
बड़ी हस्तियों के पीछे चलने वालों को हमारे आधुनिक साहित्य में ‘पिछलग्गू’ कहा गया है। इस शब्द की रचना दो देसी शब्दों को
जोड़कर की गई है। ये शब्द हैं- ‘पीछे’ तथा ‘लगनेवाला’। यह शब्द इतना वजनदार है कि
इसे बनाने में व्याकरण के तमाम नियम फेल हो गए। जैसा निरालापन इस शब्द में है,
वैसा ही मतवालापन इसके अर्थ में भी है।
सवाल है- जाने क्यूं लोग पिछलग्गू हुआ करते
हैं ?
जवाब एकदम सीधा है- क्योंकि पिछलग्गू होने
में कई फ़ायदे हैं। नुकसान बस एक ही है। लोग ताने देते हैं कि देखो तो जरा ! पिछलग्गू बना
घूम रहा है। अपनी ख़ासियत तो उसमें है ही नहीं।
पर इस क़िस्म की फब्तियां पिछलग्गू की सेहत पर
कोई बुरा असर नहीं डालतीं। उसकी मूंछों का एक बाल तक टेढ़ा नहीं होता। मान -अपमान
के ये फिक्स मैच तो वह बहुत पहले हार चुका होता है। उसके मुस्कराते होठों पर एक ही
नगमा सुनेंगे आप-
‘जो राह चुनी तूने, उस
राह पे राही चलते जाना रे....’

पीछे-पीछे कैसे चलना है- हमें सिखाने की
ज़रूरत नहीं। हम सीखें भी क्यों ? हम तो इस कला को मां के पेट से ही सीख कर आते हैं। सृष्टि के आरंभ से ही
यह कला हमारे ख़ून में रची-बसी है।
भला शेर के आगे ख़डे गीदड़ को टांगों के बीच पूंछ
दबाना कोई सिखाता है ? मतलब पड़ने पर गधे को बाप बनाने की तकनीक भला कहीं सिखाई जाती है ?
‘हजूर’, ‘सर’, ‘माइ-बाप’,
‘हुकूम-जनाब’, आदि विशेषण कौन से स्कूल में पढ़ाए
जाते हैं? अरे भई, यह तो विरासत है
अपनी। परंपरा है महान ! तहजीब है-गंगो-जमनी। इस पर तो नाज है हमें।
आपने नोट नहीं किया कि हमारी क्रिकेट-टीम
इंग्लैंड या आस्ट्रेलिया से अक्सर हार जाती है और अगर जीतती भी है तो इतने मामूली
फर्क से कि हारनेवाले को हारने का गम नहीं होता। इन्हें जीतने की ख़ुशी नहीं होती।
इसकी वजह भी हमारे संस्कारों में छिपी है। हम
खुद तो दुनियां जहान की शर्मिंदगी झेल सकते हैं, पर हमारी
वजह से कोई शर्मिंदा हो, यह कतई बरदाश्त नहीं कर सकते। आख़िर
हम दो सौ साल गोरी नस्ल के गुलाम रहे हैं।
अपमान, क्या होता
है- हम अच्छी तरह जानते हैं। इतने लंबे अरसे की गुलामी फक़त सत्तर बरसों में कैसे भुलाई जा सकती है ?
उन्हीं गोरों ने कल तक हंटरों से, हमारी चमड़ी उधेड़ी
थी। बूटों की ठोकरों से हमारा फुटबाल बनाया था। हमें ब्लैक डाग्स, बुलशिट, बास्टर्ड कहा था।

बस ! यही सोचकर हम क़दम पीछे खींच लेते हैं।
जीता-जिताया मैच हार जाते हैं। हो सकता है इस में थोड़ी बहुत फिक्सिंग की भी मिठास
घुली रहती हो। मगर देखिये वह तो ‘बट नेचुरल’ है।
पैसा आज की तारीख़ में देश से ऊपर
है, रिश्तेदारी से ऊपर है, इंसानियत,
इज्जत-आबरू से ऊपर है। यहां तक कि पैसा भगवान से भी ऊपर हो गया है।
ऐसे में अगर टीम इंडिया पैसे के लिए देश
की इज्जत से ही क्रिकेट खेलने लग जाए तो
परेशान होने की ज़रूरत नहीं। इतनी मंहगाई में अगर हमारे खिलाड़ी ‘राष्ट्रीय
स्वाभिमान’ के चक्कर में पड़ गए तो भैंस तो
गई पानी मे !

