व्यंग्य - देख कबीर रोया

   संत कवि से हमारी पहली मुलाकात जुहू में जितेन्द्र के बंगले के नजदीक हुई थी। सिर पर वही उनी टोपी, किनारों से मुड़ी हुई। एक मोर पंख उसमें खुंसा हुआ। माथे पर चन्दन का रामानन्दी तिलक, सफेद दाढ़ी मूछें, बदन पर झीनी चदरिया, और घुटनों से ऊपर उठी लंगोटी। वह लकड़ी के खड़ाऊं पहने थे। एक हाथ में उनके इकतारा था।

   लाठी पर लटकाई गठरी कांधे से उतार, वह झुणका भाखर (खान-पीने की दूकान) के बराबर में, फुटपाथ पर बैठ गए। फिर इकतारा हाथों में लिया, आंखें मूंद कर मीठे सुर में गाने लगे-

साधो ये मुरदों का गांव!
पीर मरे, पैगम्बर मरि हैं,
मरि हैं ज़िन्दा जोगी,
राजा मरि हैं, परजा मरि हैं,
मरि हैं बैद और रोगी।
साधो ये मुरदों का गांव!.........

   सुरों में ऐसा गज़ब का जादू था कि हम ठिठके रह गए। फलों की ठेली वाला यादव तथा पीसीओ वाला तिवारी भी काम छोड़ कर वहीं आ गए। यूपी बिहार वाले आटो चालक हों, चाहे झुणका भाखर पर चाय पीते, खाना खाते लोग-सभी संत के ईद-गिर्द जमा हो गए।

            संत अब दूसरा भजन गाने लगे, जिसके बोल थे-

            अरे इन दोउन राह न पाई।
            हिन्दू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
            वेश्या के पायन तर सोवै यह देखो हिंदुवाई।
            मुसलमान के पीर औलिया, मुरगी मुरगा खाई।
            खाला के घर बेटी ब्याहैं, घर में करैं सगाई।
            अरे इन दोउन राह न पाई............

            यह भजन सुन कर हमारे कान खड़े हुए। अकल में बात आ गई कि ये फकत आटे के कनस्तर वाले संत नहीं हैं, ये तो कोई पहुंचे हुए फक्कड़ हैं। हमने उन्हें गरमागरम चाय, रोटी तथा कांदा भाजी दी। थोड़ी देर बार एक प्लेट चावल-दाल व सब्जी भी पेश की।

    संत जी ने अभी दो-चार ग्रास ही खाए  थे कि एक कुतिया अपने पिल्लों के साथ करीब आ बैठी व टुकुर-टुकुर देखने लगी। पिल्ले भी ललचाई आंखों से उन्हें खाते देख रहे थे।

   संत-हृदय पसीज गया। आंखें भर आईं। भरी प्लेट उठाई और कुतिया के आगे पलट दी। हाथ धोए, पानी पिया और आ बैठे अपने गठरी-तानपूरे के पास। कुतिया व पिल्ले पूंछ हिला-हिला कर प्रेम से खा रहे थे। आंसू पोंछते संत हंसते हुए कह रहे थे-

            पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंड़ित भया न कोय।
            ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।

  कहते हुए संत उठे, व चल पड़े। वह बड़बड़ाते जा रहे थे-

            हम घर फूंका आपना, लिया मुराड़ा हाथ।
            अब घर जारौं तासुका, जो चलै हमारे साथ।।

       हम संत को लिंकिंग रोड़ की तरफ जाते देखते रह गए, अफसोस हुआ कि उनके साथ चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए ।

     एक रोज सवेरे-सवेरे हम कैफी आजमी पार्क की तरफ जा रहे थे कि संत जी सामने से आते दीख पड़े। उसी वक्त इर्ला मस्जिद के लाउड स्पीकर से अजान की तेज आवाज आई।

            सतं जी सड़क के किनारे बैठ कर गाने लगे-

            कांकर पाथर जोर के मसजिद लई चुनाय।
            ता चाढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय ?

    हमने समझाया-संत जी होश में आओ। किसी मजहब की मुखालफत करना अच्छा नहीं माना जाता। मगर संत जी पर कोई असर न हुआ। तभी पड़ोस के मंदिर से घंटे-घड़ियाल बजने लगे। पूजा की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं।

      संत जी बोले-ये हिन्दू कौन से कम हैं-

            पाहन पूजे हरि मिलैं, मै पूजूं पहार।
            ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार।।

      हमें आभास हो गया कि संत कवि का सामना करना मुमकिन नहीं है। संत जो कुछ कह रहे हैं वह कड़वा सच है, जबकि हम लोग जो करते हैं, वह कोल्हू के बैल सी परिक्रमा है। हजारों-लाखों साल भी चलते रहे तो कहीं नहीं पहुंचेंगे। वहीं के वहीं रहेंगे।

      जिस वक्त हमारे जेहन में यह बात उठी, संत कवि हमारे मुंह की तरफ ध्यान से देख थे। आंखें चार हुई। हम झेंपे। खिसियाए । संत जी मुस्कराकर बोले-

            तू कहता है लेखन लेखी,
            मैं कहता हूं आंखन देखी।

    हमने गरदन झुकाई व आर्य विद्या मन्दिर की तरफ बढ़ गए, ठीक उसी तरह, जैसे कोई मरियल कुत्ता किसी ताकतवर कुत्ते को देख, भिड़ने का इरादा छोड़, पूंछ दबा कर  खिसक लेता है।

