
इस शहर में आये उसे
अरसा बीत गया है वह कौन है, कहाँ से आया है - कोई
नहीं जानता। रेस्तरां की मेज पर हथेलियां टिकाये,
दीवारों पर पोस्टर चिपकाते हुए या फिर सड़क के किनारे-किनारे खामोशी से
टहलते हुए देखा जा सकता है उसे। अथाह भीड,
शोरगुल भरे और अपने में डिजाल्व कर लेने वाले महानगर के बीचों बीच,
लेकिन एक दम अलग, अपना अस्तित्व बचाये। मैली पोशाक के बावजूद उसकी
चाल में एक खास तरह का अलगाव है। साथ ही गहरा आत्मविश्वास भी।
समझदार लोग अपने
बौद्धिक स्तर पर उसे चिढ़ाते हैं- ‘तुम काम क्यों नहीं करते ?
क्या तुम देश पर भार नहीं हो’ ?
इससे उसे ठेस जरूर पहुँचती है। लेकिन उसकी आँखें छलछलाती नहीं। पूछने का
तरीका उपदेशात्मक है न, लेकिन वह सिर नीचा किये, पैर के अंगूठे से घास भी तो नहीं उखाड़ता। उल्टे
मुस्करा कर पूछ बैठेगा।
- ‘‘श्रीमान जी,
अगर आप उपदेश देने बजाए मुझे काम दें तो ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा क्या?
- ‘‘काम!’’ आप हड़बडा जाते
हैं -करने वाले को काम की कमी है ?
-‘‘जी हाँ ! वह उसी सहजता
से, बिना उत्तेजित हुए कहेगा-‘‘अगर आप एक शरीफ और
नेक इन्सान हैं तो आपके लिये काम की कमी है।’’
आपके पास अपना-सा मुँह
लेकर भीड़ में शामिल हो जाने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता। भीड़ जो या तो उसकी
तरफ से लापरवाह है, या फिर उसे और उसकी कई
पीढ़ियों को जी भर कर गालियाँ दे सकती है।
पिछले कई बरसों से वह
इसी तरह जिन्दगी की कूड़ा-गाड़ी खींचता आ रहा है। हाँ कम-से-कम खुद की जिन्दगी को
प्यार का नगमा या फिर सुहाना सफर मानने में उसे जबरदस्त एतराज है।
प्यार का जिक्र हुआ तो
वह दूसरी तरफ मुँह फेर लेगा। ताकि उसकी अग्नि-कुण्ड सी आँखों से उठती लपटों को आप
देख न पायें ! लंगड़ा कर चलते कुत्ते की
तरह उसकी आहत चेतना को भोगे हुए अतीत से गले मिलते आप न देख पायें ! अतीत का वही टुकड़ा जिसमें वह पोस्टर चिपकाने
वाला, चाय के रेस्तराओं में सिर थाम कर बैठा या काले
विषधर सी लंबी सड़कों पर फूंक-फूंक कर पांव रखता यातावर नहीं,
महाविद्यालय में पढ़ता एक छबीला नौजवान है।

महाविद्यालय, जहाँ लड़के-लड़की को एक दूसरे के करीब आने का, एक दूसरे को सावित्री व सत्यवान के नवीनतम संस्करण सिद्ध करने का भरपूर अवसर मिलता है। आप आसानी से ऐसे दृश्यों की कल्पना कर सकते हैं-कालेज से भाग कर वनों-उपवनों, हरे-भरे घासीले चरागाहों में स्वछन्द विहार करते महान प्रेमी, प्रेम के अलौकिक सुख सागर में डूबते-उतरते, दुनिया की तमाम चिन्ताओं से मुक्त, कल-कल करती नदी के शीतल पानी में पांव डाले, एक दूसरे का सिर अपनी गोद में रखते हुए मरकर भी अलग न होने की कसमें खाते-खिलाते, और यह सिद्ध करने की जी तोड़ कोशिश करते हुए कि पिछले सैकड़ों जन्मों से वे एक दूसरे के रहे हैं और आगे भी रहेंगे।
प्यार का जिक्र चलता है
तो आपकी कल्पना उसके चेहरे पर उभर आती है,
कि सावित्री ने जन्म-जन्मान्तरों का उसका साथ छोड़ कर किसी खाते-पीते घर के
अच्छी सर्विस वाले सत्यवान से विवाह कर लिया होगा।
फिर उसके बाद !
