पृथ्वी-लोक में नारी-जागरण काल चल रहा था। अंतर्राष्ट्रीय महिला
दिवस, मां-दिवस, वैलेंटाइन दिवस, नारी
सशक्तीकरण, महिला आरक्षण आदि के जरिये नारियां शक्ति-प्रर्दशन कर रही
थीं ।
हालत यह थी कि संसद से लेकर सड़क तक नारी ही छाई हुई थी। मृत्युलोक मे नारी
के खिलाफ बल-प्रयोग अब सपनों की बातें हो चुकी थीं । यहां तक कि मुंह खोलना भी
दंडनीय अपराध करार दिया गया । खुद को मर्द कहने वाले जाने किस जहां में खो गए ?
उन कवियों,
लेखकों की भी अब साढे़साती
शुरू हो चुकी थी जिन्होने कभी अच्छे दिनों में नारी को ऐसा-वैसा कह दिया था।
तो ऐसी संकट की घड़ी मे बेचारे गोस्वामी जी भी निशाने पर आ ही गए । बहुत दिनों तक
लुकते-छिपते भए, पर बकरे की मां कब तक खैर मनाती ? आखिर रत्नावली ने गोस्वामी जी के मोबाइल से उनकी
लोकेशन ट्रेस कर ही डाली । खुफिया जानकारी के आधार पर महिला पुलिस ने छापा मार कर गोस्वामी
जी को उठवाा लिया। महिला आयोग ने उन पर केस दायर कर दिया । केस भी मान-हानि का।
रोज तारीख लगने लगी। भरी दोपहर में,
जब पखेरू तक पेड़ों के
घने पत्तें में छिपे आराम करते, गोस्वामी जी खटारा साइकिल पर बैठ, पसीने
से नहाए हुए, महिला आयोग के दफ्तर की खाक छान रहे होते । पीछे रिफरेंस के
लिये गीता-प्रेस गोरखपुर से छपी मोटे टाइप वाली रामचरित मानस,
विनय पत्रिका तथा
हनुमान चालीसा कैरियल पर बंधी रहतीं ।
जब गोस्वामी जी अदालत पहुंचे
तो देखा-जज की कुरसी पर आयोग की अध्यक्षा विराजमान थीं। उनका आकार ‘विराट’ शब्द को
भी लज्जित कर रहा था। उनका कुल भार दो सौ किलोग्राम के आजू-बाजू रहा होगा। कुरसी
नामक काठ के जिस आसन पर वह स्थापित थीं,
उसकी टांगें रह-रह कर थरथरा
उठतीं। उस आसन की कोई भी चूल ऐसी नहीं बची थी,
जो अपनी जगह से हिल
हिल कर हट न चुकी हो।

महिला वकील भी उन्हीं का पाकेट बुक एडीशन प्रतीत होती
थीं। कटघरे में असहाय, निरूपाय और भयभीत खड़े गोस्वामी जी हनुमान चालीसा की
पंक्तियां बुदबुदा रहे थे- भूत पिसाच निकट नहिं आवैं, महावीर
जब नाम सुनावैं... । साथ ही ‘मानस’ के पन्ने पलट-पलट कर मतलब की चीजें खंगाल ही
रहे थे कि अचानक उनके हाथ से पुस्तक छूट
कर गिर पड़ी। कड़कड़ाती आसमानी बिजली सी आवाज उनके कानों पर गिरी -‘आडर-आडर,
कारवाई शुरू की जाए।’
महिला वकील बोली
-मी लार्ड ! ये जो शख्स कटघरे में खड़ा है,
यह नारी जाति का घोर
शत्रु है। इसने अपनी किताब में नारी को वो जली-कटी सुनाई है कि जिसकी मिसाल नहीं
मिलती। मी लार्ड मैं इस शख्स से चन्द सवालात पूछने की इजाजत चाहती हूं’।
महाकवि पीपल के सूखे पत्ते से कांप उठे। वकील उनकी तरफ मुड़ कर बोली
-मिस्टर
गोस्वामी,एक्सप्लेन करिए,
आपने क्यों लिखा- ढोल
गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी ?
क्या ये सच नहीं है कि
आप जानबूझ कर नारी को अपमानित करना चाहते थे ?
