लेख - स्वतंत्र राष्ट्र में नागरिक का आत्मसम्मान ( Self Esteem of a citizen in an independent nation)


आज हम भारत मे पूंजीवाद के बिल्कुल वैसे ही लिजलिजे, संवेदनहीन, घिनौने, दोगले  व खौफनाक  चेहरे को देख रहे हैं जो 1917 से पहले  जार शासकों के वक्त रूस मे दम तोड़ रहा था।  फर्क है तो यही कि एक जगह राजशाही थी और दूसरी जगह लोकतंत्र है । इस नाम मात्र के लोकतंत्र मे  देश की ज्यादातर दौलत मुट्ठी भर लोगों के पास है जो ऐशो आराम से जी रहे हैं । देश की बाकी नब्बे प्रतिशत आबादी भुखमरी, बेरोजगारी और निराशा  के अंधेरे मे जीने को मजबूर है ।   

ऐसा क्यों है ?

कारण जानने के लिए हमें लोकतंत्र के मूल ढांचे पर आना पड़ेगा । लोकतंत्र के दो पक्ष होते हैं । पहला पक्ष, यानी जनता,  जिसकी बेहतरी के लिए तंत्र बनाया जाता है ।  दूसरा पक्ष, यानी सरकार, जो तंत्र को चलाती है ।  जनता मताधिकार का प्रयोग करके सरकार बनाती है । जनता के वोट को जाति, संप्रदाय, धर्म, क्षेत्र, लिंग  आदि के आधार पर नही बांटा जाता ।   सबके वोट की कीमत बराबर होती है ।

सरकार कैसी बनेगी- यह जिम्मेदारी मतदाता की है। उम्मीदवार को चुनते वक्त उसकी विश्वसनीयता, सबको साथ लेकर चलने की योग्यता  व लोकतंत्र के प्रति उसकी निष्ठा  देखी जानी चाहिए ।  ऐसा उम्मीदवार  जब विकास की योजना बनाएगा तो हर परिवार का ध्यान रखेगा ।  वह समझेगा कि हवा, पानी और भोजन की तरह विकास भी सबकी  जरूरत  है ।  ऐसा उम्मीदवार जीतने के बाद सभी के फायदे के लिए काम करेगा ।  कोई छूटेगा नहीं ।  

   लेकिन होता यह है कि  उम्मीदवार मतदाताओं के बीच अपनी जाति, अपनी भाषा व  अपने इलाके वालों का  मजबूत व संगठित  गुट बना लेता है.  मतदाता बंट जाते हैं।  यह बंटवारा लोगों के साथ साथ वोटों का भी  होता है ।  इस बंटवारे का फायदा उठा कर उम्मीदवार चुनाव जीत जाता है । दुर्भाग्यवश यह बंटवारा बाद मे समाज और देश को भी बांटने  लगता है. देश के भीतर अलगाववादी आंदोलन सिर उठाने लगते हैं।  

      ऐसी छोटी सोच रखने वाले उम्मीदवार जब सरकार बनाते हैं तो वहां  भी जाति, भाषा  व क्षेत्र पर  आधारित गुट बना लेते हैं।  सभी गुटों को “अपने लोगों”  की उम्मीदें  पूरी करनी होती हैं, अत: हर गुट सत्ता मे ज्यादा भागीदारी मांगने लगता है । गुटों  के बीच  शक्ति प्रदर्शन होने लगता है ।  आम भाषा मे इसे गुटबाजी कहा जाता है

हमारे देश की चुनाव प्रक्रिया अब इस स्थिति से भी एक कदम आगे निकल गई है ।  अब चुनाव मे उम्मीदवार की ऊपर बताई गई योग्यताएं या कमियां भी मायने नहीं रखतीं ।  अब राजनीतिक दल ही चुनाव प्रचार मे उतरते हैं अपनी विचारधारा के साथ ।  जिसे चुनाव के बाद सरकार का मुखिया बनना है वह पार्टी की विचार धारा को लेकर जनता के बीच आता है ।  पार्टी अपनी विचारधारा को प्रभावी ढंग से मतदाताओं के बीच रखती हैं। वे जनता को रैलियों, वर्चुअल रैलियों के जरिये  बताती हैं कि यदि हमारी पार्टी चुनाव जीत कर सत्ता मे आईतो सारी समस्याएं जो मौजूदा पार्टी की विफलता से सामने आई हैं- वे सब दूर कर दी जाएंगी । देश मे सुशासन स्थापित हो जाएगा । 

