
अठासी पार कर भी चचा हार मानने को तैयार नहीं हुए। उल्टे ताल ठोंककर बोले-
‘अभी तो मैं जवान हूं। पार्टी या सरकार में कोई भी ज़िम्मेदारी निभा सकता हूं।
सन्यास लें मेरे दुश्मन !
कहने को तो चचा कह गए, पर भीतर
से आवाज आई कि खेलने के दिन लद चुके । अब आप कोचिंग लायक बचे हैं। झूठी हेकड़ी छोड़िये । नई पौध को
खाद पानी दीजिए। कहां मूंछों के बाल कतरने मे लगे हैं?
चचा ने हृदय मे प्रकट हुए “दैवी” संदेश
को स्वीकारने मे ही भलाई समझी।
उजला धोती-कुरता,
वास्कट,
घुटा हुआ खल्वाट,
नजर के चश्मे से
झांकती चीते सी आंखें, तरीके से तराशी हुई मूंछें -कुछ ऐसा था चचा का बाहरी
रंग-रूप। भीतर से वह अंग्रेज़ी रहन-सहन के मुरीद थे,
पर पार्टी स्वदेशी की मार्केटिंग करती थी,
लिहाजा भारतीय जैसा
दीखना जरूरी था।
चुनाव करीब आते ही आप सोने का
मुकुट पहन, हाथों में धनुष-बाण और पीठ में तरकस धारण कर रथ-यात्रा पर
निकल पड़ते। भरत-खंड का चप्पा-चप्पा रथ के चक्कों से कवर हो उठता। शुद्ध हिन्दी में
दिए गये आपके उपदेश जनता सब्र से झेलती।
इस दिग्विजय का फायदा यह होता कि पार्टी चुनाव के बाद सबसे बड़ा दल बन
कर उभरती। बाद में छोटे-मोटे दलों से डील
करके गिरोह बनाया जाता और कुर्सी हथिया ली जाती। एक बार कुर्सी क़ब्ज़े में आने पर पांच
साल मजे मे कट जाते ।

जनता की यह समझदारी चचा पचा नहीं पाए । मन में बदले की भावना उठने लगी । सोचने
लगे- धोखेबाज जनता को कैसे सबक सिखाया जाए ?
आखिर पार्टी की बैठक बुलानी पड़ी। तय हुआ कि जनता का फै़सला
सर-माथे रखने की घोषणा हो । दूसरे, जो
जीत कर आए हैं – उन्हें राजनीति का ककहरा चचा खुद पढ़ाएं।
ऐसा ही किया गया । जनादेश का
सम्मान करने की खबर अखबारों मे छपते ही अच्छा रिस्पांस मिला। लोग कहते पाए गए कि हमारी
गलती से पार्टी हारी ।
दूसरी तरफ समुद्र-तट पर पांच-सितारा होटल में
प्रशिक्षण-शिविर शुरू हुआ। इस बात का पक्का इंतजाम था कि पत्रकार रूपी काकरोच होटल
के आस पास भी न फटक सकें।
उद्घाटन समारोह मे डायस पर पार्टी
के खाए -खेले नेता मौजूद थे। दीप जलाने के बाद मुस्कराते हुए चचा बोले
- ‘प्यारे बच्चों,
सियासत में उसूलों के लिए कोई जगह नहीं होती । सत्य नामकी चिड़िया
भी यहां नहीं पाई जाती । यहां टिके रहने के लिए
धारा प्रवाह झूठ बोलना, ड्रामे करना और धोखा देना आना चाहिए । सफल राजनीतिज्ञ मे धीरज भी कूट कूट कर भरा हो।कैसे भी हालात आ जाएं पर अच्छा
पालीटीशियन कभी धैर्य नही खोता । गुस्से
को काबू मे रखने की कला भी उसे आनी चाहिए । बाहर से वह सीधा-सादा, मासूम, इन्नोसेंट, दीखना
चाहिए, जैसे कि आप लोग हैं-’।
कहते हुए चचा हंस पड़े। फिर जौ
से बने
ठंडे आसव के घूंट पीते हुए आगे
बोले