गोस्वामी जी मिमियाए
- हे अतुलित बल स्वामिनी,
मै मानता हूं कि मानस
के पात्रों ने कई जगह नारी की आलोचना की होगी। पर उसके लिये दोष मुझे क्यों देती
हैं ? सिचुएशन की डिमांड के हिसाब से ही तो पात्र बोलेंगे,
मेरी मरजी से थोड़े ही ?
महिला वकील
- गोस्वामी,
तुम पर आरोप है कि
तुमने पात्रों के जरिये नारी पर अपनी झल्लाहट उतारी है। तुम्हारे पात्र,
तुम्हारी भाषा बोले
हैं, तुम्हारी नारी सिर्फ रत्नावली है। चाहे उसका नाम सीता हो, कैकेयी
हो, मंथरा हो, त्रिजटा हो, ताड़का
हो या सूपनखा । बोलो,
क्या ये बात सही नहीं ?
गोस्वामी
- हे वकीलेश्वरी,
आप मानस के पात्रो को
कानूनी झगड़ों मे क्यों घसीटती हैं ?
आखिर मानस एक महाकाव्य
है। उसमें दर्जनों करेक्टर्स हैं, सैकड़ों सिच्वेशंस हैं,
अगणित मनोदशाएंं हैं । जाहिर
है कि पात्रों की भाषा भी उसी के अनुसार होगी। अब देखिए,
ननिहाल से आकर भरत,
मां से कहते हैं-
वर मांगत मन भइ नहिं पीरा,
जरि न जीभ मुख परेऊ न कीरा ?
क्या भरत का यह आक्रोश स्वाभाविक नहीं है ?
क्या मैं भरत से यह
बुलवाता -
अति उत्तम कारज तुम कीना,
निष्कंटक मारग मम कीना !
एक दुष्टतापूर्ण कार्य के लिए क्या कैकेयी का नागरिक
अभिनन्दन कराना चाहती हैंं आप ? छल-प्रपंच से सत्ता हासिल करना केकय देश की परंपरा बेशक रही
हो, रघुवंश की परंपरा बिल्कुल न थी। अतः उस सिच्वेशन में भरत ने
जो कुछ कहा, उचित ही तो कहा।’
एक क्षण के लिए महिला अधिवक्ता सकपकाई कि क्या कहे,
क्या न कहे ?
किन्तु जल्दी ही संभल कर
बोली
- ‘जब रत्नावली रूठ कर मायके जा रही थी तो उसी वक्त तुम पीछे-पीछे क्यों नहीं भागे ?’
- हे वाग्विलासिनी,
मैने सोचा था दो चार
रोज में रत्ना का पारा नीचे उतर जाएगा,
गरम-गरम में हाथ डालने
से अपने ही हाथ जलते। फिर भी मैं दौड़कर पहुंचा तो था। आप स्वयं देखिये- कितनी विकट
परिस्थितियां थीं !
.....सावन-भादों की अंधेरी रात,
मूसलाधार बारिश,
नदी-नाले सब चढ़े हुए,
नदी पार करने के लिये
मैने बहकर आती अरथी का सहारा लिया,
मुरदे को फेंका नदी
में और कहा उसे कि जा, तेरा रोल तो हो गया पूरा,
अब ये नौका रूपी अरथी
मुझे दे दे। फिर रत्ना के यहां पहुंचा। दोमहले से लटकते अजगर को रस्सी मान कर गिरता-पड़ता,
भीगा,
कीचड़ में सना,
भूखा-प्यासा उनके
सामने पहुंचा। सोचा था हमारे वीरतापूर्ण कृत्य पर रत्ना जी प्रसन्न होंगी। इनाम
देंगी, लेकिन इनाम किताब तो रहा दूर- उलटे भक्ति सिखाने लगीं-
लाज न आई आपको,
दौरे आयहु साथ।
धिक धिक ऐसे
प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।।
अस्थि चर्म मय
देह यह, तामें ऐसी प्रीति।
तैसी जो श्री राम
में होति न तो भय भीति।।
अब आप ही बताएं वकीलेश्वरी जी,
बेसुरा राग मैने बजाया
था कि रत्ना जी ने ? हू वाज एट फाल्ट ?
शृंगार वेला में भक्ति
संगीत ! भला किसे पचेगा ?