इस नए ट्रेंड का सबसे बड़ा दोष यह है कि  सभी मतदाताओं को दो खेमों मे बांट दिया जाता है। उम्मीदवार की व्यक्तिगत योग्यता, या पात्रता अब पीछे चली जाती है और पार्टी की विचारधारा ही वह नाव बन जाती है जिस पर बैठ कर कोई भी घोड़ा गधा, टिकट पा जाता है और चुनाव भी जीत जाता है। 
गहराई से देखिये तो चुनाव मे व्यक्ति की जगह पार्टी का निर्णायक बन जाना लोकतंत्र  की मूल अवधारणा के खिलाफ है। उम्मीदवारों की व्यक्तिगत योग्यता नही देखी जाती। पार्टी की जीत हार मे भी अब उम्मीदवार की भूमिका खत्म हो जाती है । पार्टी के जो उम्मीदवार जितना करीब होता है या पार्टी के लिए जो उम्मीदवार ज्यादा फायदेमंद होता है, वह टिकट पा  जाता है, चाहे वह बिल्कुल नालायक, अपराधी,सेलेब्रिटी या  फिर उद्योगपति ही क्यों न हो। वह जीता हुआ सांसद  अब विकास के बारे मे अपने ढंग से निर्णय नही ले पाता. जैसा पार्टी चाहती है, अब वह वैसा करने के लिए मजबूर हो जाता है.    
तो लोकतंत्र मे अब न तो मतदाता की भूमिका रह जाती है और न जीते हुए प्रत्याशी की । सारी लोकतांत्रिक शक्तियां अब सिमट कर पार्टी के मुखिया के हाथ मे आ जाती हैं। लोकतांत्रिक शक्तियों तथा अधिकारों का  यह केंद्रीयकरण  लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को ही गंभीर चुनौती देने लगता है. 

जो होना चाहिए था, क्या वह हो रहा है ?-

जब देश आज़ाद हुआ तो मै करीब सात  साल का था.  सन 1960 के बाद के चुनावी माहौल मेरी यादों मे ताज़ा हैं। लोगों मे भरपूर जोश दिखाई पड़ता था। उन दिनों का नारा था - अपने देश मे अपना राज । खूब करेंगे काम काज ॥  शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक उल्ला खां, सुखदेव , राजगुरु, बिरसा मुंडा, खुदी राम बोस, सुभाष चंद्र बोस जैसे बलिदान लोगों की यादों मे ताज़ा थे ।  पंजाब और बंगाल का बंटवारा भी तब बेहद संजीदा मुद्दा था ।  अंग्रेजों की लूट खसोट और  बर्बरता  लोगों को याद थी । गांधी, नेहरू, खान अब्दुल गफ्फार खां,  सरदार पटेल जैसे कितने ही कद्दावर नेता उस वक्त मौजूद थे ।

    उस वक्त की सरकारें भी देश और जनता के प्रति अपनी जवाब देही को समझती थीं ।  लोगों  के सपने साकार करने की  ईमानदार कोशिशें हुईं ।  नागरिक की  इज़्ज़त बढ़ी ।  उसे लगा कि अब वह अंग्रेजों का गुलाम नहीं रहा। उसके हिंदुस्तान मे अब उसकी सरकार है ।  

    धीरे धीरे आज़ादी का ज़ज़्बा हाशिये पर जाने लगा। जोड़ तोड़ करके कुरसी हथियाना, अपने अपने लोगों को फायदे पहुंचाना, आरक्षण जैसी चीज़ें लाकर वफादार वोटर ग्रुप  तैयार करना ही  जनसेवा बनता जा रहा था । ये  रिज़र्व  वोट बैंक खास होते चले गए ।  बाकी जनता आम होती चली  गई ।

     तो उस शुरूआती दौर मे सत्ता पर काबिज रहने के लिए खास तौर पर दो हथियार आजमाए गए ।  पहला था आरक्षण (Reservation) और दूसरा  मुस्लिम तुष्टिकरण । तर्क यह था कि कुछ मुसलमान जिन्होने बंटवारे को खारिज करते हुए हिंदुस्तान मे रहना ही मुनासिब समझा वे यहां अल्पसंख्यक ( Minority )  हो गए हैं। उन्हें धर्म, कानून, शिक्षा व विवाह आदि मे  इस्लामी परंपराएं अपनाने का अधिकार दिया जाए ।   

