएगा।
उधर दुरगी मौसी बोलती न थकती। बच्चा हो,
बूढ़ा हो या जवान, जो भी दुकान पर आता बिठा-बिठा
कर कहती, ‘महीधर सेठ
की हवेली बन गई ? सुना है जोरों का काम चल रहा है।’
ईसुरी चाचा के तो पौ बारह थे। जजमानों के
यहाँ जाते तो बात यहीं से शुरू करते ‘अरे हमने तो महीधर को पहले ही समझाया था,
पक्का मकान कोई हँसी खेल थोड़े ही है कि जो चाहे बना ले। हम न बना
लेते ? पर भाई महीधर का बुरा टैम आ गया। इधर मकान अधूरा पड़ा
है। उधर बाप दम तोड़ रहा है। भैंस पे टोक ऐसी लगी कि अच्छा भला पाँच सेर पक्का दूध देती थी, अब सुना है कि चाय भी लाल पीते हैं। तुम हम क्या
करें। ब्रह्मा की रेख तो कोई नहीं मिटा सकता।’
ईटों पर काई जम गई। पत्थरों का ढेर घास में
ढकता चला जा रहा था। बचा-खुचा चूना भी बारिश में बह गया। नींव के भीतर कमरों में
पनवाड़, जंगली पुदीने और भांग का जंंगल उग गया था। बारिश होती
तो कमरों में गंदा पानी भर जाता। कभी कोई भैंस आकर उसमें लोटती या कोई बैलों
की रास पकड़े वहाँ पानी पिलाने चले आते।
बड़ी लड़की के सास-ससुर इस बार देर से आए थे।
उनकी बातचीत में वह पहले वाली मिठास अब नहीं थी। उसके बाद तो उनका आना धीरे-धीरे
घटता ही चला गया। दामाद भी अब इतवार को एकाध चक्कर लगा जाता। पहले उसके चेहरे पर मुस्कराहट छाई रहती। अब तो कभी कभार
छठे छमाहे खड़े-खड़े आता और लाख मनाने पर भी बगैर कुछ खाए-पिए वापस चला जाता। लड़की चुपचाप सुसराल से आती थी। उसकी
आंखों में बेचैनी सी छाई रहतीं। पर पीछे तो कभी-कभी माँ से कह देती कि मकान पूरा
क्यों नहीं करते। आस पड़ोस वालों के मकान कब के पूरे हो गए।
वाकई आस-पड़ोस में तब से कितने ही मकान बन गए
थे । कच्ची सड़क के दोनों तरफ दूर तक रंग-बिरंगी हवेलियां खड़ी हो गई। उनके बीच में
मेरा ही मकान अधूरा पड़ा रह गया था।
पर उस दिन तो हद ही हो गई। मकान के ठीक बगल
वाले टुकड़े पर पिछले हफ्ते ही नींव खुदी थी। उनके ठेकेदार ने बगैर पूछे मेरे मकान
के कमरों पर ईट-पत्थरों का पहाड़ खड़ा कर दिया। बजरी, ईंटों से
लदे ट्रक एक तरफ से नींव भी उखाड़ गए।
बस ! मैं और अधिक न देख सका। मजबूर होकर आधी जमीन बेच दी । भले ही वह जमीन
मेरे कलेजे का टुकड़ा थी । इतने बड़े कुनबे का पेट इसी के आसरे पल रहा था। छाती पर
पत्थर रखकर रूपए हाथ में पकड़े। उस रात मुझसे एक भी कौर न खाया गया। कैसे खाया जाता
? रोटी तो छिन गई थी ! भला जिस्म का खून-पसीना जिस खेत ने पिया था- उसे
बेचकर भूख कैसे लगती ?
सीमेंट अब रातों-रात मेरे यहाँ पहुंच गया।
अगले ही रोज चैखटें और सरिये भी ठेली पर लद का आ गए। मिस्त्री काम पर जुट गये,
दीवालें उठने लगीं । मिस्त्री रातों रात
सीमेंट कहाँ से लाया, मुझे पता नहीं चल सका। हाँ इतना मैंने
जरूर पता कर लिया था कि ‘इस्टाक’ में अभी भी सीमेंट नहीं था।
इसी बीच गाँव धीरे-धीरे कितना बदल गया था?