जौ के शीतल व स्वादिष्ट आसव का पान
करके चचा ने गले पर हाथ फेरा और बोले
- देखिये हम बीमार हुए, इसमे
हमारा कुसूर नहीं। लेकिन अगर हम बीमारी का इलाज नहीं करते, जल्दी ठीक नहीं होते
तो बेशक ये हमारा कुसूर माना जाएगा।
फिर कुछ ठहर कर बोले- अगर आप में
से किसी को ये संवेदना नामकी बीमारी है तो सबसे पहले इलाज कराइये। बहुत आगे जाना
है आपको।

- इस प्रशिक्षण शिविर का पहला पाठ है – मोह का
त्याग । आप अर्जुन की तरह निर्मोही बनें । चाचा, ताऊ, भाई
भतीजे, दादा, दोस्त, रिश्तेदार- सब मतलब के
यार हैं। उनका नहीं अपना नफा नुकसान देखो । कोई कल मरता है, वह आज
मरे तुम्हारी बला से । सेंटीमेंटल नहीं
होना है । मेक श्योर कि कोई तुम्हे
इमोशनली ब्लैकमेल न कर सके । भावुक होने व रोने की धांसू एक्टिंग आनी भी बहुत
जरूरी है । नहीं आती तो फौरन कोचिंग लो । पब्लिक मे यही मेसेज जाए कि गरीबों के
मसीहा, करुणा के अवतार इस धरती
पर सिर्फ तुम हो । बाकी सब ड्रामेबाज हैं।
दूसरा पाठ है- मुद्दा। मुद्दे हालात के हिसाब से बदलते रहते हैं। प्राचीन काल मे मुद्दे
हुआ करते थे- बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य। मध्यकाल आते-आते मुद्दे हो गए-भ्रष्टाचार,
विकास और रोज़गार। आज
मुद्दे हैं, हिंदू- मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, स्वदेशी-विदेशी,
और राष्ट्रवादी-
देशद्रोही ।

मेरे होनहार बच्चो, आप पार्टी का
भविष्य हैं। मुद्दों का महत्व अच्छी तरह समझें। ये आसानी से नहीं मिलते। मिल जाएं
तो सहेज कर रक्खें और चुनावों से ठीक पहले बोतल से बाहर निकालें। फिर देखिए ! जिन्न कैसे आपका हुक्म बजाता है ?
एक जरूरी बात और ! मुद्दे भूले से
भी हल नही होने चाहिएं । हमारे हलवाई भाई गाजर के बासी हलवे को कैसे महीनों तक ताज़ा
बनाए रखते हैं ? बस !
आपको भी यही सीखना है कि मुद्दों का अलाव हमेशा दहकता रहे ।
तीसरा पाठ है भाषा । हमने शुद्ध हिन्दी बोलकर पब्लिक के
दिलों मे काफ़ी जगह बना ली है। लोग हमे ही असली हिंदू समझने लगे हैं। लेकिन आजकल हिंदी से भी वोट नहीं मिलते
। सिर्फ़ तालियां मिलती हैं। तालियों का क्या अचार डालना है ? आप जहां
भी जाएं, भाषण की शुरूआत वहीं की बोली से करें। इसका जादू की तरह असर होता है ।
चौथा और आखिर पाठ है जुमले । चुनावी रैलियों मे पब्लिक अपनी समस्याएं रखती
है । आप ज्यादा चक्कर मे न पड़ें । फौरन वादा कर लें। सौगंध खाएं कि
जो कुछ आप बनाने को कहेेंगे, वो बनेगा जो तोड़ने को कहेंगे वो टूटेगा। वादे का हर एक अक्षर पूरा होगा । बल्कि डायस पर ही गंगाजल मंगा कर,
संकल्प लें कि हे
जनता-जनार्दन ! आपका काम हो जाएगा नहीं, हो चुका
है । जाइए, खुशी मनाइए । भीड़ सर माथे बिठा लेगी । आप रिकॉर्ड मतों से
चुनाव जीत जाएंगे।

तभी सत्र समापन की घंटी बजी।
लंचकाल की घोषणा हुई । भूखे भेड़ियों की तरह प्रशिक्षु खाने पर टूट पड़े।
(समाप्त)
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