      आरक्षण का दायरा वक्त के साथ बढ़ने लगा तथा अन्य पिछड़ी जातियों के रूप मे एक और वोट बैंक बना । इसका नाम था ओबीसी (अदर बैकवर्ड क्लासेज़) । इनकी भागीदारी 22% के आसपास तय हुई । जो जातियां पहले सामान्य मानी जाती थीं अब आरक्षण की मलाई चाटने लगीं ।  सत्ता और  प्रशासन में शक्ति के छोटे छोटे द्वीप उभरने लगे । केंद्रीय सत्ता अब आखिरी मुगल बादशाह की तरह लोकतंत्र  के ठेकेदारों की मोहताज हो गई, जो किसी भी दल को सत्ता मे ला सकते थे और बेदखल भी कर सकते थे ।  

      सत्ता की इस बंदरबांट का सबसे ज्यादा खामियाजा उस वोटर को भुगतना पड़ा जो न अल्प संख्यक था और न दुर्भाग्यवश आरक्षित जातियों मे शुमार था ।  सत्ता की घोर उपेक्षा की वजह से वह काबिल होने के बावजूद आर्थिक तौर पर कमजोर होता चला गया । कृषि की जमीन  पीढ़ी दर पीढ़ी घटने लगी। नौकरी मिलना करीब करीब नामुमकिन हो गया ।  इंजीनियरिंग या चिकित्सा के संस्थानों  मे दाखिले मिलना उस अनारक्षित वर्ग के लिए बहुत मुश्किल हो गया ।  विकास के सारे दरवाज़े बंद होने लगे।

     और आखिरकार नतीजा यह हुआ कि तथाकथित सवर्ण वर्ग सड़क पर आ गया ।  मेहनत मजदूरी, खेती किसानी या फिर पुश्तैनी काम करके वह जिंदगी का बोझ ढोने लगा। इस वर्ग को कई नाम दिये गए ।  वामपंथियों ने इन्हे सर्वहारा कहा तो  किसी ने इन्हें आम आदमी कहा । कुछ इन्हें  हाशिये पर धकेल दिये गए आखिरी आदमी भी कहने लगे । 

     इनकी तादाद भी कम न थी अत: कुछ चालाक लोग इन्हे वोटर ग्रुप मे तब्दील कर सत्ता की कुरसी पर जा बैठे । लेकिन जिसके सहारे सत्ता हासिल की थी, उन्हीं लोगों के साथ छल किया गया. ऐसा कुछ नहीं किया गया जिससे इस वोटर ग्रुप की दिक्कतें आसान होतीं । उल्टे सत्ता  के नशे मे वे चालाक लोग उसी डाल को काटने मे जुट गए, जिस पर वे बैठे हुए थे ।   

पुराने दौर मे भी मैंने इस आखिरी आदमी का इतना बुरा हाल नहीं देखा था जितना आज देख रहा हूं।  

आज का परिदृश्य ( Current Scenario ) -

     फरवरी मे चीन से आई  एक संक्रामक बीमारी “कोरोना” का पता चला. बीमारी काफी सीरियस थी, नई चली थी। पता नहीं था कितना गहरा असर होगा ? लिहाजा अपने नागरिकों को  हवाई जहाजों से स्वदेश  लाया गया । तब अनुमान लगाना भी मुश्किल था कि कोरोना इस कदर फैल जाएगा. इसे रोकने के लिए तालाबंदी (लॉकडाउन) की गई । मार्च 2020 से मई 2020 तक यह तालाबंदी चार बार बढ़ाई गई. सभी कल-कारखाने, रेल, बसें हवाई जहाज, स्कूल मॉल, बाजार सब बंद हो गए.

    इस तालाबंदी का बुरा असर वैसे तो  समाज के हर तबके पर पड़ा पर असली नुकसान उठाना पड़ा उस मजदूर, किसान, रेहड़ी, खोमचे वाले को जिसका रोज का काम  दिहाड़ी मजदूरी से चलता  था. प्राइवेट क्षेत्र के नौकरी पेशा लोग भी इसके शिकार बने क्योंकि सरकारी कर्मचारियों की तरह उन्हे बैठे बिठाए वेतन नहीं मिलता था।


        छोटे शहरों तथा महानगरों मे लाखों करोड़ों की संख्या मे रह रहे दिहाड़ी मजदूरों की हालत तालाबंदी के करीब तीन महीनों मे क्या हुई होगी, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है । दस दस आदमी एक छोटे से कमरे मे । काम छूट गया । जमा पूंजी, जो घर भेजनी थी उसी से गुजारा होने लगा। रोजगार की उम्मीद नहीं रही । जिंदा रहने का कोई सहारा नहीं बचा ।  कोठरी का किराया मय बिजली पानी के अलग । ऐसे मे यही रास्ता बचा  था कि वे अपने गांव लौट जाएं। कम से कम जमीन मे बीज छिड़क कर पेट की आग तो बुझा लेंगे !  किराया तो नहीं भरना पड़ेगा !


