लेख: भारतेंदु युगीन परिस्थितियां और हिंदी साहित्य (भाग-3)

ईस्ट इंडिया कंपनी का सिक्का 

राष्ट्रभक्ति :  राष्ट्रीय एकता की भावना के उदय से विदेशी शासन के विरुद्ध हिंदुस्तान के विभिन्न राज्यों मे एक सार्वभौमिक भारत राष्ट्र का विचार सुदृढ़ होने लगा। एकता की यही भावना राष्ट्र को पुन: एक सूत्र में बांधने  का आधार बनी । देश में  राष्ट्रभक्ति, स्वदेशी शासन एवं  स्वभाषा जैसे नए विचारों का उदय हुआ । भारत शब्द का प्रयोग नए संदर्भों में भारतेंदु काल में ही मिलता है। इससे पहले  के कवि राजाओं के आश्रय में रहने के कारण निकट दृष्टि दोष से ग्रस्त रहते थे। उन्हें अपने राजा से वेतन, सुख सुविधाएँ मिलती थीं, अत: उनकी निष्ठा केवल उसी राजा व उसके राज्य से होती थी।

    भारतेंदु युग में शासन का एक नया स्वरूप साहित्यकारों ने देखा, जिसमें कोई एक व्यक्ति राज्य का स्वामी नहीं था। शासक थी एक कंपनी, जो शुरू में व्यापार करने आई थी । कंपनी कोई एक व्यक्ति न होकर व्यक्तियों का समूह थी, अत: कवियों के आगे समस्या थी कि किसका गुणगान  करें। कौन जीविका देगा । 
कंपनी राज मे भारतीयों की दुर्दशा 
    यही वह निर्णायक मोड़  था जहाँ से हमारे आलोच्य काल का साहित्यकार जनोन्मुखी हुआ। राजे रजवाड़ों या फिर कंपनी प्रमुखों के प्रशस्ति गान की अपेक्षा  कवियों ने दरिद्र, शोषित, अशिक्षित व अपमानित किए जा रहे भारत के करोड़ों लोगों की आवाज बनना उचित समझा । अब खेत खलिहानों में दिन रात जानवर की तरह काम कर रहे किसान मजदूर कविताओं के विषय बनने लगे । धर्म के नाम पर चल रहे पाखंडों, आडंबरों की निर्ममता पूर्वक खाल उधेड़ी जाने लगी। भारतभूमि पर राज कर रहे विदेशी शासक  कैसे दौलत लूट कर इंग्लैंड पहुँचा रहे थे- लोक गीतों के रूप में यह सन्देश आम आदमी तक बड़ी सफलता से पहुँचाया जाने लगा ।  राष्ट्र के प्रति एक सामूहिक भावना बनने लगी। भारत माता जैसे नए विचार मूर्त रूप लेने लगे ।
लॉर्ड रिपन 

   और ठीक इसी समय राजनीतिक क्षितिज पर भी एक नई संभावना का उदय  हुआ । इस संभावना का नाम था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस । इस राजनीतिक संस्था के माध्यम से  ब्रिटिश संसद में भारतीयों की आवाज  पहुंचने लगी ।  इससे पूर्व भारतेंदुकाल के प्राय: सभी लेखक  राष्ट्रीय एकता के महत्व को भांप चुके थे । उन्हें इस बात का आभास हो चुका था कि ब्रिटिश शासक इस देश के लोगों को निष्पक्ष शासन कभी नहीं दे सकते । पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने राष्ट्र प्रेम ही नहीं , बल्कि हिन्दी अपनाने का भी खुला संदेश दिया  :

चहहु जो साँचो निज कल्यान, तौ मिलि सब भारत संतान ।
जपौ निरंतर एक जबान  हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान ।
रीझै  अथवा खिजै  जहान , मान होय चाहें  अपमान,
पै न तजो रटिबे की बान, हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान ।
तबहिं सुधरिहै जनम निदान, तबहिं भलौ करिहै भगवान,
जब रहिहै निसि दिन यह ध्यान, हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान ।