खैर जाने भी दीजिये..........।
दिसंबर जनवरी की
बर्फीली, ओस भरी रातें वह कहाँ और कैसे गुजारता है, किसी ने भी जानने की
कोशिश नहीं की। रात गए तक टी-स्टाल की बेंचों पर सिर झुकाए किसी अंजाने संसार में खोया रहता है वह।
धीरे-धीरे सड़कें सूनी हो जाती हैं। चाय के कॉर्नर,
रेस्तरां, खाने-पीने के होटल बंद
हो जाते हैं। दुकानों के शटर गिर जाते
हैं। रोशनियाँ गुल होने लगती हैं। सारा बाजार खामोश हो जाता है, मौत के सन्नाटे की तरह।
तब बेंचों से उठ कर सोए
अजगर सी गुमसुम सड़कों पर उतर आना पड़ता है उसे,
यों ही निरूद्देश्य भटकते चले जाने के लिए।
रात गहराने लगती है।
खामोशी और सर्दी का असर बढ़ता जाता है। उसके जबड़े किटकिटाने लगते हैं। पतले
कुर्ते-पतलून में छिपा बीमार शरीर कांपने लगता है। फिर हमेशा की तरह उसके यन्त्र
चालित पैर बढने लगते हैं एक खास सड़क पर, जो उसे सब्जी मण्डी के वीरान अहाते में ला खड़ा
करती है। बिजली की रोशनी में तब अपना भोजन बटोरता हैं वह। गोभी के गले हुए पत्ते,
डंठल, सड़े हुए टमाटर,
केले के छिलके और चाट की जूठी पतलें- यही है उसका भोजन,
जिसे वह पास के ही बगैर टोटी वाले सार्वजनिक नल पर धोता है और फिर बड़े सब्र
व इत्मीनान के साथ बैठ कर खाता है। फिर भरपेट पानी पी कर धीरे-धीरे पार्क की तरफ
जाने वाली अंधेरी सड़क पर बढ़ जाता है।
खजूर के पेड़ों की सीधी
कतारों और मोरपंखी के खूबसूरत झाड़ीनुमा पेड़ों के बीच बनी सीमेंट की बेंच ही उसका बिस्तर हैं
जिनमें लेटकर तारे गिनते-गिनते सो जाने का अच्छा अभ्यास हो गया है उसे। कई बार ऐसा
भी होता है कि बुखार या पेट की पीड़ा के कारण नींद नहीं आ पाती, और इसी सदंर्भ में उसे पिता की याद आ जाती है जो
ऐसे मौकों पर अपने हाथों का बना ज्वरांकुश रसायन उसे दिया करते थे। छू मंतर की तरह
उसका बुखार और सारा दर्द हवा हो जाता था।
पिताजी उसे बताते कि
थोड़े से दिनों के बाद हम पहाड़ जायेंगे अपनी बड़ी माँ के पास।
उसका अबोध मस्तिष्क
सोचने लगता-बड़ी माँ कैसी होती है! क्या वह खूब ऊँची,
पहाड़ जैसी होती है ? गुलिवर जैसी ?
