व्यंग्य-राष्ट्रीय दामाद पर निबंध

            हमारे देश की कई राष्ट्रीय पहचानें हैं, जैसे बरगद-हमारा राष्ट्रीय पेड़, हाकी-हमारा राष्ट्रीय खेल, मोर-हमारा राष्ट्रीय पक्षी, चीता-हमारा राष्ट्रीय पशु, जन गण मन-हमारा राष्ट्रीय गान, वंदे  मातरम-हमारा राष्ट्रीय गीत, और तिरंगा-हमारा राष्ट्रीय झंडा । वैसे सुना है अपने यहाँ राष्ट्र-पिता नाम का प्राणी भी हुआ था, पर संविधान बनाने वालों को शायद वह दिखाई नहीं पड़ा होगा, तभी उस जंतु का हमारे संविधान में कोई जिक्र नहीं है। और जब संविधान में जिस चीज़ का जिक्र नहीं है तो वह हो कैसे सकती है ? हम कोई देशद्रोही थोड़े  ही हैं कि सविधान के खिलाफ जाएं ? आखिर हम सब संविधान के लिए ही तो बने हैं। उन सिरफिरों की बातों में मत आइये, जो कहते फिर रहे हैं कि संविधान जनता के लिए होता है। यह बात सोलह आने झूठ है। सच यह है कि जनता संविधान के लिए होती है। और संविधान के रखवाले हमारे वो माननीय  सांसद होते हैं जिन्हें संसद के भीतर जनता के लिए कुर्सियों के हत्थे उखाड़ते, हाथापाई करते तथा जनता के लिए गालियों की धारा मुक्त कंठ से बहाते टीवी पर देखा जा सकता है।

            वैसे तो संविधान में एक और अति अति महत्वपूर्ण हस्ती का जिक्र छूट गया है। पर देखिए, संविधान उस हस्ती के बारे में मौन है। पर हम सभी बचपन से पढ़ते आए हैं कि मौन आधी स्वीकृति होता है। हो सकता है कि संसद के किसी आने वाले संत्र में संशोधन के जरिये इस प्राणी को संविधान के पन्नों मे जगह मिल जाए। वह प्राणी है-राष्ट्रीय दामाद।

            तो यह तो हुई संविधान में हमारे राष्ट्रीय दामाद की स्थिति। अब हम राष्ट्रीय दामाद का सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करेंगे।

            जहाँ तक हमारी क्षुद्र बुद्धि जाती है-राष्ट्रीय दामाद नामक डेल्टा वेरिएंट अब तक केवल भारतीय समाज में ही आइडेंटीफ़ाई हुआ है। पहले किसी जमाने में हमारे देश की संपन्नता रूपय की कीमत से आँकी जाती थी। पर अच्छा हुआ कि आज वे पुरानी मान्यताएँ खत्म हो गई हैं। अब हमारे देश की खुशहाली आँकी जाती है हमारे राष्ट्रीय दामाद की खुशहाली से। उसकी हर अदा, उसका हर अंदाज़ शाही होना चाहिए। अगला मालिक अगर खेले तो सिर्फ गोल्फ और बिलियडृर्स। ये क्रिकेट हाकी, टेनिस फुटबाल जैसे दौड़-भाग वाले टुच्चे खेल न खेले। चालीस पचास लाख की गाड़ियों में बैठ कर वह देश की इज्जत पर बट्टा न लगाए। शुरूआत वह लोंबोगिनी, लेमोजिन आदि से करे, और फिर धीरे-धीरे राल्स रायस की तरफ बढ़े। खाना खा कर वह अपनी फिगर न बिगाड़े। उसे केवल अनार, अंगूर, सेव जौ आदि के स्वरस का ही पान करना चाहिए। इससे उसके चेहरे पर यौवन का तेज हमेशा फूटता रहेगा। वजन भी स्थिर रहेगा। और आयु भी काफी लंबी होगी।

            हो सकता है राष्ट्रीय दामाद को किसी ऐसे राज्य में जमीन का कोई पाँच चार हजार एकड़ का प्लाट पसंद आ जाए, जहाँ सत्ताधारी दल की सरकार न हो। तो ऐसे में उस राज्य के मुख्यमंत्री का नैतिक कर्तव्य बन जाता है कि उस तुच्छ भूखंड के मालिकाना कागज़ात तैयार करा कर वह राष्ट्रीय दामाद के श्री चरणों में तत्काल अर्पित करे। हो सकता है ईमानदारी की बीमारी का मरीज कोई बाबू इस राष्ट्रीय सेवा में जाँच रूपी अड़ंगा लगाने की कोशिश करे, तो ऐसे कृतघ्र का रातों रात तबादला करा दिया जाए। उसे साल भर से ज़्यादा किसी एक जगह टिकने न दिया जाए। उसे इतना टार्चर किया जाए कि वह खुशी खुशी फाँसी लगा ले और  सुसाइड नोट भी न छोड़े।

            देशवासियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हम ‘बनाना रिपब्लिक’ हैं। ऐसे रिपब्लिक में ऊपर से देखने पर तो कानून एक दिखाई पड़ता है, किन्तु तत्वज्ञानी जानते हैं कि अपने यहाँ असल में दो कानून हैं। एक राष्ट्रीय दामाद जैसे अति अति विशिष्ट लोगों के लिए तथा दूसरा मैंगो पीपल यानी हमारे आप जैसे आम आदमियों के लिए। राजतंत्र में जहाँ प्रजा हुआ करती थी, लोकतंत्र में वहाँ आज आम आदमी बैठा है, जैसे आज नेता का बेटा नेता ही होता है, वैसे ही तब भी राजा को बेटा ही राजा बना करता था। हाँ अमेरिका की बात अलग है। वहां का लोकतंत्र भी भला कोई लोकतंत्र है ? कोई भी ऐरा गैरा जहां राष्ट्रपति बन जाता है। हमें तो ऐसा लोकतंत्र सूट करता है, जहां बगैर चुनाव लड़े मंत्री, प्रधान मंत्री, पार्टी अध्यक्ष, गठबंधन अध्यक्ष - कुछ भी बना जा सके। न चुनाव लड़ने की जि़ल्लत, न हारने का गम, विन विन पोजीशन ! चित भी मेरी, पट भी मेरी, अंटा मेरे बाप  का ! अगर सब कुछ ‘कर्म’ से ही होना है तो ‘भाग्य’ क्या तेल बेचने जाएगा ? हमारे यहां जो घुट्टी पिलाई जाती है- भाग्यं फलति सर्वत्र, न च विद्या न च पौरूषम ---इसका क्या होगा ? हमें तो सभी विचारधाराओं का ख्याल रखना है न !

            कई बार जिद्दी बच्चों की तरह कुछ पढ़े लिखे ‘मैंगो पीपल’ भी अपने लिए उसी कानूनी सुविधा की माँग करने लगते हैं, जो राष्ट्रीय दामाद जैसे अति अति विशिष्ट हैसियत वालों के लिए बनी है। ऐसे में आप ही बताइए, कैसे समझाया जाय उन जिद्दी बच्चों को ? मजबूर होकर उन्हें सीधी भाषा में बताना ही पड़ता है कि हे मैंगो प्रजाति के कीड़े-मकौड़ो, इस तरफ मत झाँको। जिस बिल में हो उसी में रहो। वरना सीबीआई तथा ईडी तैयार बैठी है।

            देखने में आया है कि कुछ अज्ञानी लोग साहसपूर्ण प्रयासों की सीबीआई से जाँच कराने की बात करने लगते हैं। वे मूर्ख इतना भी नहीं जानते कि सीबीआई का उपयोग तो सत्ता के खिलाफ जाने वाले देशद्रोहियों पर नकेल कसने के लिए किया जाता है, जैसे कि बाबा रामदेव हैं या उनके साथी बालकृष्ण जी महाराज, या फिर अन्ना हजारे। भला ये भी कोई बात हुई कि एक कंपनी ने करोड़ों का बिना ब्याज का कर्ज राष्ट्रीय दामाद को क्यों दिया ? अरे दे दिया तो राष्ट्रीय दामाद की शान ही तो बढ़ी। आखिर राष्ट्रीय दामाद है, कोई मैंगो मैन नहीं। और नब्बे करोड़ का ही तो ब्याज था ! इतना तुच्छ ब्याज वसूलने के लिए इस उर्वरा भूमि के एक सौ बीस करोड़ मैंगो कब काम आएँगे ! ये तो वही बात हो गई कि मालिक तो घर में झाड़ू पोचा करे और नौकर चाकर ऐश करें। ऐसे केस अगर सीबीआई को दे दिये गए तो बाबा रामदेव के गुरू के बीस साल पहले गायब होने का केस कौन देखेगा ? आचार्य बालकृष्ण की डिगरियों की जाँच कौन करेगा ? पतंजलि योगपीठ के खातों की बीस बीस बार जाँच कौन करेगा? भला सीबीआई सिर्फ इसलिए बैठी है कि एक कंपनी ने राष्ट्रीय दामाद जी को बगैर ब्याज का करोड़ों का कर्ज क्यों दिया ? अगर किसी मंत्री का कोई एनजीओ विकलांगों को पैसे डकार जाय तो क्या सीबीआइ को सत्तर अस्सी लाख के छोटे-मोटे मामलों में हाथ डालना चाहिए ? क्या सीबीआई ऐसे गए गुजरे केसों के लिए बनी  है ?