भारतेंदु हरिश्चंद्र 
    जिस ब्रिटिश राज में बर्बरता चरम सीमा पर हो, जहाँ जरा सी बात पर राजद्रोह का जुर्म साबित करके फाँसी दे दी जाती हो, जहाँ ब्रिटिश मूल के लोगों को स्थानीय शासितों का वध करने पर भी सजा न मिलती हो, ऐसे विकट समय में इतनी मुखर कविता लिखना आसान काम न था। भारतेंदुकालीन कवियों ने कवि धर्म के साथ साथ  राष्ट्रधर्म  का जिस साहस के साथ पालन किया, उसी के कारण  हिन्दी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है।  
कंपनी सरकार के शासन की समाप्ति तथा ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के शासन ग्रहण करने के अवसर पर भारतेंदु जी ने भी प्रसन्नता प्रकट की थी । उसी समय ब्रिटेन में उदारवादी सरकार बनी थी तथा उदारवादी वायसराय लॉर्ड रिपन को भारत में शासक के प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया था । भारतेंदु जी ने उस अवसर पर कहा था :
विक्टोरिया 

“राज  मैं जाके सबै सुख साज
सुकीरति जासु जो सुन्यो श्री रघुनंदन के समै जात बखानी
नैनन सों  सोई रीति लखानी ।
तार औ रेल की चाल करे हरिचन्द्र’ 
होयत जो लोगन को सुखदानी ।
याते कहैं सगरे मिलिकै । 
चिरजीवौ सदा विक्टोरिया रानी” । 
     
तथा

आओ आओ हे युवराज ।
धन धन भाग हमारे जागे पूरे सब मन काज ।
कहं हम कहं तुम कहं यह धन दिन कहं यह सुभ संयोग।
कहं हत भाग भूमि भारत की कहं तुम से नृप लोग।
बहुत दिनन की सूखी, डाढ़ी, दीना भारत भूमि।
लहि है अमृत-वृष्टि सों आनंद तुव पद-पंकज  चूमि    

भारतेंदु मंडल के प्रसिद्ध कवि प्रेमघन ने भी ब्रिटिश सरकार के शासन पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा :

ईस्ट इंडिया कंपिनीकियो राज काज इत ।
 कियो समित उत्पात होत जे रहे इहाँ नित ॥
उचित प्रबंध अनेक प्रजा हित  वाने कीन्यो । 
आरत भारत प्रजा जियन  कछु ढाड़सु दीन्यो ॥
पै वाकी स्वारथपरता अरु  लोभ अधिकतर ।
 राख्यो चित नितही निज राज बढ़ावन ऊपर ॥ 
अरु व्यापार द्वार सों लाभ अपार लेन  में । 
प्रेमघन 
उद्यम हीन दीन दुख पै नहिं ध्यान देन  मैं  ।।   
हठ करि सोई कियो , जबै  जस वा मन मान्यो ॥
दियो त्रस्त  करि पूरब डरे मानवन के मन ।
 समझ्यो जिन ये चाहत नासन जाति, धर्म, धन ॥
देसी मूढ़ सिपाह कछुक लै कुटिल प्रजा संग । 
 कियो अमित उत्पात रच्यो निज नासन को ढंग ॥
बढ्यो  देस में दुख बनि गई प्रजा अति कातर ।
 फेर्यो तब तुम दया दीठ भारत के ऊपर ॥
लैकर  राज कंपिनी के कर सों निज हाथन । 
किय  सनाथ भोली भारत की प्रजा अनाथन ॥
रही जु भारत प्रजा कहावत प्रजा प्रजा की ।
 सो कलंक हरि  लियो इन्हें दै समता वाकी ॥
ह्याँ की मूढ़ प्रजा के चित को भाव न जान्यो ।
 धन्य  ईसवी  सन अठारह सौ अट्ठावन ।

