
ग़ाड़ी
चलने लगी थी. खिड़की से बाहर निकला मां का हाथ
तब भी हिल रहा था. इसी रेलवे स्टेशन पर तो
दो महीने पहले वह मां को लेने आया था. बीती
हुई घटनाएं भीतर कहीं ताज़ा हो उठीं.........
........
ट्रांसफर पर मुम्बई आने के बाद दो साल तक वह घर
नहीं जा सका. बहुत याद आती थी मां की. कैसी होगी ?
खाना-पीना टाइम पर मिलता होगा कि नहीं ? तीन
गाय, तीन बछड़ियां, एक जोड़ी बैल, एक बछड़ा ! इतने
जानवरों की सुबह उठ कर सानी करना, दूध दुहना, गोबर उठाना, फिर
उनके लिए बरसीम काट कर लाना, कुट्टी कटवाना, पानी पिलाना, अनाजों को धूप में सुखाना, और अगर वक्त मिला तो खेतों में निराई-गुड़ाई करना. उफ्फ ! कितने सारे काम हैं अठहत्तर साल की बूढ़ी मां के लिए ? कभी तबीयत खराब हो गई तो पानी
देने वाला भी कोई नहीं. एक घूंट चाय भी खुद ही बनानी पड़ेगी. ……..
रात
को खाना खाने से पहले वह रोज मां से फोन पर बात करता. तबीयत के बारे में पूछता.
हमेशा एक ही जवाब मिलता- मैं तो घर पर हूं. अपना बच्चों का और बहू
का ध्यान रखना. हरेक के साथ मिल जुल कर रहना.
छोटा
भाई कमल एक इंटर कालेज में लेक्चरर हो गया
था. तब से वह सिर्फ एक बार गांव आया था, वह भी
अपने विवाह के लिए. उसी ने प्रस्ताव रक्खा था कि गांव का
मकान और जमीन बेच देनी चाहिए. भला ये भी कोई जगह है ? न कहीं
स्कूल, न बिजली-पानी, न पक्की सड़क.
मां
को सुन कर बुरा लगा था. पहाड़ से आकर दिन रात मेहनत की थी दोनो ने,
तब जाकर वह घर-बार जुड़ा था. सभी भाई-बहन वहीं पैदा हुए, उसी जमीन का अन्न खाकर सब पले-बढ़े, उसे बेचने की बात
करना भी कितना तकलीफ दायक था ? पर बच्चों का भविष्य देखते
हुए मां को झुकना पड़ा.
जायदाद
बेच कर पैसा दोनो भाइयों ने बांट लिया था. उसने मुम्बई में टू बीएचके का फ्लैट बुक
कर लिया. करीब छह महीने पहले ही उसे पजेशन
मिला था.
उसे
तो पजेशन मिल गया, पर मां का सहारा छिन गया. उसके अच्छे –बुरे दिनों का साथी वह कच्चा घर,
वे खेत, जिन पर कई बरस तक उसका पसीना पानी की
तरह बहा, वे आम, अमरूद,. केले के पेड-जिन्हें उसने खुद अपने हाथ से रोपा था – जहां पिताजी के
स्वर्गवास के बाद भी मां सुकून से जिंदगी बिता रही थी- अब किसी और के हो चुके थे.
मां,
अब तू कहां रहेगी ? चल मेरे साथ. मेरे पास
बहुत बड़ा घर है. सारी सुख सुविधा है वहां. बच्चों के साथ तेरा मन भी लगा रहेगा-
छोटे भाई ने मां के आंसू पोंछते हुए कहा
तो वह मान गई .
अभी
मुश्किल से तीन महीने ही बीते होंगे कि “उसके”
मोबाइल पर मां का फोन आया. रोते हुए कह रही थी – बेटा ! मास्टर कहीं बाहर गया हुआ
है. बहू बच्चे बात नहीं करते. घर के बाहर एक कोठरी है,
उसी में पड़ी रहती हूं. यहां
कोई अपना-पराया भी नहीं दीखता. दो बात भी किसके साथ करूं? मैं तो गांव में ही ठीक थी.
मां
की बात सुन कर उसका जी भारी हो गया. उसने धीरज बंधाते हुए कहा था -फिकर मत कर मां. मेरे रहते तुझे कोई परेशानी
नहीं होगी. मैं बहू को कहता हूं. तुझे मेरे पास भेज देगी. बस अब मत रो........
इसी
स्टेशन पर करीब दो महीने पहले ही तो आया था “वह” मां को लेने. ट्रेन से उतर कर वह इधर उधर टुकुर–टुकुर
देख रही थी. “उसे” देखते ही गले मिल कर
रोने लगी थी. वह भी चुपचाप मां की बांहों में सिमटा रहा. उसकी आंखों से गिरते गर्म
आंसुओं को अपनी पीठ पर महसूस करता रहा.
पारूल,
निमिषा और चिन्मय - सभी ने
मां के पैर छुए और आशीर्वाद लिया. चाय- नाश्ते के दौरान गांव की पुरानी
यादें ताजा होने लगीं. उस दिन मां के लिए टमाटर का सूप, दलिया,
अरहर की पसंदीदा दाल तथा तवे की पतली पतली रोटियां बनीं. सभी ने मां के साथ नीचे बैठ कर खाया. निमिषा ही
दादी की सबसे प्यारी थी. उसी के कमरे में मां का फोल्डिंग पलंग बिछाया गया.
एक
हफ्ता हंसी-खुशी में कब बीत गया- पता ही न चला. पर निमिषा अब कुछ कम बोलने लगी थी.
ममी के बार बार पूछने पर एक दिन उसने बता ही दिया - दादी
देर तक जागती रहती है और पुरानी बातें सुनाया करती है. मुझे हां में हां
मिलानी पड़ती है. पढ़ाई में डिस्टर्ब होता
है. सोने के बाद भी उनके खर्राटों की आवाज
से मेरी नींद टूट जाती है. स्कूल में जम्हाई आती रहती हैं. अच्छे नम्बर नहीं आए तो
सबसे पहले आप ही डांटोगे.
पारूल
का कहना था कि अगर निमिषा की पढ़ाई में मां की वजह से डिस्टर्ब हो रहा है तो कोई
प्रैक्टिकल डिसीजन लेना ही पड़ेगा. सेंटीमेंटल होने से काम नहीं चलेगा. कहीं
एड्मिशन लेने जाओ, मेरिट कितनी हाइ जा रही है ?
कहां से लाएंगे इतना डोनेशन ?
सुन
कर भी वह खामोश बना रहा. फिर पारूल ने ही सुझाव दिया- क्यों न मांजी का पलंग स्टोर में शिफ्ट कर दें. निमिषा
की प्रॉब्लम हल हो जाएगी. मांजी भी देर रात तक जाग सकती हैं.
सुझाव
उसे भी ठीक लगा. अगले दिन ही मां जी को स्टोर में शिफ्ट कर दिया गया. ज्यादातर सामान अल्मारियों मे आ जाने से
काफी जगह बन गई. दिक्कत यही थी कि ताजी हवा के लिए स्टोर मे कोई खिड़की या रोशनदान
नहीं था. पर निमिषा के भविष्य के सामने यह छोटी सी बात थी. सब का यही कहना था कि इस उम्र में वेंटिलेशन
की खास जरूरत नहीं है.
एक
बार फिर सब कुछ सामान्य हो गया. मां ज्यादातर समय अपने कमरे में ही रहती. सवेरे सबसे पहले उठकर नहा धोकर
देर तक पूजा-पाठ करती.फिर दस ग्यारह बजे तक नाश्ता करती.