कितने ही लोग जमीन बेच कर
चले गए। नानक, भोला, सीताराम और जाने
कितने साथियों की अब यादें ही बाकी रह गई। उनके बदले अब नए लोग गाँव में दिखाई
देने लगे थे, जो
गाँव वालों से मिलने में अपनी हेठी समझते थे।
धीरे-धीरे दीवालें ऊपर उठ गई। चौखटें-खिड़कियाँ
और रोशनदान लग गए। पर ईटें खत्म हो गई। बजरी और चूना भी। सीमेंट के भी दो तीन
कट्टे बचे थे। करीब चालीस कट्टों की और जरूरत थी। काम रूक गया।
दुरगी मौसी की दुकान पर अब बहुत कम लोग जाते।
अब वह हरेक से यही पूछती ‘महीधर भइया की तबीयत खराब सुनते थे, अब कैसे हैं ? दवाई-अवाई लेते हैं कि नहीं ?
ईसुरी चाचा का बरताव भी अब कितना बदल
गया था। कहीं बैठते तो उदास आवाज में कहते-‘अपने महीधर का मकान तो छूट ही
गया। इस मनहूस मकान की फिफर में घुल-घुल के बिचारा आधा भी नहीं रहा।’
बाबा की हालात इस दौरान बहुत गिर गई थी।
रात को बिस्तर पर उठकर बैठ जाते और घंटों खांसते रहते। कभी बाबा सोते हुए बड़बड़ाने
लगते- बेटा महीधर मकान का काम कैसा चल रहा है ?
आम पीपल के पत्तों की बन्दनवार बनाओ’। घरबैसा करना है । पर जब बाबा
जगे रहते तो मकान की बात तक नहीं करते थे।
पिछली आँधी-बरसात में मकान की एक चौखट
उखड़कर जमीन पर झुक गई। दीवालों पर जमी हरी काई अब सूख कर काली पपड़ियों में बदल गई।
गाँव के आवारा लड़के बल्लियाँ उखाड़-उखाड़ कर होली पर चढ़ा चुके थे। सारे दिन वे मकान
की दीवालों पर उछलते, कूदते रहते। कई ईटें
उखड़ कर गिर गई थी। पड़ोस के सूबेदार जी तो गर्मियों में अपनी भैंसें मकान के भीतर
ही लाकर बाँधने लगे थे। इसके लिए उन्होंने एक कमरे की दीवालों के ऊपर तिरपाल भी
बिछा दिया था।
पैसा खत्म हो गया,
पर अब मैं जमीन नहीं बेच सका था। मैं ही क्यों, बेटे, छोटी बेटी और बच्चों की माँ, कोई भी तो राजी न था जमीन बेचने के लिये।
घर के भीतर अब अजीब सी घुटन पैदा हो गई।
सबके उदास चेहरों पर सन्नाटे का परदा झूलता दिखाई पड़ता। कोई किसी से बात न करता।
लड़की चुपचाप गोबर उठाती, उपले थापती। लड़का
चुपचाप हल-बैल खोलकर खेतों पर चला जाता। बच्चों की माँ भी गुमसुम सी खाना बनाती,
दाल फटकती और खाली वक्त में दरांती उठाकर घास काटने चली जाती।
मिस्त्री आसाराम अब भी कभी-कभार बैठने आया
करता। बातों ही बातों में मकान का जिक्र भी आता तो वह बताता- सीमेंट और भी मिल
सकता है। इस पर मेरा जी उदास हो जाता। जी करता कि मकान की अब बातें भी न हों,
बनना तो रहा एक तरफ। पर फिर
भी आवाज को कड़ा करके मैं कहता, ‘ठीक है आसाराम, अबकी असाढ़ तक इसे पूरा कर देंगे। तब तक पैसों का भी इंतजाम कर लूंगा।’
उसी बीच एकाएक मेरी नजरें अधूरी खड़ी
दीवालों पर जा टिकतीं, जिनके पीछे शर्म से लाल,
डूबते सूरज का थका-हारा
गोला अपने आपको छुपा रहा होता। मैं यह नहीं देख पाता। आँखें थक हार कर वापस लौट
जाती और मैं चुपचाप भीतर चला जाता।
(समाप्त)
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