बेल्लारी मे अकाल की राहत का इंतजार 
विदेशी शासकों के प्रति राजभक्ति परक इन उदाहरणों के आधार पर इस युग के कवियों  को ब्रिटिश शासकों का हितैषी समझना भूल होगी । वस्तुत: इन पंक्तियों में यह संदेश छिपा था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने जो गलतियाँ की थीं, ब्रिटिश सरकार उन्हें न दोहराए । साथ ही नवागत सरकार के साथ मधुर संबंध स्थापित करने का भी यह प्रयास था ताकि भारत की दीन हीन  प्रजा को लूट खसोट से मुक्ति मिले, स्वच्छ, साफ सुथरा प्रशासन मिले तथा विकास में बराबर की भारतीय भागीदारी भी सुनिश्चित हो सके । किन्तु दुर्भाग्यवश जितनी अपेक्षा की गई थी, लाभ उससे काफी कम मिला । उपरोक्त राजभक्ति से पूर्ण कविताओं के बावजूद ब्रिटिश सरकार का मूल चरित्र भी कंपनी सरकार के चरित्र से ज्यादा अलग न था । निष्पक्ष प्रशासन की आशा, गरीबी उन्मूलन व सभी को शिक्षा आदि कुछ मौलिक ज़रूरतें भी पूरी न हो सकीं । लोगों का एक बार फिर मोह भंग हुआ ।
सन 1877 का अकाल 

विदेशी शासन से मुक्ति की कामना एवं तदर्थ प्रयास :  सन् 1873-74 में  बंगाल तथा बिहार में भारी अकाल पड़ा। किन्तु प्रांतीय सरकारों को अकाल पीड़ितों से ज्यादा चिंता राजस्व जुटाने की थी। स्थानीय प्रेस ने इस अमानवीय व्यवहार के प्रति आवाज उठाई तो लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर एक्ट (1878) पास कर दिया। इस एक्ट का उद्देश्य  भारतीय भाषाओं में तथाकथित विद्रोहपूर्ण लेखन को रोकना था । इसके द्वारा कंपनी सरकार ने बिना न्यायालय की स्वीकृति के पुलिस को छापेखानों में प्रवेश तथा तलाशी के अधिकार दे दिये ।
लॉर्ड लिटन 
    यह कानून लॉर्ड लिटन ने जारी किया था ।  इस अधिनियम ने पुलिस तथा जिला मजिस्ट्रेटों को प्रेस संबंधी असीमित अधिकार दे दिये। इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। ब्रिटिश शासन के खिलाफ बुद्धिजीवी वर्ग के खुल कर सामने आ जाने से राष्ट्रीय एकता की भावना और अधिक मजबूत होने लगी। लोग खुल कर अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विरोध करने लगे। व्यक्तिगत तथा राजनीतिक स्तर पर अनेक प्रयास उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे आरंभ होने लगे थे। सन् 1878 में कलकत्ता से “उचितवक्ता नामक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ, जिसके सम्पादक दुर्गाप्रसाद मिश्र थे। इस पत्र का एक उदाहरण यह दर्शाने के लिए काफी है कि लोग विदेशी शासन से ऊब चुके थे तथा अपने भारत राष्ट्र की स्वतंत्रता की कामना करने लगे थे :“ स्वाधीनता खोकर राष्ट्र की चरमोन्नति भी वरेण्य नहीं है” । 
पं प्रताप नारायण मिश्र 

पंडित प्रताप नारायण मिश्र के सम्पादन में सन 1883 में कानपुर से प्रकाशित पत्रिका ब्राह्मण” ने लिखा था-“  हम भिखमंगे नहीं कि हम केवल ग्राहकों की खुशामद का ध्यान रखें । हम भाट नहीं  कि  बड़े  आदमियों  और राजपुरुषों की निरी झूठी स्तुति गाथा करें जो हो सो हो, हम ब्राह्मण हैं ।”  

स्वयं  भारतेंदु जी ने बलिया के अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था:

 “ भारत वर्ष की सब अवस्था,सब  जाति, सब देश में उन्नति करो- चाहे तुम्हें लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, कृतघ्न कहें या भ्रष्ट कहें- कुछ डरो मत । जब तक सौ दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएंगे, दरिद्र न हो जाएंगे, कैद न होंगे, वरंच जान से न मारे जाएंगे तब तक कोई देश नहीं सुधरेगा ।”

इसी प्रकार चरखे को स्वाधीनता का प्रतीक बना कर स्वराज्य की कामना की गई है । बलिया में दिये भारतेन्दु  जी के ऐतिहासिक भाषण का अंश “भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-