चिन्मय
की भी यही आदत थी. सुबह सबसे पहले उठ कर टॉयलेट जाता,
नहाता और फिर स्कूल के लिए तैयार होने लगता. एक सुबह वह बिना नाश्ता
किये स्कूल जाने लगा. ममी ने पूछा तो कहने लगा दादी ने पूरा टॉयलेट गंदा किया हुआ
था. वह न ठीक से फ्रेश हुआ और न नहा पाया. वैसे भी दादी टाइम ज्यादा लेती है. तीन-चार
दिन से लेट हो रहा हूं. टीचर ने वार्निंग दी है. अब लेट हुआ तो एग्जाम में नहीं
बैठ पाऊंगा.
पारूल
ने चिन्मय की समस्या “उसके” सामने रक्खी. समाधान भी पारूल ने किया. मां को कहीं जाना
नहीं होता. वह नौ बजे के बाद भी फ्रेश हो सकती हैं. बच्चों के स्कूल जाने के बाद
तो दिन भर टॉयलेट खाली ही रहेंगे.
मां
को उसी वक्त यह बात बता दी गई. जवाब में वह इतना ही बोली,
“ ठीक है बेटा”.
इसके
बाद मां का बोलना और भी कम हो गया. वह चुपचाप नौ बजे तक कमरे में पड़ी रहती. फिर दस
ग्यारह बजे तक पूजा-पाठ से निपट कर नाश्ता करती,
जो तब तक ठंडा हो चुका होता.
उस
दिन इतवार की छुट्टी थी. बाई वाशिंग मशीन
में कपड़े डाल रही थी. पारूल को पास खड़ी देख कर बोली, बीबी जी,
मांजी के कपड़ों से बदबू आती है. उनमें मैल भी ज्यादा रहता है. मेरी मानो
तो बच्चों के कपड़ों के साथ किसी के कपड़े मशीन में न डाले जाएं.
-
ठीक तो है. मांजी के कपड़े
हाथ से धो दिया कर.
पारूल की बात मांजी के कानों तक पहुंच गई थी. उस रोज से
अपने कपड़े मांजी खुद ही धोने लगी.
हफ्ते दस दिन ही बीते होंगे कि बाई महीने भर की छुट्टी पर गांव चली गई. पहले रोज
ही वाश बेसिन में जूठे बर्तनों का ढेर लग गया. वाशिंग मशीन के पास गंदे कपड़ों का
अम्बार लगा था. झाड़ू पोचा न होने से जगह
जगह कूड़ा करकट फैला हुआ था. झाड़ू लगाते हुए पारूल बड़बड़ाती जा रही थी- जाने किस बुरी
घड़ी में मैं इस घर में आई. किसी का एक गिलास पानी तक का सहारा नहीं. दिन भर बाहर की नौकरी करो. रात भर घर की !
तभी
उसकी नजर पूजा से बाहर आती मां जी पर पड़ी. झाड़ू छोड़ कर वह चीखने लगी - आप भी तो छोटे मोटे
काम कर सकती हो ! गांव में तो दरजन भर आदमियों का खाना बरतन करती थी. पांच सात
जानवर भी थे. यहां जरा सा झाड़ू तक नहीं लगता
आपसे ?
“वह”
बालकनी में बैठा अखबार पढ़ रहा था. मां उसके सामने गई और चुपचाप खड़ी हो गई. उसने भी तैश में आकर कहा- ठीक तो है. झाड़ू-पोचा
आप भी कर सकती हो मां. आपका भी टाइम कट
जाएगा.
मैली
धोती के खिसक आए सफेद पल्लू को सिर पर खींचते हुए मां ने बहू के हाथ से झाड़ू ले
लिया और किसी अपराधी की तरह गुनाह कबूल करते हुए बोली- ठीक कहते हो बेटा, इतना काम तो मैं भी बड़े आराम से
कर सकती हूं. अब बाई आएगी तो उसे मना कर देना. काम है ही कितना ? थोड़े से बरतन, झाड़ू-पोचा, कपड़े
और जरा सा नाश्ता ! मेरे से जितना हो सकेगा कर लूंगी.
फिर
मां खामोशी से झाड़ू बुहारने लगी.
