व्यंग्य- महारथी


            कोई बीस साल पहले की बात है। महारथी जी ने एक आनोखा सपना देखा। साक्षात् रामलला उनके सामने प्रकट हुए और कहने लगे-‘वत्स ! ये नेकर पहन कर कब तक कदम ताल करते रहोगे ? छलनी में पड़ी रेत की तरह उमर बीती जा रही है। अपने असली स्वरूप को पहचानो। तुम मेरे ही अंशावतार हो। रावण-कुंभकर्ण को त्रेता में तुम्हीं ने मारा। द्वापर में कन्हैया बन मक्खन भी तुम्हीं ने चुराया। कंस को खुद मारा, जरासंध को भीम भइया से चिरवाया। फिर महाभारत युद्ध के जरिये आबादी पर काबू पाया। उठो महारथी भरत खंड तुम्हें पुकार रहा हैं।’

            सवेरे महारथी जी जागे तो एक दम तरोताज़ा थे। जोश से भरपूर। फौरन रथ-यात्रा का संकल्प लिया और निकल पड़े जनजागरण पर।

            उन्हें ईश्वर का अवतार समझने में लोगों को ज़्यादा देर न लगी। गीता में सबने पढ़ ही रक्खा था कि हे अर्जुन, जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब उसे उठाने के लिए मैं जन्म लेता हूं।

            उस रथयात्रा में महारथी जी को अपार धन-सम्मान मिला। जिस किसी के कपड़ों पर उनके रथ की धूल भी पड़ती, वही अपने जन्म को धन्य मान लेता। उनकी अपील को लोगों ने ब्रह्मवाक्य माना। चाँदी की मूर्तियाँ भी भेंट में बेहिसाब मिलीं, जिन्हें गला कर महारथी जी ने डिनर सेट बनवा लिया।

            रथयात्रा के बाद जो चुनाव हुए, उनमें महारथी जी की पार्टी भारी बहुमत से जीती थी। सरकार बनाने में जरा भी दिक्कत नहीं आई । जो सत्ता पहले उन्हें  कांटों का ताज लगा करती, वहीं अब फलों-फूलों से लदा चमन नज़र आने लगी। जिस चमन को वे पहले बड़ी हसरतों से देखा करते, उसी चमन के वे अब रखवाले थे। और रखवाला कभी दो-चार फल तोड़कर खा भी ले तो क्या फर्क पड़ जायेगा ? चिड़िया के चोंच भर पानी पीने से समुद्र सूख नहीं जाते। इसी भावना से महारथी तथा उनके सखाओं ने खा लिया होगा थोड़ा बहुत। या फिर पंचतंत्र के गधे की तरह भरपेट ककड़ियां खाकर आधी रात को गर्दभराग गा दिया होगा। आखिर महाभोज के लिए पंगत में बैठे भी कब से थे बेचारे ?

            अभी महाभोज चल ही रहा था कि सहयोगी दलों ने टेबल पलट दी। सारा गुड़ गोबर कर दिया। महारथी जी परेशान ! अभी मंदिर की दिशा में तो कुछ हुआ ही नहीं। वहां की साफ़-सफाई तक तो हुई नहीं। जनता  पूछेगी तो क्या जवाब देंगे ?
            वक्त कम था काम बहुत ज़्यादा। महाभोज अधूरा छोड़ फ़ौरन रामलला के बर्थ-प्लेस धाए। तालेवाले खोले। झाड़ झंखाड़ साफ़ किये और रथ लेकर आ पहुंचे जनता-जनार्दन के द्वारे। उस बार उन्हें धनुषबाण भी धारण करना पड़ा। पीठ पर तूणीर, वक्ष पर कवच तथा सर पर शिरस्त्राण भी पहनना पड़ा। रामेश्वरम, सोमनाथ, कांची कामकोटि, पुरी आदि होते हुए वे अजुध्या जी पहुंचे। मंदिर निर्माण की शपथ ली और फिर चुनाव के परचे भर दिये।

            नतीजा वही निकला जो सोचा था । चुनावी वैतरणी पार्टी ने पार कर ली। सरकार बन गई  और चलने भी लगी। धीरे-धीरे पांच बरस पूरे हो गए ।

 इस दौरान कितने ही भीष्म कर्म महारथी जी के दल को निपटाने पड़े। जैसे कि अच्छे भले सरकारी कारखाने बेचना, सरकारी होटल नीलाम करना, स्वदेशी की माला को जाप के बाद संभाल कर ताक पर रखना (ताकि वक्त पर काम आवे), विदेशी कंपनियों के लिए गलीचे बिछवाना, निठल्ले फ़ौजियों को बॉर्डर पर  दुश्मनों की गोलियों से भुनवाना, शहीदों के लिए ताबूत ख़रीदना, तोप के गोलों और पनडुब्बियों की ख़रीद में दलाली की धनराशि बचा ले जाना, शहीदों के पेट्रोलपंप सुविधा शुल्क लेकर लालाओं  को देना, छोटे कारोबारियों और सरकारी नौकरों को इनकम टैक्स की चक्की में पीसना तथा दामादों की सलाह से  नियुक्तियां व तबादले करना, बुरे दिनों मे साथ न देने वालों पर घोटालों की जांच बिठाना - वगैरह-वगैरह।

            तो इतने बड़े-बड़े कामों के बीच बर्थ प्लेस जैसे टंटे भला कहां याद रहते ?