            राष्ट्रीय दामाद जी से यही गुजारिश है कि वह हाथी के समान मंथर गति से चलते रहें। कुत्तों के भौंकने से विचलित न हों। ऐसे नाजुक क्षणों में न तो जुबान खोलें और न ब्लाग पर कुछ उल्टा सीधा लिखें। एक बार जहाँ धूल धक्कड़ शांत हुआ तो लोग खुद ही भूल भाल जाएंगे। वैसे भी हमारे यहाँ आजकल घोटालों की कड़ाही काफी गरम है। एक घोटाला सुर्खियों से हटता नहीं कि उससे भी बड़ा दूसरा घोटाला बम चारों दिशाओं को अपने धमाके से गुंजा देता है। इसका वैसे बड़ा फायदा भी है। लोग पिछले छोटे-मोटे घोटाले भूल कर आखिरी घोटाले पर आ जाते हैं। पहले के सारे घोटालों की आवाज नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ बन कर रह जाती है। इन्हीं कातिल लमहों के लिए कहा गया है कि 

रहिमन चुप ह्वै बैठिए देखि दिनन के फेर। जब नेकी के दिन आइहैं, बनत न लागे देर।।                                                                     

,            हमारे यहां शिवजी के नाम पर छोडे गए सांड़ की बहुत इज़्ज़त होती है। उसे सब सलाम  करते हैं। कोई उसे मारता नहीं। उसकी पीठ पर दगा हुआ त्रिशूल का निशान बता देता है कि यह कोई ऐरा-गैरा नत्थू खैरा मैंगो बैल नहीं है कि लाए, और हल में जोत दिया ! भाई जी, यह शिवजी की सवारी है। यह वीवीआइपी पशु है। यह सिर्फ आराम करने के लिए बना है। इसे हल में रगेदने की बात करने मात्र से रौरव नरक में सीट बुक हो जाती है, आदि आदि।

            ठीक यही अति अति वीआइपी ट्रीटमेंट हमारे राष्ट्रीय दामाद को भी क्यों नही मिलना चाहिए ? क्योंकि देखिये, दामादों से तो यह पृथ्वी भरी पड़ी है, किंतु राष्ट्रीय दामाद तो अरबों में कोई एक होता है ! बल्कि यदि सच पूछा जाय तो राष्ट्रीय दामाद, हमारे इंडिया टाइप लोकतंत्र की सबसे बड़ी देन है। इस अनमोल विरासत को हमें संजो कर रखना होगा, ठीक वैसे ही, जैसे हमने पिछले पैंसठ साल से आजादी को सहेजकर रखा है।

            राष्ट्रीय दामाद पार्टी पालिटिक्स से ऊपर होता है। सरकार चाहे अकेली पार्टी की आए, या फिर गंठबधन सरकार आए, राष्ट्रीय दामाद के स्टेटस पर कोई आंच नहीं आने पाती। वह देश के गौरव का एंबेसेडर उसी तरह बना रह सकता है।

            राजनेताओं पर तो यह आरोप लग सकता है कि वे मरते दम तक कुरसी नहीं छोड़ते, किंतु राष्ट्रीय दामाद पर यह कलंक भी नहीं लग पाता। नेता के पार्थिव शरीर से जब आत्मा निकल जाती है, जब वह नेता से ‘बाडी’ बन जाता है, उसी मनहूस घड़ी पर कुरसी को नेता देह से जुदा होना पड़ता है, वरना नेता और कुरसी जीवन भर एक ही युगल गान गाते हैं- हम बने, तुम बने एक दूजे के लिए।

            राष्ट्रीय दामाद तभी तक राष्ट्र को रिप्रेज़ेंट करता है, जब तक उसके सास ससुर राष्ट्र की सबसे ऊंची कुरसी पर बैठे रहते हैं। उसके बाद तो वह एक क्षण भी राष्ट्रीय दामाद के सम्मानित पद पर नहीं रहता। भतृहरि राजा की तरह अपना सब कुछ त्याग व्याग कर कहीं दूर वन के आस-पास बने अपने आलीशान फार्म हाउस पर रहने चला जाता है। या फिर जीवन का शेष समय विश्व के दर्शनीय स्थलों की सैर करने में बिता देता है।

            ऐसे ऊंचे आदर्शों की उम्मीद आप किसी दूसरे मुल्क में नहीं कर सकते। ये सिर्फ अपने इंडिया में मिलते हैं। जै हो इंडिया।

(समाप्त)

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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