हिंदी का एक शब्द आजकल काफी
सुर्खियों मे है. यह शब्द है- महिला सशक्तीकरण. मंत्री से लेकर संतरी तक,
चरवाहे से लेकर प्रोफेसर तक खोमचे वाले से
लेकर फैक्टरी वाले तक -मतलब कि ऐसा कौन पुरुष बचा है जिसकी जुबान पर महिला
सशक्तीकरण न हो.
संसद मे जाइए तो महिला आरक्षण विधेयक
का कोबरा फन फैलाए फुफकारता मिलेगा,
पंचायतों मे जाइए तो तैंतीस प्रतिशत कोटा महिलाओं
के लिए आरक्षित । टिकट खिड़कियों पर जाइए तो महिलाओं की लाइन ही अलग मिलेगी। और
मुम्बई लोकल मे तो लेडीज़ डिब्बे ही अलग हैं। क्या मजाल कि पुरुष नाम का कोई मच्छर उन आरक्षित डिब्बों के आस पास भी फटक सके! चौदह
दिन के लिए बच्चू को क्वारंटाइन करने का पूरा इंतजाम है ।
अब तो सुनने मे यह भी आ रहा है कि
पूरी की पूरी ट्रेन ही महिलाओं के लिए चलाई जाएगी । न ट्रेन मे पुरुष नामका कोई विषैला
जीव होगा, न महिला
कंठों पर सुशोभित सुनहरी चेनें खिंचेंगी। न कानों के कर्णफूलों के साथ साथ कान
कटेंगे। न कोई दैत्य प्रजाति का प्राणी तेजाब की बोतलें किसी नारी पर उड़ेलेगा। न कोई
महिलाओं को देख कर सरेआम अश्लील हरकतें
करने की सोच भी सकेगा।
यही देख कर मीडिया मे मांग उठ रही है
कि महिला सशक्तीकरण की जगह महिला सशस्त्रीकरण का प्रयोग होना चाहिए ।
हे महिले ! आप धन्य हैं ।
आपकी दुर्बलता प्रशंसनीय है। ऊपरवाले से हाथ जोड़ कर विनती है कि आपकी अशक्तता जुग
जुग बनी रहे । कभी क्षीण न होने पाए ! क्योंकि यदि आप सशक्त हुईं तो सशक्तीकरण अभियान का क्या मतलब रह जाएगा ?
कभी जी मे आता है कि वेटलिफ्टिंग
चैंपियन कर्णम मल्लेश्वरी जी से पूछूं कि
हे अशक्ते ! आप इतना अथाह भार अपने भुजदंडों पर कैसे धारण करती थीं ? पर फिर डर भी लगता है ! कहीं पुराना शौक
फिर हरा हो गया और वेट समझ कर हमें भी उठा उठा कर पटकने लगें तो !
ऐसे ही मन होता है कि कभी बबीता
फोगाट जी से पूछूं कि हे मल्लयुद्ध व्यसने ! ओलंपिक खेलों मे अच्छे अच्छों को धूल चटाते हुए कभी आपकी सांस तो नहीं उखड़ी ?
मंत्री बनने के बाद पुरुष अफसर को चप्पलों और थप्पड़ों से पूजते हुए आपकी सुकोमल कलाइयों मे मोच तो नहीं
आई ? या फिर विधानसभा मे
अपोजीशन के साथ दो दो हाथ करने को आपका मन
मयूर मचल तो नहीं जाता ?
इच्छा तो यह भी थी कि कैमरा टीम के
साथ चंबल के बीहड़ों मे जाऊं और वहां घोड़ों पर सरपट दौड़ती दस्यु सुंदरियों से पूछूं
कि हे अश्वों पर आरूढ़ वनयक्षिणियों, पुरुष
प्रजाति के मृगों का शिकार करते हुए आपके हृदय मे युगों युगों से जलती प्रतिशोध की
ज्वाला शांत तो हो जाती है न! पुरुष आपको भुने
हुए हिरन से ज़्यादा तो नज़र नहीं आता न ?
लेकिन अगले ही पल इस खौफनाक विचार को मेमोरी से डिलीट कर डालता
हूं। उन पुरुष प्राण पिपासिनी दस्यु सुंदरियों के इंटरव्यू को मै जीवन का आखिरी साक्षात्कार
भी तो नही बनाना चाहता !
कभी मन होता है कि बालीवुड की
अप्सराओं से जाकर कहूं कि हे अप्सराओं आपका कितना भयंकर शोषण हो रहा है?
आपके तन से सोची समझी साजिश के तहत वस्त्र नोचे
जा रहे हैं । इसका आखिरकार क्या नतीजा
निकलेगा- सोच कर आपके हों न हों, हमारे
रोंगटे तो खड़े हो जाते हैं। जिंदगी मे ऊपर तक जाने की आपकी ख्वाहिशों की इतनी बेलज्जत,
बेमुरव्वत, बेअदब
कीमत वसूलना – कहां तक जायज है ? भले
ही आप खून के आंसू पीते हुए उस बेशर्म सौदेबाजी को मौन रह कर आधी स्वीकृति दे देती
हैं । भले ही आप नादान मनवा को मना लेती हैं कि रे मूर्ख मन,
जानवर कौन से कपड़े पहन कर निकलते हैं?
कुत्ते.बिल्ली,
गाय भैंस बंदर भालू सभी तो बर्थडे सूट मे
धरा पर विचर रहे हैं! कभी कोई कहता है उन्हे नंगा ?