            ठीक है। भूल-चूक लेनी-देनी तो चलती रहती है पर इसकी इतनी बड़ी सज़ा तो नहीं देनी थी ! कान पकड़कर बाहर कर दिया। दिस इज़ वेरी बैड यू नो ! कोई बात है भला ?

            खैर ! अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियां चुग गई खेत ! अब तो वनवास हो चुका था। और वनवास तो बड़ी कष्टप्रद अवधि का नाम है। ये जीना भी कोई जीना है कल्लू ? प्रेसवाले दूर रहकर बात करते है तो टीवी वाले करीब  आते नहीं। यही सब चलता रहा तो लोग नाम तक भूल जायेंगे। तो फिर क्या किया जाय ? सोचते हुए महारथी जी गुनगुनाने लगे- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन....

            वनवास की अवधि में एक बार महारथी पड़ोसी देश जा पहुंचे। पड़ोसी देश उनकी मातृभूमि भी था जहां से उन्होने पृथ्वी पर अवतार लिया था। अपनी जन्मभूमि जाने का हक सभी को है। रेशमा के गाने ‘दमादम मस्त कलंदर, अली दा पैला नंबर’ पर ताली-नृत्य करने का हक भी हर किसी को होना ही चाहिए । जहां तक सवाल है- कायदे आजम को पुष्पांजलि भेंट करने का या उन्हें धर्मनिरपेक्ष बताने का,  तो महारथी जी ने पहले ही क्लियर कर दिया था कि ये मेरा निजी विचार था। पर बुरा हो प्रेसवालों का जो हाथ धोकर पीछे पड़ गये। तिल का ताड़ और हिल का पहाड़ बना दिया। अब महारथी जी कैसे बताते कि उनका तीसरा नेत्र खुल गया है। भूत, भविष्य, वर्तमान उन्हें एक साथ दीखने लगा।


            जन्मभूमि के दौरे से लौटकर महारथी जी कर्मभूमि पहुंचे तो माहौल गर्म था। पुराने साथी रमनदेव (जो साक्षात् अग्रि के अवतार बताये जाते हैं) खुलेआम आग उगल रहे थे। मौक़ा पाकर सन्यासिनी भी राजगद्दी मांगने लगी। बड़ी मुश्किल से उसे वनवास पर भेजा। इस पर भी साथियों का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ तो एक मात्र खड़ाऊं भी उतार कर भरत भइया को सौंप दिये और कहा- इन्हें पहन मत लेना। गद्दी पर ही रखना, जब तक मैं लौटकर नहीं आ जाता।

            महारथी जी ने अब तक लछमन भइया का रोल निभाया था। पर एकाएक रामलला के  रोल में उन्हें देख असली राम सकते में आ गये। ये क्या ? मुझसे पूछा तक नहीं और मेरी पोशाक पहन ली ! अरे बयासी की उमर में घुटनों में स्टील की गरारियां डाल किसी तरह बड़के भइया का रोल खींच ही रहा था। तो फिर ये गद्दारी क्यों की गई ।

            इस बगावत से व्यथित बड़े भाई ने राम पद महारथी को सौंप सन्यास की घोषणा कर डाली।

            ठीक इसी मौक़े पर चार सूबों में चुनावों का ऐलान हुआ तो महारथी जी को जैसे मनमानी मुराद मिल गई । उन्होंने तत्काल रथयात्रा का उद्घोष कर दिया। जो सत्ता रूपी माया उनके पीछे दौड़ी आती थी और वे जिसे दुत्कारते थे, वही महाठगिनी आज आगे-आगे भागी जाती थी। सवाल था- उसे पकड़ें कैसे ? वही सवाल अब हल होने जा रहा था।

            पूना की फैक्टरी को अति आधुनिक रथ बनाने का आर्डर दे दिया गया। पूर्णतः वातानुकूलित रथ में बेडरूम, किचन, ड्राइंगरूम, बाथरूम, टायलेट भी थी। यात्रा के दौरान रंगीन टेलीविज़न देखने की भी व्यवस्था थी। आल इंडिया रोमिंगवाला मोबाइल तो था ही।

            तत्पश्चात बड़के भइया के साथ फोटो खिंचवा, माथे पर वशीकरण तिलक लगा और क़लाई पर मौली का धागा बंधवा महारथी लग्ज़री रथ पर आरूढ़ हुए। पीछे मंगलगीत बज रहा था-


बढे़ चलो बढ़े चलो बढ़े चलो महारथी...
महान भूमि एक बार फिर तुम्हें गुहारती। करो कृतार्थ राम जन्म भूमि को महारथी।
चुनाव यज्ञ का पुनः पवित्र पर्व आ गया। कि पांचजन्य का सुनो शंखनाद हो गया।
हरेक राज्य से तुम्हें चुनौंतियां पुकारतीं। बढ़े चलो बढ़े चलों बढ़े चलों महारथी।
तुम्हें रमन लाल और रमा बहन निहारते। कि मित्रघन बिहार में तुम्हारी राह ताकते।
कि राम के स्थान पर प्रमोट आप हो गये। कि लक्ष्मण भी आपके तुरतं चुन लिये गये।
विजय तुम्हारी आरती क्यों नहीं उतारती। बढ़े चलो बढ़े चलो बढ़े चलो महारथी।

(समाप्त) 





























            
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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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