अपनी किताब में पढ़ा हुआ गुलिवर का पाठ उसकी कल्पना में तैरने लगता। एक
विशालकाय स्त्री का आकार। वह स्त्री ममता भरी नजरों से निहारती है उसे,
फिर बढ़कर अपने हृदय से लगा लेती है। एक प्यार भरा गर्म-चुम्बन उसके गाल पर
टांक देती है। वह हड़बड़ा कर बगल में लेटे पिता से लिपट जाया करता,
और गम्भीर भाव से दूर कहीं दृष्टि गड़ाये कहता - पिताजी,
बड़ी माँ बहुत अच्छी होती है न।
उसे याद है वह सब कुछ भी।
पिताजी उसे घुमाने ले जाया करते हैं। दूर घाटी तक। हाँ हरी-भरी घाटी,
जिसके ढलान पर चरते हुए ढोर बहुत अच्छे लगते हैं। घाटी की तलहटी में
अंगड़ाती विशाल नदी, दूर-बहुत दूर तक फैली हुई। दूसरी तरफ साल के घने
जगलों का बना क्षितिज, जिस पर रोज शाम को सूरज
का लाल गोला आकर ठिठक जाता है।
उसी क्षितिज के करीब
अपना छोटा-सा गाँव, छोटा-सा घर,
थोड़ी-सी जमीन, जिसे उसके पिता खुद जोतते, अब वह जोतने लगा है। पास ही खड़े पिता से जब वह
पूछ बैठता है कि ‘‘क्या इन्सान बगैर अनाज के जीवित नहीं रह सकता ?
क्या हम ऐसी टेक्नीक का विकास नहीं कर सकते,
जिससे कि हम भोजन से ऊर्जा लेने के बजाय सीधे-सीधे प्रकृति से ही उसे खींच
सकें । ऐसे अवसरों पर उसने पिता को मौन हो जाते हुए पाया है। मौन जो आधी स्वीकृति
होता है।
अपनी भोली-भाली गाय,
और अनार तले बंधी उसकी खूबसूरत बछिया- जिन्हें बारिश बूंदी पड़ने पर वह खुद
भीतर बांधता है। अपने हाथों मशीन से चारा-बरसीम काट कर उन्हें खिलाता है और सोचता
है - क्या ‘गुरूत्वाकर्षण’ शक्ति से चलने वाली
मोटर नहीं बनाई जा सकती ? आखिर यह भी तो शक्ति का
ही एक रूप है।
फिर,
बछिया के गले में बाहें डाल,
दिये की टिमटिमाती लौ में, अपने प्यारे वैज्ञानिक अल्बर्ट
आइंस्टाइन की आपेक्षिकता का अभिप्राय पढ़ता है। दूध दुहती माँ मुस्करा कर डांटती है
- साइंस की किताब गोशाला में गाय-बैलों के बीच बैठ कर नहीं पढ़ी जाती। वह मुस्करा
कर कहता है - विज्ञान की पैदायश कुदरत की गोद में ही होती है माँ । परखनलियों में तो उसका विकास होता है ।
पुरानी यादों का
सिलसिला अक्सर यों ही टूटता है। तारों से चमकते आकाश पर धीरे-धीरे काले बादल छाने
लगते हैं। कलेजा हिला देने वाली गड़गड़ाहटों के साथ बिजलियां चमकने लगती हैं और
धाराषार बारिश होने लगती है। सीमेंट के ठंडे बैंच पर वह उसी तरह पड़ा रहता है । निष्चेष्ट
। सहता रहता है बारिश की ठंडी व चुभने वाली बौछारों को । उसे लगता है- यह महानगर नहीं, एक लाश है,
बारिश की धाराओं की चोट से बेखबर लाश ।
अपने गाँव की बरसात तो