    रामनवमी वाले रोज तो संत कवि हमारी कालोनी के पास ही मिले। बगल वाली रामकृष्ण सोसायटी में इस्कान वाले भक्त कीर्तन कर रहे थे। उनके सिर मुंडे हुए थे।  भगवा कुर्ता -धोती पहने पांच-छह भक्त लाउडस्पीकर पर संगीत के साथ भजन गा रहे थे। वहां जमा हुए लोग  भाव विभोर हो कर झूम रहे थे।

     हम जान बूझ कर संत कवि के पास से गुजरे। वे भगवा भक्तों की तरफ देख कर बड़बड़ा रहे थे-

       केसन कहा बिगारिया, जो मूडै़ सौ बार।
       मन को क्यूं ना मूड़िये जामे विषय विकार।।

     हमने प्रार्थना की कि ऐसे दोहे जोर से न बोलें। किसी ने पुलिस को खबर कर दी तो ‘मकोका’ एक्ट में उठवा लिये जाइयेगा। फिर जाने कब तक हवालात की हवा खानी पड़े।

      संत जी बोले-सच ही तो कहता हूं। सिर मुड़ाने से मुक्ति मिलने लगती तो दुनियां की सारी भेड़ों को जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा मिल गया होता- क्योंकि केशों  के लिये उन्हें साल में कई बार मूंडा जाता है। रोज तीन-तीन वक्त नहाने से भी अगर गति मिलती तो नदी पोखरों की सारी मछलियां मोक्ष पा गई होतीं, क्योंकि वे तो रात-दिन पानीं मे ही रहती हैं। तो भइया-ये सब ढोंग ढकोसले बहुत हो लिये। सच्ची बात तो ये है कि-

            ज्यों तिल मांहीं तेल है, ज्यों चकमक में आग।
            तेरा साईं  तुझ  में  जाग  सके  तो  जाग।।

  फिर वे उठे और ऊंचे सुर में गाते हुए इकोल मोंडियल पब्लिक स्कूल की तरफ चल पड़े-

            मो को कहां ढूंढता बन्दे मैं तो तेरे पास में।
            ना मैं बकरी ना मैं भेड़ा ना मैं छुरी गंड़ास में।
            ना मै मन्दिर ना मैं मसजिद ना काबे कैलास मे........

      एक दिन की बात है । संत कवि जुहू बीच पर बैठे समुद्र की उमड़ती लहरें देख रहे थे। समुद्र में ज्वार उठ रहा था। ऊंची लहरें आहिस्ता-आहिस्ता किनारे की तरफ बढ़ रही थीं।

       हमने भेलपूरी का दौना बनवाया और संत जी की खिदमत में पेश किया। उन्होने खुशी से कबूल किया और चाव से खान लगे। पहले हमने उनका मूड भांपा, फिर पूछा- महात्मा जी, उन लोगों के बारे में आपकी क्या राय है, जो न ढोंग करते हैं, न कुरबानी देते हैं, न पत्थर पूजते हैं, जो बेचारे रात-दिन माला फेरते रहते हैं।

      सुन कर संत कवि मुस्कराए  व बोले-पिछले महीने मैं देहरादून गया था। वहां हमारा भक्त स्वामी अमरजीत है-उसने दीक्षा समारोह मे बुलाया था। माला जपाई का असली रूप उसी के आश्रम में देखा। स्वामी खुद लाल रंग की लंबी गोमुखी में हाथ डाले माला जप रहा था। सामने टीवी पर इंडिया-साउथ अफ्रीका का मैच चल रहा था। दीक्षा लेने आए  सभी शिष्य एकाग्र हो कर लाइव टेलीकास्ट देख रहे थे। इधर स्वामी हमसे निर्गुण  भक्ति पर चर्चा करते, उधर कनखियों से मैच भी देखते जाते। माला-जाप भी यंत्रवत चल रहा था। फिर अचानक शिष्यों से पूछते-स्कोर कितना हुआ ? सचिन आउट हुआ या नहीं ? कितनी विकटें बाकी हैं ? कितने रनों की और जरूरत है जीतने के लिए  ?

    जब पता चलता कि सचिन आउट नहीं हुआ तो उनके चेहरे पर संतोष व मुस्कराहट फैल जाती। आंखें मूंद कर मन ही मन जाप करते जाते तथा माला तेजी से फेरने लगते।

   स्वामी का हाल देख कर मुझे कहना पड़ा-बेटा अमरजीत, एक जनम तो क्या, तू सैकड़ों जनम ले कर भी माला फेरता रहा तो कुछ होने वाला नहीं-

माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डारके, मन का मनका फेर।।

 इस पर स्वामी दो मिनट के लिये खिसियाया, और फिर शुरू हो गया-

‘हां भइ संतों, कितनी विकटें बाकी हैं.......’

हमने फिर एक सवाल पूछा-संत जी आजकल ये जो जात-पांत है-ये पहले से कम हुआ या बढ़ा ?

     संत कवि बोले-पहले से कम हो सकता था लेकिन ये धूर्त राजनीति बाज इसे खत्म नहीं होने देते। लोगों को अगड़े-पिछड़े के बाड़ों में घेर कर मजे से सत्ता सुख लूट रहे हैं। आरक्षण की डुगडुगी बजा कर बन्दरों की तरह नचा रहे हैं सबको।

फिर अचानक जाने क्या हुआ। संत कवि ने गठरी व इकतारा उठाया व गाते हुए चल दिए -

जात-पांत पूछै नहिं कोई           ।
हरि को भजै सो हरि को होई     ॥

जाते हुए संत को देख कर हम सोच रहे थे कि छह सौ साल के बाद भी अपने यहां कुछ नहीं बदला। कुछ भी नहीं।

(समाप्त)

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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