धीरे
धीरे घर के सारे काम मां के हाथों में आ गए. बाई की छुट्टी हो गई. सबके जाने के
बाद मांजी झाड़ू पोचे में जुट जाती. जूठे बरतन धोती,
सब्जियां काटती, आटा गूंध कर रख देती, पारूल ने वाशिंग मशीन चलाना सिखा दिया था. धुले कपड़े मशीन से निकाल कर मां
धूप में सुखाने रख देती.
छुट्टी
के रोज पूरा परिवार कहीं न कहीं घूमने निकल जाता. मांजी घर में अकेली रह जाती. अब वह
बहुत कम बोलती थी. उसकी तबीयत भी खराब रहने
लगी थी. उसे अस्पताल ले जाने में भी तमाम झंझट थे. वह खुद ही केमिस्ट से पूछ कर
दवा ले आता था. कुछ दिन आराम होता, फिर मां को
कभी बुखार, कभी दस्त,
कभी सिर दर्द शुरू हो जाता.
एक
शाम को ऑफिस से लौटते ही पारूल ने बताया कि आज मांजी पार्क की तरफ घूमने निकली थी.
तभी वाचमैन ने दौड़ कर चिन्मय को बताया कि दादी
पार्क में बेहोश पड़ी हैं. चिन्मय दोस्त के
साथ साइंस प्रोजेक्ट बना रहा था. सारा काम
छोड़ कर फौरन पार्क गया और बड़ी मुश्किल से
रिक्शा करके दादी को घर लाया.
सुन
कर उसे मां पर बेहद गुस्सा आया. स्टोर में
जाकर वह चीखने लगा, “ तबीयत खराब थी तो पार्क में क्यों गई” ? ऐसी भी क्या जल्दी पड़ी थी घूमने की ? कुछ हो जाता तो ?”
कुछ
नहीं बोली मां. गुमसुम बैठी रही. रात को खाना
भी नहीं खाया.
अगले
दिन शाम को जब वह दफ्तर से लौटा तो डरते डरते मां पास आई और बोली,
“मैं कुछ रोज मास्टर के
पास जाना चाहती हूं.”
-
ठीक है. बात करता हूं – कह
कर उसने कमल को फोन मिलाया. देर तक दोनों बात करते रहे.
फिर मुस्कराकर उसने मोबाइल
बंद कर दिया और मां से बोला – मास्टर कहता है फौरन भेज दो. चार दिन बाद सोमवती अमावस है. मां को संगम पर गंगा
स्नान भी करा दूंगा .
मां
बेहद खुश हो गई और अपना सामान समेटने लगी..........
परसों
ही तो मां को इलाहाबाद जाने वाली ट्रेन पर बिठाया था उसने. एक चिट्ठी भी लिख कर मां
की जेब में रखते हुए बोला था वह- इसमें मास्टर का पता और नम्बर है. उसे आने में देर हो जाय तो स्टेशन पर किसी को भी दिखा देना..........
अगले
रोज छुट्टी थी. सुबह की धूप में नाइट गाउन पहने आराम कुरसी पर बैठा वह अखबार पढ़
रहा था.
अचानक एक खबर पढ़ कर वह चौंक गया. खबर इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर पड़ी एक लावारिस लाश के बारे में थी. लाश की जेब से एक कागज बरामद हुआ था, जिस पर लिखा था- यह औरत बेसहारा है. इसका कोई नहीं है. जिस किसी सज्जन को मिले, कृपया अनाथालय तक छोड़ आए. भगवान भला करेगा.
अचानक एक खबर पढ़ कर वह चौंक गया. खबर इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर पड़ी एक लावारिस लाश के बारे में थी. लाश की जेब से एक कागज बरामद हुआ था, जिस पर लिखा था- यह औरत बेसहारा है. इसका कोई नहीं है. जिस किसी सज्जन को मिले, कृपया अनाथालय तक छोड़ आए. भगवान भला करेगा.
(समाप्त )
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