इतनी नीरस और उबाऊ नहीं होती थी। हाँ ! बादल ऐसे ही होते थे,
काले-भूरे । सारसों की उड़ती
लम्बी-लम्बी पांतें बादलों से छाए आकाश पर
खूब भली लगतीं । ऊँचे, बहुत ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों
की गर्वीली चोटियाँ धीरे-धीरे बादलों के पीछे अदृश्य हो जाती और फिर होने लगती
बारिश। धानों की लहलहाती, हरी-भरी क्यारियाँ पानी
से लबालब भर कर फूट पड़तीं। खुशी से पागल खंजन और फाख्ता चिड़ियां बारिश में ही उड़ने
लगतीं, फुरफुराती हुई.........।
.......... वर्तमान की
सारी तकलीफों, सारी पीड़ाओं को ये मीठी
यादें भुला देती हैं। पलकें भारी होने लगती हैं और वह गहरी सांस छोड़ ठंडे़ सीमेन्ट
के बेंच पर सो जाता है।
कभी-कभी उसकी नींद टूट
जाती है। चाँद की फीकी रोशनी में वह आस-पास की बेंचों पर नजर घुमाता है,
और हमेशा की तरह उन, बड़बड़ाते लोगों की
अजीबों-गरीब आवाजें सुनता है। कहीं किसी बैंच से कराहने की आवाज आती हैं,
तो कहीं कोई छाया उठ कर बेचैनी से ठिठुरते हुए टहलने लगती है। कहीं से किसी
भूखे बच्चे की रोने की आवाज आती है तो कहीं से किसी अधेड़,
विक्षिप्त पुरूष के धीमे-धीमे सिसकियाँ भरने की आवाज। उसे लगता है- इस शहर के
भीतर ही, एक और शहर छुपा है उसके जैसे-लोगों का शहर। शाम
जैसे-जैसे गहराती है, महानगर खामोश होता जाता
है और धीरे-धीरे पार्क के इन झुरमुटों के अंधेरों में खुलने लगता है एक दूसरा शहर।
उसके जैसे भटके हुए कई जन्तुओं का शहर,
जिसमें छोटे -बड़े, बच्चे-बूढ़े, अधेड़, औरत-मर्द,
बीमार कुत्ते और जाने कितने ही दूसरे जीवधारी शामिल होते हैं।
अंधेरे की काली चादरें
ओढ़े अपनी-अपनी जगह आकर हर कोई लेट जाता हैं। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं। कोई
मतलब नहीं। कौन कहाँ से आया है। क्यों आया है। कब लौटेगा। कोई नहीं पूछता किसी से।
और हर सुबह जब बड़ा शहर
नींद से जाग जाता है, यह छोटा सा शहर अपने आपको समेट कर छिप जाता है
गलियों में, बिखर कर फैल जाता है
चाय की मेजों पर, टहलने लगता है सड़क पर, दीखने लगता है- पोस्टर
चिपकाते हुए या फिर हाथ पसार कर भीख मांगते हुए। अंधेरों के साये में उगने वाले इस
बाजार में कोई किसी का बाप नहीं। कोई किन्हीं आंखों का तारा नहीं,
कुल का दीपक नहीं ! इस अंधी दुनिया में किसी को किसी से ईर्ष्या नहीं, किसी को किसी से कोई
शिकायत नहीं !
दिन में जब वह सड़क पर
टहल रहा होता है या चाय के स्टाल के किनारे खड़ा होकर चाय पीते लोगों को देखता है
तो कोई-कोई पूछ बैठता हैं-तुम काम क्यों नहीं करते। क्या तुम देश पर भार नहीं हो ?