       कुछ संवेदनशील पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने सरकार से अनुरोध किया कि इन करोड़ों मजदूरों (प्रवासियों) को उनके घरों मे भेजने की व्यवस्था की जाए. रेलवे है, अंतर्राज्यीय बसें हैं, प्राइवेट बसें हैं, हवाई सुविधा है । अनुरोध पर कोई सुनवाई नहीं हुई । सोशल डिस्टेंसिंग का तर्क देकर उन्हें जाने से रोका गया । हार कर कई मजदूर सैकडों किलोमीटर दूर अपने घरों को पैदल ही चल पड़े.



     पैदल जा  रहे उन लोगों को पुलिस ने जिस बेरहमी से मारा, वे दृश्य दुनिया भर  के लोगों ने देखे. भूखे प्यासे, चिलचिलाती धूप मे पैदल चलते वे मजदूर क्या इस देश के नागरिक नहीं थे ? जिनके वोटों से सरकारें बनती हैं, जो इस देश की सड़कें बनाते हैं, शहर के शहर बसाते हैं, कारखाने लगाते हैं-- उन आखिरी पायदान पर ठेल दिये गए बेसहारा और  मजबूर लोगों के लिए सरकार की कोई जिम्मेदारी नही बनती थी ?


       एक चौदह साल की बच्ची अपने पिता को हजार किलोमीटर दूर से  साइकिल पर बिठा कर घर ले जाती है, लेकिन धृतराष्ट्र की सभा मे बैठे किसी भी नीतिज्ञ का दिल नही पसीजता ? गर्भवती महिलाएं सड़क के किनारे ही प्रसव करा रही हैं, और फिर चल पड़ती हैं भूखी प्यासी अंतहीन सड़कों पर, अपने गांव, अपने घर जाने के लिए ? पांच साल का  बच्चा सूटकेस पर औंधा  लेटा खिंचा चला जा रहा है तपती हुई दोपहर में ।  



पर सब खामोश ! तमाशा देख रहे हैं । किसी मंत्री, किसी नौकरशाह, किसी अरबपति के मुंह से आह तक नही निकलती ! कोई श्रवण कुमार बूढ़ी मां को कंधे पर बिठा कर लिए जा रहा है.  कोई साइकिल रिक्शे पर परिवार को बिठाए सैकड़ों किलोमीटर दूर घर को निकल पड़ा है. न खाने  की कोई उम्मीद न पीने को पानी. सोलह मजदूरों को गाजर मूली की तरह मालगाड़ी काट कर निकल जाती है.पर कहीं कोई हलचल नही होती. साथ लाई रोटियां भी लाशों के चीथड़ों के साथ बिखरी पड़ी हैं रेलवे ट्रैक पर !

        ट्रक मे छिप कर घर जा रहे चौबीस मजदूर  दिन दहाड़े एक्सीडेंट मे मारे जाते हैं  ! कहीं कोई संवेदना नहीं ! मौत का सा सन्नाटा छाया हुआ है !  पांवों के तलुओं मे छालों के बाद पस पड़ गया है. एक कदम भी आगे बढ़ाना दुश्वार हो गया है. पर जाना तो है ! अपना घर, जिसे संवारने के लिए इतनी दूर परदेस मे आए थे ! अपना घर ! जहां पहुंच कर जगती है एक आस ! मिलता है एक भरोसा ! कि हां ! अब मैं बच जाऊंगा ।

     छोटे छोटे बच्चे ! भूख-प्यास से बेहाल और थकान से चूर, रोते बिलखते पैदल चले जा रहे हैं ।  अंतहीन राहें ! सोचता है अबोध मन- कब खत्म होगा यह सफर ?  
      ग्यारह साल की भूखी प्यासी बच्ची पैदल चल कर  हफ्ते भर मे गांव के पास  तक पहुंच जाती है. अपने प्यारे घर से सिर्फ दस किलोमीटर दूर ! लेकिन भूख, प्यास और थकान के आगे हिम्मत टूट  जाती है. हार कर गिर जाती है जमीन पर. हां ! अपने गांव के बिल्कुल बाहर  ! तोड़ देती है दम ! लेकिन पसीजता है किसी का दिल ?


