मुक्त विचार

 जब  प्राणी जन्म लेता है तो एक जैसा होता है । एक जैसा से मतलब कि हिंदू मुसलमान सिक्ख इसाई जैन, बौद्ध, दलित, सवर्ण अंग्रेज, हब्शी, अमीर,  गरीब  इस प्रांत के , उस प्रान्त के, इस भाषा के . उस भाषा के - यानी जितने भी नाम हैं वे सब बाद मे दिये जाते हैं। फिर नाम बदल जाते हैं। कोई अल्ला रक्खा  बन जाता है तो कोई राम प्रसाद । कोई गुरुपकार बन जाता है तो कोई जोनाथन । फिर परिवेश बदलते हैं। कोई अचकन शेरवानी पहनने लगता है तो कोई कुरता धोती । कोई शर्ट पैंट तो कोई पगड़ी पहनने लगता है । फिर रस्मो रिवाज बदलने लगते हैं। कोई खतना करते हैं तो कोई जनेऊ पहनाते हैं, वगैरह वगैरह.  फिर खान पान बदलते हैं। कोई शाकाहारी हो जाता है तो कोई मांसाहारी । फिर प्रार्थना स्थल बदल जाते हैं। कोई मंदिर मे जाने लगता है तो कोई मस्ज़िद मे । कोई चर्च मे तो कोई गुरद्वारे मे । फिर जुबानें बदलती हैं। कोई हिंदी बोलता है तो कोई अंग्रेजी तो कोई गुरमुखी। कोई तमिल कोई मलयाली, कोई बांग्ला तो कोई असमी वगैरह वगैरह । 

समाज के चतुर चालाक लोग लोगों की इन प्रतिबद्धताओं का फायदा उठा कर उन्हें गोलबंद करते हैं। उनके धार्मिक नेताओं को अपने पक्ष मे करते हैं। फिर चुनाव के जरिये वे विधान सभाओं या संसद तक पहुंच जाते हैं। पावर अख्तियार करते हैं। पावरफुल बन कर ऐश करते हैं। आने वाली पीढ़ियों के लिए संपत्ति जोड़ने मे लग जाते हैं। 

जिन लोगों के वोटों से वे चुने जाते हैं, उनसे कभी कभार मिल कर और कुछ आश्ववासन देकर उन्हे भी खुद से जोड़े रखते हैं। 

उन परले दरजे के मतलब परस्तों का जीवन दर्शन एक दम साफ होता है- दूसरों को उल्लू बनाते रहो, अपना मतलब सीधा करते रहो। बस सत्ता यानी अथॉरिटी जो एक बार हाथ आ गई है वह जानी नही चाहिए। 

अपनी औलादों की भावी पीढ़ियों के सुरक्षित भविष्य के लिए लाखों करोड़ों लोगों के वर्तमान को आग मे झोंकते हुए उन्हे कोई मलाल नही होता । 

धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हुए, कटवाते  हुए उन्हे कोई मलाल नही होता । 

देश भक्ति के नाम पर देश को कमज़ोर करते हुए उन्हे कोई मलाल नही होता । उनका देश तो हिटलर की तरह विशुद्ध आर्य रक्त वालों का देश होता है न! उस देश मे औरों की जगह कहां? 

पर हजार साल पहले जब इस देश मे सिर्फ अही धर्म था जिसे लाने की कोशिश की जा रही है तो सवाल उठता है कि यह मुल्क फिर गुलाम क्यों हुआ? 

आगे भी एक ही नस्ल के लोगों के बचने  के कितने बाद तक हम पर फिर हमला नही होगा क्या गारंटी है? 

इस धरती पर जो भी आया है वह वापस भी गया है। परमानेंट कुछ भी नही रहा। फिर ये हाय हाय क्यों । सुख से जीते हो सुख से जीने भी दो । क्यों बनते हो वह बंदर जिसे गलती से उस्तरा हाथ लगा  और उसने खुद का  ही गला रेत  डाला। 

खाना उतना ही है जितनी पेट मे जगह है। बाकी जो जोड़ा है वह किसी और का हक था। मत छीनो किसी का हक्। ये हवा ये पानी ये जंगल ये धूप कुदरत के ये सभी संसाधन सभी के लिए हैं। इन्हे छीन छीन कर लोगों को लाचार बेबस मत बनाओ। किसी एक को सौंप कर उसे घमंडी मत बनाओ। 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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