उधर वकील
साहिबा भी रत्ना जी के रोल को जस्टीफाई नही कर पा रही थी। सो घूम फिर कर वह मानस
पर लौट आई । बोली- आपने एक जगह लिखा है-
महावृष्टि चलि फूटि कियारी।
जिमि स्वतंत्र भये बिगरै नारी।।
तो जनाब आप क्या नारी को दासी या लौंडी समझे बैठे हैं ?
क्या वह स्वतंत्र नहीं
रह सकती? और बिगड़ने से क्या मतलब है आपका ?
जब आप तमाम मर्यादा रूपी
जंजीरों से नारी को बांधे रहेंगे तभी तो
स्वतंत्र होने की बात उठेगी और खूंटे पर बंधी गाय जब खुलेगी तो इधर-उधर उजाड़ तो
करेगी ही। फिर व्हाट डू यू मीन बाय ‘बिगरै नारी’ ?
गोस्वामी
- हे वकील कुल वल्लभ की प्रभा ! यह तो प्रकृति का शाश्वत नियम है कि यों ही
पड़ी-पड़ी चीजें खराब हो जाती हैं। फल पकने पर खाए न जाएं तो सड़ जाते हैं। कलिकाओं से बने पुष्प
यदि चुन कर अर्पित न किए जाएं तो मुरझा
जाते हैं। तलवार अगर रक्त-पान न करे तो जंग खा जाती है। अब आगे क्या कहूं,
आप खुद समझदार हैं।
- मी लार्ड,
ये शख्स जितना शरीफ
नजर आता है, ये उतना ही पहुंचा हुआ बदमाश है। इसने अपनी किताब में नारी-पात्रों के साथ
बहुत नाइन्साफी की है। दशरथ वैसे ही डेथ बेड पर पड़े थे पर उनकी मौत का दोष कैकेयी के मत्थे मढ़ दिया । भरत के मुंह से कैकेयी को जली-कटी सुनवाई। मंथरा
दासी की तो पिटाई तक कराई। कहां बेचारी मंथरा इनाम की हकादार थी और कहां उसके कूबड़ पर लातों और मुक्कों की बारिश कराई । उर्मिला को चौदह साल
लक्ष्मण से अलग रखा। सीता जी साथ गई तो उन्हें किडनैप करा दिया। सूपनखा की नाक
कटवाई। तारा के पति बालि का सरे आम एनकाउंटर करा दिया । लंका की लाखों राक्षसियों
को वार विडो बनाया,
सिंहिका को पीटा,
लंका नाम की सिक्योरिटी
गार्ड को हनुमान जी से घूंसे बजवाए। सुरक्षा की इन्सल्ट की। और सीता जी को आग में
झोंका, यानी अग्निपरीक्षा कराई।
मी लार्ड, हद तो तब हुई जब निर्दोष साबित होने के बावजूद एक बेवडे़
धोबी के कहने पर फिर से सीता जी को जंगल भेज दिया,
जबकि वह प्रेग्नेंट थी
! तो मी लार्ड, आप खुद देखिये-अपनी किताब में इस शख्स ने नारी को गालियां
दिलवाई, उन्हें पिटवाया,
उन्हें चरित्रहीन
सिद्ध किया। ये आरोप सीरियस हैं मी लार्ड
! मेरी अदालत से गुजारिश है कि मुजरिम को ऐसी कड़ी सजा सुनाई जाए कि फ्यूचर में कोई
कवि नारी पर लिखने की हिम्मत न जुटा सके।
-‘सारी बहस
सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंचती है कि मुजरिम हाइक्लास इंटेलेक्चुअल होते
हुए भी नारी के प्रति दुर्भावना रखता है। वह मानस के पात्रों की आड़ में नारी को बेहिसाब गालियां दे चुका है।
इसकी सजा ये है कि इसे जगह-जगह तीर्थाटन के बहाने
छुट्टा न छोड़ा जाय । रत्नावली आज ही घर लौटे और भूल कर भी मायके का रूख न करे,
बल्कि इसकी माता हुलसी
भी साथ आकर रहें। पूरे दस साल तक अपराधी को तीर्थयात्रा न करने दी जाए। मां, पत्नी
तथा बच्चों का पूरा खर्चा यह शख्स खुद उठाए। तब जा कर कहीं इसके पापों का
प्रायश्चित हो सकेगा ।
सजा सुनकर गोस्वामी जी को सुध न रही। वह कटघरे मे ही बेहोश
हो कर गिर पड़े ।
(समाप्त)
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