   रेलवे स्टेशन पर पड़ी मरी हुई मां को चार साल की बच्ची झकझोरती है. कहती है अम्मा उठ , रेल आ गई. पर क्या आई रेल ?  पसीजा कोई पत्थर दिल  ? रेल चली भी तब, जब दुनिया ने मुंह पर थूका. अरे अपने को अहिंसा के पुजारी , हिंदुत्व के ठेकेदार कहने वालो, दुनिया पूछती है तुमसे- क्या यही है हिंदुत्व ? क्या यही है पांच हजार साल पुरानी वैदिक सभ्यता ? जिसके ढोल दुनिया भर मे पीट पीट कर तुम नहीं थकते ? शर्म आती है आज खुद को हिंदू कहते हुए ! कैसे गर्व करें इस निर्दयी, पक्षपाती और स्वार्थी  हिंदुत्व पर ! तुम से खौफनाक व  हिंसक जानवर तक नहीं देखा- इंसानों की तो बात ही छोड़िए ।  


       और बेशर्मी की इंतिहा देखिए ! आपदा के नाम पर विश्व बैंक से करोड़ों डॉलर का कर्ज लिया ! सोना गिरवी रक्खा ! रिजर्व बैंक के रिजर्व खाली कर दिये ! महारत्नों  की करोड़ों की जमा पूंजी खसोट ली !  उसके बावजूद मजदूरों से रेल का किराया लिया ?

         अपने ऐशो आराम पर गरीब देश की पूंजी बेरहमी से उड़ाने वालो – उस गरीब, आपदा के मारे से रेल का किराया लिया ? वह भी पूरा किराया !  न खाना दिया, न पानी, और चला दी भगवान भरोसे ट्रेन !  जाना था पटना, भेज दी उड़ीसा ! कैसा घिनौना मजाक उड़ाया कामगारों का तुमने ?

       बसें होते हुए भी उत्तरप्रदेश की सरकार  मजदूरों के लिए नही चलाती ! कोई भेजता भी तो चलाने की इजाजत नही दी जाती ! कर्नाटक की सरकार मजदूरों को जबरदस्ती रोकती है – ताकि  कॉरपोरेट्स के कारखाने बंद न हों ! सूरत मे मजदूर सड़क पर पैदल ही उतरता है तो पुलिस बर्बरता से लाठियां बरसाती है ! मुर्गा बनाती है चिलचिलाती धूप में ! कोलतार की पिघल रही सड़क पर कोहनियों के बल रेंग कर चलवाती है ?

     आखिर किस अधिकार से ये फरमान जारी किये जा रहे हैं? क्या कोई संवैधानिक व्यवस्था है इस देश में ? क्या कुछ लोग  ही देश और प्रदेशों के मालिक बन गए हैं ? देश - प्रदेश उनकी निजी जागीरें हो गए हैं क्या ?

अगर सत्ताधीश सोचते हैं कि मजदूर को सता कर वे राज करते रहेंगे- तो वे भूल कर रहे हैं ।
कोई भी देश जितना कुरसी पर बैठे लोगों का है, उतना ही बाकी करोड़ों लोगों का भी है. आपको क्यों चुना जाता है ? इसलिए कि पहले वाले काबिल नही थे । आपको काबिल समझ कर बिठाया गया ।   पर आप अगले पांच साल के जुगाड़ मे लग गए ! किसी तरह  पांच साल का जुगाड़ हो भी गया तो क्या ? कभी न कभी तो कुरसी छोड़नी ही पड़ेगी ! छोटी सोच वाले, घमंडी और धोखेबाज  लोग कुरसी पर बैठने के बाद देश को मनमाने तरीके से हांकना चाहते हैं,  काश ! उन्होने इतिहास पढ़ा  होता । बेवकूफियां पहले भी हुई पर  अंजाम हर बार एक ही हुआ - बेहद दर्दनाक और शर्मनाक ।

कबीर दास जी ने कहा था-

दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।  मुई खाल की सांस सों, सार भसम हुइ जाय ॥