आपने देखा होगा कि परमाणु संधि करते हुए हम
कितने शालीन, कितने विनम्र, कितने शांत,
कितने समझदार हो जाते हैं ? गोरे गुर्राते हैं
कि प्रॉमिस करो- विस्फोट नहीं करोगे। हम हाथ जोड़कर कहते हैं- ठीक है सर ! नहीं
करेंगे विस्फोट ! चाहे चीन और पाकिस्तान हमीं पर परमाणु बम क्यों न गिरा दें। तब
भी नहीं करेंगे विस्फोट। और बोलिए । अब ‘सर’ के पास बोलने के लिए बचता ही क्या है ?
फिर भी ‘सर’ हुक्म सुनाते हैं- ये अपने यहां जो कुछ भी न्यूक्लियर
खोजें करते रहते हो, सब बकवास है। उसे फौरन बंदकर दो। अगर
हमारी इंस्पेक्शन टीम को देसी तकनीक विकसित किये जाने की भनक लगी तो संधि उसी वक्त
ख़त्म ! फिर छिपे रहना सद्दाम की तरह सुरंग में।
इस पर हम भरोसा दिलाते हैं-‘सर’, हम आपके पिछलग्गू आज से नहीं, बहुत पहले से हैं
फ्यूचर में भी बने रहना चाहते हैं। आप की चमड़ी हमसे गोरी है। आपकी कद-काठी हमसे
अच्छी है। आप धरती की सुपरपावर हैं। क्या हुआ अगर हमारे नादान सांइसदानों ने नक़ल
टेपकर दो एक बार बम फोड़ लिये हों। पर इसमें उनका कोई कमाल नहीं। टैक्नोलाजी तो
आपकी ही थी। आपके चरणों की धूल सर माथे रखकर ही हम यहां तक पंहुचे हैं। हमारे
भाग्य-विधाता, हमारे गण-अधिनायक आप ही तो हैं।
इस पर गौरांग प्रभु
मुस्कराने लगते हैं। मानो कह रहे हों- मोगैम्बो खुश हुआ.
पिछलग्गू होने का सबसे बड़ा फायदा यही है कि
आपको ‘रोड मैप’ नहीं बनाने पड़ते। आप सीधे-सीधे उन्हें नक़ल कर लेते हैं। जैसे कि
किसी विकसित देश के पीछे चलकर आप भी उसी का विकास माडल अपना लेते हैं। हो सकता है
वह विकसित देश उद्योग-प्रधान हो और आप कृषि प्रधान। नक़ल करने से आपका कृषि सेक्टर
तबाह हो रहा हो, पर आप जरा भी परवाह नहीं करते। आप अपने
‘भेजे’ का प्रयोग करते ही नहीं। किसान ख़ुदकुशी करते हैं तो करें। विकास का पहिया तो
नहीं रूक सकता न ? आप यह जानने के पचड़े में पड़ें ही क्यों
कि कहां ग़लती हुई ? आपको
तो बुलडोज़र चलाते जाना है। अनाज कम पड़ा तो ‘आराध्य देश’ से मंगा लेंगे। कमीशन अलग
मिलेगी, सड़ा-गला, फफूंदी लगा अनाज खाकर
ग़रीब अलग मिटेंगे। ग़रीब क्या मिटेंगे ग़रीबी मिटेगी। ख़रीद फरोख़्त के लिए क़र्ज़ हमें
मिल ही जाता है। दिक़्क़त कहां है ?
पिछलग्गू होने के बाद आप को सरकार चलाना भी
आसान लगने लगता है? क्रिकेट
कोच चाहिए ? बुला
लीजिए मुंह मांगी क़ीमत पर किसी ‘गोरे’ को।

भारतीय दर्शन
सिखाना है ? गोरे स्कालर्स यहां भी बुलावे के लिए बैठे
इंतजार कर रहे हैं।
हमें क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना
चाहिए -इतना भी सोचने की ज़रूरत नहीं। हमें तो बस ‘आका’ के निर्देशों का पालन करना
है। रही बात विपक्ष की। उसका तो काम ही रोड़े अटकाना है। कुत्ते भौंकते रहते हैं,
हाथी चलता रहता है।
तो देखा आपने। हींग लगी न फिटकरी, रंग आ गया चोखा ! अपना क्या घिसा। जो घिसा पब्लिक का घिसा, जो आया, अपने पास आया। मगर सारे मसाइल चुटकियों में
हल हो गए ।
एक बार फिर साबित हो गया कि पिछलग्गू होने
में ही समझदारी है।
फिर देर किस बात की ? चलो
एक बार फिर से......
(समाप्त)
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