चला चल चरखा तू दिन रात । चलता चरख़ बनाता निस दिन ज्यों ग्रीषम बरसात ॥
मन मन मंत्र जपा कर मन में सुन न किसी की बात।कात कात कर सूत मैनचिस्टर को कर दे मात॥
टेकुआ का सर साध धनुष रघुवर की लेकर तांत । लंका से लंकाशायर का कर विलंब बिन घात 
शक्ति सुदर्शन चक्र की दिया हरि  ने तुझे दिखात । तेरे चलने की चरचा सुनि यूरप जी अकुलात ॥
ज्यों ज्यों तू चलता त्यों त्यों आता स्वराज नियरात । परतंत्रता, दीनता भागी जाती खाती लात ॥
चलना तेरा बंद हुआ जब से भारत में तात । दुखी प्रजा तब से न यहाँ की अन्न पेट भर खात ॥
जो कमात दै  देत बिदेसिन बसन काज ललचात । दै दै अन्न  नैनसुख लेत सिटिन साटन बनात ॥
चल तू जिससे खाय दुखी भरपेट दाल औ भात । सस्ता शुद्ध स्वदेशी खद्दर पहिन छिपावैं  गात ॥
हिन्दू मुस्लिम जैन पारसी ईसाई सब जात ।  सुखी होंय हिय भरे प्रेमघन सकल भारती भ्रात ॥    
लॉर्ड मैकाले 

अंग्रेज राजशाही के प्रति निष्ठा : लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के फलस्वरूप देश मे अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा प्रणाली को प्रोत्साहन मिलने लगा। देश मे ऐसा वर्ग तैयार होने लगा, जो अंग्रेजी शिक्षा और विदेशी संस्कृति को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखता था। स्थानीय उद्योगपतियों ने भी अंग्रेजी राज के प्रति मधुर संबंध स्थापित करना ही उचित समझा ताकि वे बिना किसी परेशानी के धनोपार्जन कर सकें। भारतेंदु मंडल के  यशस्वी कवि  बाल मुकुंद गुप्त ने भारत मित्र समाचार पत्र में  ऐसे तथाकथित राजभक्तों  के बारे में  लिखा था ।व्यंग्य का शीर्षक था- पंजाब में लायल्टी।  पंजाब के ये अंग्रेजी पिट्ठू चापलूसी की बेशर्म हरकतों पर उतर आए थे  :

सबके  सब पंजाबी अब हैं लायल्टी में चकनाचूर,
सारा ही पंजाब देश बन जाने को है लायल पुर ।
तथा
श्री बालमुकुंद गुप्त 

सुनते  हैं पंजाब देश सीधा सुर पुर को जाएगा
डिसलायल भारत में रह कर इज्जत नहीं गंवाएगा  ।।

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ अंतर्गत काला कांकर के राजा रामपाल सिंह ने “हिंदोस्थान” नामक हिंदी समाचार पत्र प्रकाशित किया था, जिसके सम्पादक बालमुकुंद गुप्त जी थे । उन्हें कुछ ही समय बाद इस पत्र के सम्पादक की नौकरी से निकाल दिया गया ।  कारण  यह था कि वह ब्रिटिश सरकार की नीतियों की समाचार पत्र में खुल कर आलोचना करते थे । गुप्त जी के मित्र रामलाल मिश्र ने 2 फरवरी 1891 को इस संदर्भ में एक पत्र लिखा था, जिसकी कुछ पंक्तियां  प्रस्तुत हैं :------“काल्ह तिथि 1 के मध्याह्न काल  में राजा साहब ने आज्ञा पत्र मंगा के लिख दिया कि आज मुंशी  जी को आना चाहिये था सो अपने नियतसमय पर नहीं आए इसलिये और हमारे चले जाने पर हिंदोस्थान में उनका लेख जाने योग्य न होगा, कारण गवर्नमेंट के विरुद्ध बड़ा कड़ा लिखते हैं, अतएव इस स्थान के योग्य नहीं हैं,च्युत कर दिये जाएं । ”  (क्रमश:)  


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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