       ये चुनी हुई सरकारें हैं. उन्ही लोगों के वोटों से चुनी हुई जिन्हें सड़क पर अपने ही प्रदेश मे चलने की छूट नही है ।  ब्रिटिश भारत मे गुलाम भारतीयों पर बहुत जुल्म होते थे, पर कम से कम चलने और खाने-पीने का हक नहीं  छीना जाता था ।  आजाद भारत मे हम गुलामों से भी बदतर क्यों हो गए ? सवालों के जवाब मांगते ही देशद्रोही करार दिया जाता है ।  जो चारण भाट चाटुकार पत्रकार इन अमानवीय कामों को सही ठहराते हैं उन्हे सम्मान, धन पुरस्कार, क्या क्या नही मिलता ? अपने ही देश  मे मीडिया को अपनी तरफ मिलाकर सरकार मजदूर, गरीब के  खिलाफ ये  कौन सा अभियान चला  रही है ?

यकीन मानिये- महाभारत एक ऐतिहासिक सच्चाई हो या न हो, लेकिन वे परिस्थितियां तब भी थीं, आज भी हैं. और आगे भी रहेंगी. ये परिस्थितियां सिर्फ महाभारत कराती हैं। राजा ने जब भी आंखों पर पट्टी बांधी, जब भी गलत फैसलों की अनदेखी की, तभी महाभारत हुआ ।

आज भी वही जुल्म हो रहा है । आज फिर  महाभारत होने से नही रोका जा  सकता ।  भौतिक सुखों के गुलाम जो  अंधे आज मजदूर, गरीब की बेबसी पर अट्टहास कर रहे हैं, उनका हक छीन कर अमीरों की तिजोरियां भर रहे हैं, उन्हे कौरवों जैसे अंत के लिए तैयार रहना चाहिए. गीता का संदेश भी यही है कि अच्छे या बुरे – दोनो तरह के कर्मों का फल कर्ता को अवश्यमेव भोगना पड़ता है.

अहंकार मे डूबा सत्तापक्ष इतना दंभी होगा- मैंने  सोचा तक न था ! जिस देश ने गांधी जैसा सत्य और अहिंसा का पुजारी हमें  दिया वहां  के रहनुमा इस कदर बेदर्द हो सकते हैं- यकीन नही आता.  जिस देश मे गाया जाता हो-

वैष्णव जन ते तेने कहिये, पीड़ पराई जाणे रे ! पर दुक्खे उपकार करे जोए मन अभिमान न आणे रे !  
उसी देश के चरित्र मे आज इतनी गिरावट आ जाएगी – उम्मीद नहीं थी ! सोचा था- अच्छे दिन आएंगे. हर आदमी खुशहाल होगा. हर हाथ को काम मिलेगा, देश की दौलत जो कुछ देशद्रोहियों ने लूट कर  बाहर पहुंचा दी है- वापस आएगी, सौ साल तक बगैर इनकम टैक्स का बजट बनेगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नही हुआ. सत्ता मे आते ही चाल, चरित्र, चेहरा- सब बदल गए !  सारे आश्वासन, सारे वायदे जुमले साबित हुए ! हमेशा की तरह एक बार फिर भेस बदल कर रावण सीता को हर ले गया !

जिसने तुम्हारे वायदों  पर यकीन करके तुम्हे सत्ता सौंपी- क्या उस गरीब, बेसहारा, मजबूर के आंसू पोंछे तुमने ? क्या पराई पीड़ा को समझा तुमने ? दुखी का उपकार भी नहीं किया और मन मे अहंकार भी पैदा हो गया ?

नागरिक का आत्म सम्मान (Self Esteem of citizen)

        नागरिक का  आत्मसम्मान क्या होता है -हमे अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस या जर्मनी से सीखना चाहिए । लोकतंत्र गले मे लटका ढोल नहीं है  जिसे पीट पीट कर बताया जाए कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. लोकतंत्र का सबसे अहम किरदार होता है नागरिक. नागरिक देश की सबसे छोटी इकाई भर नहीं होता। वह देश की अस्मिता (self-esteem)  और संप्रभुता (sovereignty) का प्रतीक भी होता है। अपने नागरिक का अपमान करने वाला देश  कभी महान नही बन सकता  ! 

         आज हमे सोचना होगा कि जो दुर्दशा हमने अपने नागरिक की कर दी है-  क्या वह उचित है ? जिस डर  को दिखा कर हम सत्ता सुख भोग रहे हैं क्या उससे बचने का हमारा तरीका सही है ?  ऐसा तो नहीं कि बड़ी चालाकी से अज्ञात भय दिखा कर हम गैर जिम्मेदाराना व निरंकुश शासन चला रहे हैं !

(समाप्त) 




















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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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