इस पर बड़े शहर के
बुद्धिजीवी की तरह वह उत्तेजित नहीं होता। वह कहना चाहता है कि अगर आप छोटे शहर के
नेक और शरीफ इन्सान हैं तो आपके लिये काम नहीं है।

इस महानगर में वह चुपचाप बैठने नहीं आया था-याद करके वह मुस्कराता है, पीड़ा भरी मुस्कराहट। अपने सर्टिफिकेट लेकर वह कई दफ्तरों में घूमा था। एक-एक दिन में दस-दस दफ्तरों में। वह बड़े उत्साह से पूछता-साहब क्या मैं आपके किसी काम आ सकता हूँ। मेरी क्वालिफिकेशन बी.एससी. है। इसके जबाव में कभी-कभी उसे उपहास सुनना पड़ता-यहाँ तो पोस्ट ग्रेजुऐट तक खाली घूम रहे हैं, आप हैं किस खेत की मूली ? या फिर-‘‘मैं तुम्हारी सिच्वेशन समझता हूँ जेंटलमैन बट व्हाट केन आई डू ? अभी फिलहाल कोई पोस्ट वैकेंट नहीं है । अपना नाम व एड्रेस दे जाइये। आई विल डू माई बेस्ट।

इस महानगर में वह चुपचाप बैठने नहीं आया था-याद करके वह मुस्कराता है, पीड़ा भरी मुस्कराहट। अपने सर्टिफिकेट लेकर वह कई दफ्तरों में घूमा था। एक-एक दिन में दस-दस दफ्तरों में। वह बड़े उत्साह से पूछता-साहब क्या मैं आपके किसी काम आ सकता हूँ। मेरी क्वालिफिकेशन बी.एससी. है। इसके जबाव में कभी-कभी उसे उपहास सुनना पड़ता-यहाँ तो पोस्ट ग्रेजुऐट तक खाली घूम रहे हैं, आप हैं किस खेत की मूली ? या फिर-‘‘मैं तुम्हारी सिच्वेशन समझता हूँ जेंटलमैन बट व्हाट केन आई डू ? अभी फिलहाल कोई पोस्ट वैकेंट नहीं है । अपना नाम व एड्रेस दे जाइये। आई विल डू माई बेस्ट।
‘‘थैंक्यू सर,
मैनी थैंक्स टुयू’’ कहता हुआ उदास मन, गर्दन लटकाये यह बाहर
निकल जाता।
धीरे-धीरे असर करने
वाले जहर की तरह उसका उत्साह ठंडा पड़ता गया। भूखों मरने की नौबत आने लगी। तब उसे
लगा, बड़ा आदमी बनना इतना आसान नहीं। पहले छोटा आदमी बनना
पड़ेगा। इसलिये उसने दीवारों पर सिनेमा वगैरह के इश्तिहार चिपकाने का काम शुरू कर
दिया। इसी के साथ उसने प्लास्टिक की टूटी चप्पलें और अखबारों की रद्दी बेचने का
काम भी शुरू किया। कभी मकानों की पुताई के छोटे-मोटे ठेके लिये तो कभी रिक्शा भी चलाया।
पिछले कुछ महीनों से यह
सब कुछ भी छोड़ दिया है उसने। निराशा का स्लो पॉयजन उसके रेशे-रेशे में घुस चुका
है। लोगों ने काम तो खूब दिया पर, उस कड़ी मेहनत का,
उसके खून पसीने का पैसा नहीं लौटाया । अब उसे अच्छी तरह यकीन हो चला है कि
अगर आप एक शरीफ इन्सान हैं तो आपको काम की कमी है।
-
हैलो मिस्टर लो चाय पियोगे ? आज कुछ ठंडा है न ?
लम्बे चिकने बालों वाला
एक आदमी उसकी तरफ मुड़ता है। गरमा गरम चाय की प्याली उसकी तरफ बढ़ाता है । वह चुपचाप
चाय पीने लगता है।
- क्या तुम बताना पसंद
करोगे कि तुम कौन हो? इस शहर में कहाँ से आये
हो ?
ऐसे सवाल उसके अंधे शहर का आदमी तो नहीं पूछता !
इन सवालों के जवाब देने का वक्त बहुत पहले गुजर चुका है। उसे लगता है कि वर्तमान ही
सच है। जो बीत चुका है या फिर जो अभी होना है उसके बारे में सोचना अब बेकार है।
चिकने बालों वाले
व्यक्ति आप भी हो सकते हैं ! उसे आप कह सकते हैं - तुम भगोड़े हो। कायर पुरूष
हो। तुमने जिम्मेदारियों से बचने के लिये ही भटके हुए इन्सान का स्वांग भरा है।
इस बात से उसे ठेस
पहुँचती है। वह अपने अतीत पर नजर दौड़ाने पर मजबूर हो जाता है। और जब उसे कोई गलती नजर नहीं आती तो
एक ठंडी आह भर कर धीरे से कहता है-
‘‘नहीं मैं भागा नहीं
था’’!
(समाप्त)
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