एक्चुअली इट इज़ अ माइंडसेट ओनली । घटते हुए कपड़ों मे फर्स्ट टाइम थोड़ा
अनइज़ी लगता है, पर बढ़ती हुई
फीस को मन ही मन याद करके सारा संकोच दूर भाग जाता है। उसके बाद तो यूज़्ड टू हो जाते हैं। झिझक का बैरियर पार होते ही संभावनाओं का हरा भरा,
खुला मैदान भी तो इंतज़ार कर रहा होता है न !
सशक्त होने के लिए लोग क्या क्या नही उतारते ? फिर
कपड़े क्या चीज़ हैं। इसलिए सेंटी नही होने
का । बस आंख मूंद कर आगे बढ़ने का ।
महिला सशक्तीकरण मिशन की जरूरत आखिर क्यों
महसूस हुई- इसे जानने के लिए इतिहास खंगालना होगा । धरती पर जितने भी मजहब हैं ज्यादातर मे महिलाओं के साथ नाइंसाफी हुई है। अब आप तो जनाब नमाज पढ़
आए मस्ज़िद मे। महिला को कहा तू मस्ज़िद के आस-पास फटक तक नही सकती। खुद मियां दस दस तलाक ले लें। एक से मन भर जाए
तो उतार दें पांव से जूतियों की तरह ! दूसरी- तीसरी ले आएं
। कब्र की तरफ रुखसत होते हुए भी लाते रहें।
और खातून अगर ऐसा करना चाहे ? नहीं
! तब मुआमला शरीयत के खिलाफ हो जाता है ! सर से पांव तक सारा बदन जालिम काले
बुर्के से ढकवा देते हैं! इनका बस चले तो बुर्के मे जो जरा सी झिर्री देखने के लिए
छुड़वाई है- उसे भी बंद करा दें।
और हिंदू कौन से पीछे हैं ?
चार चार फिट के घूंघट अब जा कर बंद हुए। सात
सात फेरे! ताकि सात जन्मों का हवाला देकर जनम भर जुल्म करते रहो?
खुद ठेके से छक कर दारू पीकर आओ,
घर मे महिला बुझे चूल्हे के सामने सिर पकड़
कर सोचती रहे कि भूखे बच्चों से आज क्या झूठ बोलूं?
अरे
! दूध लाना मना है- कोरोना फैल जाएगा? मगर ठेके तो खुलेंगे । दारू से कहां फैलता है कोरोना ? छाती चौड़ी करके V
का निशान बनाता, कैमरे को चिढ़ाता बेवड़ा ठेके की तरफ जा रहा है।
पुलिस बाइज़्ज़त जाने दे रही है! मानो कह रही हो – आओ महाभाग, अर्थव्यवस्था के प्राणरक्षक,
आओ, देश की इकोनॉमी के एकमात्र इलाज
बेवड़े जी। जल्दी जाओ। जितनी पी सको खुल कर पीओ। देखते हैं कौन माई का लाल रोकता है ? ये कोरोना तुम जैसे देश भक्तों के लिए नही है। ये
तो दूध से फैलता है।
बच्चों की स्कूल फीस चाहे
दो न दो । महीने का राशन चाहे लो न लो । बिजली पानी के बिल भी रहने दो कोरोना है न!
मगर शराब पीना मत भूल जाना बंधु । अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो । देश बचाने के लिए
पीओ। तुमसे बड़ा देश प्रेमी और कौन हो सकता है ? घर पर बीबी बच्चे भूख से खुद्कुशी करेंगे,
आबादी घटेगी। ये भी देशसेवा है! महिला
क्या बिगाड़ लेगी तुम्हारा ? वो
तो अशक्त है! सशक्त जब होगी तब होगी, हाल
फिलहाल तो अपुन के आगे बेबस है न ?
हमारे हिंदी के भक्तिकालीन कवियों ने
भी तो महिला की अशक्तता का खुल कर दोहन किया। अब बताइये कबीर दास जी की कौन सी
भैंस खोली थी महिलाओं ने कि उन्हे कहना पड़ा-
नारी की झांई परत
अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिन की कौन गति जो नित नारी संग॥
है न सरासर ना इंसाफी ?
एक तो भुजंग यानी कोबरा वैसे ही जहरीला कीड़ा
! और वह भी नारी की छाया से ब्लाइंड हो
जाए! यानी नारी की छाया कोबरे से भी खतरनाक है ?
और तुलसी दास
जी तो महिला से जाने किस किस जनम का बदला लेते हैं? भला
यह कहने की क्या जरूरत आन पड़ी थी-
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल
मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद
मायारूपी नारि।।
चलो इतना कह दिया
था तो अब जुबान सी लेते । मगर फिर जहर उलट दिया !
नारि
स्वभाव सत्य सब कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं॥
ऐसी हजारों मिसाल और भी मिल जाएंगी जहां महिला की कमजोरी का बेजा
फायदा उठाया गया है। दोहे की तुकबंदी बिठाने के चक्कर मे कविराज महिला प्रजाति को ही लगे रगेदने !
खैर ! कलम
के जो सिपाही अभी जिंदा बचे हैं उनके लिए नेक
सलाह है कि वक्त का रुख भांप लें ।
महिलाओं
के बारे मे सोच बदल लें, नहीं तो जेल मे रोटियां बनी रक्खी हैं । कबीर तुलसी के दिन हिरन हुए । वो दिन भी अब न
रहे जब खलील खां फाख्ता उड़ाते थे ।
(समाप्त)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें