लेख - भारतेंदु युगीन परिस्थितियां और हिंदी साहित्य (भाग-2)


कलकत्ता विश्वविद्यालय 
राजनीतिक परिवेश :  उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भले ही भारतीय उपमहाद्वीप ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश बन गया था, किन्तु यह प्रक्रिया अठारहवीं शताब्दी में आरंभ हो चुकी  थी।

1.                  सन् 1757 को प्लासी की लड़ाई में कंपनी ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया। इस जीत से सारे बंगाल पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

2.                   इसके केवल सात वर्ष बाद सन् 1764 में बक्सर की लड़ाई हुई जिसमें अंग्रेजों ने मुगल सम्राट शाह आलम को हरा दिया। उसके केवल एक वर्ष बाद सन् 1765 में एक बार फिर बिहार के कड़ा के युद्ध में मुगल सम्राट की हार हुई। इससे प्रसन्न होकर उत्तर पूर्वी भारत के तीन बड़े प्रांतों-बंगाल, उड़ीसा व बिहार  की दीवानी को सम्राट ने अंग्रेजों को बख़्श दिया ।

लोगो
3.                  सन् 1803 में असाई के युद्ध में मराठों की पराजय ने अंग्रेजी कम्पनी का वर्चस्व दक्षिण और उत्तरी भारत में भी स्थापित कर दिया । 

4.                  सन् 1849 में अंग्रेजी शासकों ने महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र महाराजा दलीप सिंह को पराजित कर दिया। इस प्रकार सारे पंजाब पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 

5.                  सन् 1856 में कम्पनी ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला को पेंशन देकर इंग्लैंड भेज दिया । इस प्रकार बंगाल से पंजाब तक सम्पूर्ण उत्तर भारत कम्पनी के नियंत्रण में आ गया  
इंसानो से जानवरों का काम 
6.                  दक्षिण में पहले ही सारा तटीय क्षेत्र अंग्रेजी हुकूमत के नियंत्रण में आ चुका था ।  मध्य भारत के कुछ छोटे राज्य, जैसे हैदराबाद की रियासत, सिंधिया, होल्कर, गायकवाड, व राजस्थान के कुछ राजवंश भले ही अब भी निजाम, सुल्तान या राजा कहलाते थे, किंतु अंग्रेजों के “गोद का नियम” जैसे कुछ नियम उन पर भी लागू होते थे । झांसी राज्य में यही हुआ । 

            अंग्रेजों  के सहसा बढ़े इस वर्चस्व ने  देशी राजाओं के सामने न केवल अस्तित्व का,  बल्कि आत्म सम्मान का प्रश्न भी खड़ा कर दिया । दिल्ली का बादशाह  बहादुर शाह जफर नाम मात्र का बादशाह था । उसकी सत्ता केवल लाल किले की चहार दिवारियों के भीतर तक ही सिमट गई । सभी देसी राजाओं ने मिल कर अंग्रेजों को मार भगाने के लिए एक जुट होकर सन् 1857 में एक निर्णायक युद्ध लड़ा ।  विदेशी शासकों के खिलाफ इस लड़ाई को आज़ादी की पहली लड़ाई के रूप में जाना जाता है । इस लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई । जीत के बाद भारत ब्रिटेन की महारानी के नियंत्रण वाले उपनिवेशों में से एक हो गया। ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधि के तौर पर अब भारत में वायसराय की नियुक्ति होने लगी । 

 राष्ट्रीय पुनर्जागरण:  पहले वायसराय लॉर्ड केनिंग (1856-61) ने महारानी विक्टोरिया के घोषणा-पत्र के अनुसार भारत में तीन विश्व विद्यालयों, कलकत्ता  बम्बई  तथा मद्रास  की स्थापना की । इतने विशाल भूभाग का शासन चलाने के लिए नई शिक्षा पद्धति लागू करना राजनीतिक दृष्टि से बहुत  जरूरी था ।  नई शिक्षा प्रणाली लागू होने से जन  साधारण में प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक  था ।  अंग्रेजों से पहले  राजाओं की अपनी अपनी शिक्षा नीतियाँ थीं। कहीं गुरुकुल पद्धति से संस्कृत माध्यम में  प्राचीन विद्याओं जैसे आयुर्वेद, कर्मकांड, ज्योतिष, धर्म और दर्शन  आदि की शिक्षा दी जा रही थी तो मदरसों में उर्दू फारसी अरबी आदि के माध्यम से पढ़ाई कराई जा रही थी। ग्रामीण भारत में शिक्षा का माध्यम थी- वहाँ प्रचलित भाषाएँ व बोलियां । राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रज, बुन्देली, आदि स्थानीय भाषाओं व बोलियों का प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में काफी प्रचार था। इसी प्रकार दक्षिण भारत में भी संस्कृत, तमिल आदि भाषाओं के माध्यम से ही शिक्षा दी जाती थी।
पहनावा 

कहने का तात्पर्य यह है कि  शिक्षा के माध्यम के रूप में पूरे देश में कोई एक नीति न थी।  अंग्रेजों के शासन में चूंकि भारत का अधिकांश भाग आ चुका था, और  स्थानीय भाषा बोलियों के माध्यम से प्रजा को शिक्षित  करना प्रशासनिक दृष्टि से भी असुविधाजनक था, अत: पूरे देश में उन्होने अंग्रेजी के माध्यम से उच्च शिक्षा देने का निर्णय लिया। बाद में माध्यमिक, तथा प्राथमिक स्तर पर भी पाठ्यक्रमों में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा।

भारत मे रेल का आगमन (मालगाड़ी) 
इस   प्रतिक्रिया के फलस्वरूप  देश में पुन: वैदिक सभ्यता के प्रति आस्था की भावना उत्पन्न हुई. ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज, प्रार्थना-सभा जैसी  अनेक संस्थाओं का जन्म हुआ ।  सम्पर्क-भाषा के रूप में खड़ी बोली का तेजी से विकास होने लगा । 

यात्री रेल 
स्थिति यह थी कि जितनी तेजी से विदेशी शासन देश में अपनी सभ्यता व संस्कृति की जड़ें जमा रहा था, उतनी तेजी से ही देश में अपनी सभ्यता, संस्कृति व भाषा के प्रति लगाव बढ़ने लगा ।  साथ ही सामाजिक जागरण के फलस्वरूप   प्राचीन कुरीतियों, जैसे कि सती प्रथा, बाल विवाह, आदि  के विरुद्ध भी आवाजें उठने लगी थी।  अंग्रेजी भाषा के बलात थोपे जाने, यूरोपीय रहन सहन व खानपान के प्रचलित होने, पवित्र माने जाने वाले पशुओं  को खाद्य सामग्री समझने वाले शासकों के विरुद्ध असंतोष धीरे धीरे ही सही, पर भूसे में दबी आग की तरह बढ़ता जा रहा था। त्वचा के रंग के आधार पर पक्षपात चरम सीमा तक था।  इन सभी कारणों से लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना का उदय होने लगा। एक सार्वभौम राष्ट्र भारत, की संकल्पना लोगों के भीतर अंकुरित होने लगी। अपनी संस्कृति, भाषा , सभ्यता , परंपराओं व मान्यताओं की रक्षा के लिए बौद्धिक स्तर पर कोशिशें आरंभ हो चुकी थीं।

आधुनिक  शिक्षा 
राष्ट्रीय पुनर्जागरण में तत्कालीन पत्रकारों की भूमिका भी कम न थी। भारतेंदु जी द्वारा संपादित व प्रकाशित पत्रिका ;कवि वचन सुधा के फरवरी 1884 के अंक  के अनुसार 1884 ईसवी में 43 स्वदेशीय संस्थाएं, जन  जागृति फैला रही थीं।“
सच तो यह है कि स्वाधीनता के आंदोलन के स्पष्ट आकार ग्रहण करने से पहले ही पत्रकारिता ने युगीन परिवेश का  राष्ट्रीय पुनर्जागरण के साथ तादात्म्य स्थापित कर दिया था। भले ही भारतीय पत्रकारिता तब अपने शैशव काल में ही थी, किन्तु अभिव्यक्ति के स्तर पर राष्ट्रीय जागरण की अपनी भूमिका का निर्वाह वह पूरी प्रौढ़ता व परिपक्वता के साथ करने लगी थी।

डॉ मीरा रानी  बल के अनुसार “ ईसाई धर्म प्रचार तथा अंग्रेजी शासकों की लूट और शोषण नीति से भारतीय सांस्कृतिक तथा आर्थिक वैशिष्ट्य का नामोनिशां मिटने लगा था। प्रतिक्रियास्वरूप लोक- मानस की विचारधारा और परिवेश में उद्वेलन और उत्क्रांति शुरू हो गई थी। “  
किसान आंदोलन 

डॉ जगदीश शर्मा कहते हैं, “ भारतीय नव जागरण न तो औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप  हुआ और न इस कारण कि अंग्रेजी शिक्षा ने उसे नई वैज्ञानिक चेतना दी थी, क्योंकि यह जिस काल की बात है, उसमें अंग्रेज लड़ाइयाँ लड़ने में लगे थे और कंपनी के रिटायर्ड कुछ कर्मचारियों  ने केवल चाय  बागान बनाने और नील की खेती करने में ही रुचि ली थी। अंग्रेजी शिक्षा का व्यापक विकास भी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य से नहीं हुआ था। हालांकि प्रत्यक्ष में ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय नव जागरण की प्रक्रिया अति जटिल, गहन एवं अंतर्विरोधों से युक्त थी; उसके मूल में न जाने कितनी प्रेरक शक्तियाँ, ऐतिहासिक अंतर्धाराएँ, सामयिक परिस्थितियाँ एवं मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएँ काम कर रही थीं जिनका अंत:संबंध नव जागरण की आत्मा से था  यद्यपि ब्रिटिश कूटनीतिज्ञ शासक  तथा अंग्रेज इतिहासकार सुनियोजित प्रचारतंत्र के माध्यम से यह मोहक भ्रम जाल फैला रहे थे कि वे भारत में शांति, सुव्यवस्था और सभ्यता के लिए शासन कर रहे हैं, अपने आर्थिक हितों के लिए नहीं।

मित्र विलास नामक लाहौर से निकलने वाले पत्र ने इस षडयंत्र का खुलासा करते हुए लिखा था,  “ हिंदुस्तान अंग्रेजों के राज्य का एक बड़ा अंश  है .. अंग्रेजों का अपना देशअर्थात ग्रेट ब्रिटेन एक छोटा टापू है। ...सौदागरों का एक दल आकर 23,00,000 वर्ग मील के एक राज्य को अपने हाथ में करना किसको सत्य प्रतीत होता था ।..कौन मानता था कि कभी के यह सौदागर जो हम लोगों से गिड़गिड़ाकर सौदा ले जाने और एक इंच भूमि के लिए हमारे पाँव चूमते थे, कभी ये हमीं लोगों पर पातालीय जीवों की न्यायीं आ धमकेंगे और हम लोगों को बकरी-भेड़ों की न्यायीं मारते और चराते रहेंगे .. यद्यपि अंग्रेज यूरोप में एक उच्च पदवी राष्ट्र है परंतु वह पदवी एक  हिन्दुस्तान के कारण है।यदि हिन्दुस्तान अंग्रेजों के पास न हो तो वह भी ग्रीस इटली की न्यायीं एक छोटे राजा गिने जाते ..”

राष्ट्रीय जागरण के इस महायज्ञ में हिन्दी प्रदीप भी पीछे नहीं रहा । इस पत्र ने बड़ी निर्भीकता से कंपनी शासन की वास्तविकता का उल्लेख किया है : “ कानून की कड़ाई कैसी होती है, कोई जानता नहीं था । हर चीज़ इतनी सस्ती थी कि पूरा गृहस्थ 20 आदमी के कुनबे वाला 10 या 15 रुपए में लाल गुलाल था ....वैसा ही सब तरह का रोजगार, देशी  वस्तुओं का चलन, देशी कारीगरों की चाह, रहने से देश में धन समाता नहीं था ।.... अस्तु वे दिन सपने हो गए । अब के समान बड़े से बड़ा इम्तिहान पास कर ठिकरा लिए भीख माँगते न फिरते थे। ... विलायत की सभ्यता सब ओर टाँग पसार रही है । रेल हिन्दुस्तान के नस नस में व्याप गई....देशी कारीगरी, देशी वस्तुओं का रिजगार एक कलम बंद हो गया । सिवाय नौकरी और खेती के कोई जीविका नहीं रह गई”   
(समाप्त) 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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