कहानी - एक और अभिमन्यु

अनाथ आश्रम का दरवाजा खुलते ही सामने वह दिखाई पड़ा ।  मैंने देखा वही चोट खाई पैर की उंगलियां, बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी-मूंछें, जो अब सफेद हो गर्ह थीं, वही शक्ल-सूरत-  मैं उसे पहचानने में गलती नहीं कर सकता। वह करेसन ही था ।  लोहे की कुर्सी के फ्रेम पर वह पर नायलोन की पट्टियां बुन रहा था। वही ध्यान, वहीं कर्तव्यनिष्ठा। उम्र की आखिरी ढलान पर भी काम के प्रति वही समर्पण।

            उसके चेहरे पर शान्ति थी, और आँखों में गहरे विश्वास की चमक। किसी भक्ति गीत की पंक्तियां गुनगुनाते हुए वह तेजी से कुर्सी मे ताने-बाने बुन रहा था।

वक्त कितना परिवर्तनशील होता है ? मेरी आंखों के सामने अतीत की वे कुछ घटनाएं किसी चित्र की तरह स्पष्ट हो गई - उस वक्त करेसन की उमर चालीस भी नहीं रही होगी। अच्छा हट्टा-कट्टा शरीर था। धूप से मुरझा कर काले पड़ गये उसके बदन पर कुर्ता-पायजामा खूब अच्छा लगता था।  बच्चे के इलाज के बारे मे शहर के मशहूर डाक्टर के पास बैठा हुआ था मैं कि तभी वह भीतर आया। उसकी गोद में एक छोटा बच्चा था जो चीख-चीख कर रो रहा था।

            करेसन घबराई आवाज में लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोला था-आठ रोज हुई गये डाक्टर साहेब, बहौत बेमार है हमार बबुआ। बड़ी उम्मीद से आपके पास लाया हूं । बबुआ को बचा लीजिए।

            बच्चे को देखने के बाद डाक्टर ने बताया कि इलाज लंबा चलेगा। रूपया भी काफी खर्च होगा।
लेकिन करेसन ने मजबूत आवाज में उत्तर दिया था-बबुआ की जान बचाने के लिये जितना खर्चा हो जाय मैं करूंगा। आप बिल्कुल बेफिकर रहें डाक्टर बाबू ।

            करेसन की वह दृढ़ता आज भी उसी तरह तरोताजा है मेरी स्मृतियों में। बबुआ को बचाने की दृढ़ इच्छा शक्ति उसकी आँखों में छलक उठी थी।

            कुर्ते की जेब से पचास रूपए का नोट निकाल कर डाक्टर की हथेली पर रखते हुए वह खुशी से मुस्करा उठा था। यह सोच कर कि अब उसके बबुआ को उससे कोई नहीं छीन सकता।

उसके बाद भी मैं डाक्टर के पास गया लेकिन करेसन नहीं मिला। इतने बड़े शहर में एक अनजान आदमी का बार-बार मिलना आसान नहीं होता-यह जानते हुए भी उससे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी। मैं जानना चाहता था कि अब बबुआ कैसा है ?

उस रोज काफी दिन बात करेसन दिखाई पड़ा। जेठ की तपती दोपहर थी। पसीने से करीब-करीब नहाया करेसन दो भारी-भरकम सवारियों को रिक्शे में खींच रहा था। जिस्म की सारी ताकत पैडल पर निचोड़ते हुए वह हांफ रहा था। दोनों सवार छाते की छाँव में आइसक्रीम खाते हुए सौन्दर्य शास्त्र पर चर्चा कर रहे थे। एक मोड़ पर पहुँचने के बाद वे रिक्शे से उतर गये, और पचास पैसे का सिक्का उसके हाथ पर रख कर जाने लगे। इस पर करेसन ने शालीन प्रतिवाद करते हुए कहा था-ये क्या दिल्लगी करते हैं बाबू, तीन रूपये बनते हैं, आप दो ही दीजिए।

यह सुनते ही दोनों सवारियों का गुस्सा फट पड़ा-बेवकूफ बनाता है ? हमें भाड़े का रेट नहीं मालूम। लगभग चीखते हुए उन्होंने लगातार कई तमाचे करेसन की गालों पर जड़ दिये। फिर तो आस-पास चलते कई लोग भी इसमें शरीक हो गये। सारे सभ्य समाज की शालीनता लात-घूंसे और गालियों के रूप में करेसन के शरीर पर बरस रही थी। कनपटियों को बाजुओं से छुपाये व सिर नीचा किये करेसन समाज की सभ्यता और संस्कृति को जी रहा था।

पिटने के बाद औंधे मुंह रिक्शे पर लुढ़के करेसन की तरफ नजरें उठाने के बाद मैं खुद से नजरें नहीं मिला सका था। मेरे भीतर का आदमी शर्मिन्दा था। मुझे लगा कि इन सभ्य लोगों में से एक मैं भी हूं  जिसके शहर में किसी शरीफ आदमी को सरे बाजार बेहरमी से पीटा जा सकता है, अगर वह गरीब और फटेहाल है।

‘‘बबुआ कैसा है अब ? मैंने पूछा।

सिसकते हुए करेसन ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा। उसकी अश्रुपूरित आँखों का आकाश सूना हो गया। क्षितिज की तरफ ताकते हुए शून्य भाव से बोला था वह-बबुआ नहीं रहा।
इससे आगे पूछने की मैं हिम्मत न जुटा सका। डाक्टर के लम्बे चले इलाज की भारी-भरकम फीस और कीमती दवाइयों के बिल चुकाने के बावजूद उसकी गोद से उसका प्यारा बबुआ कैसे छिन गया-इसका जवाब मै किससे मांगता ?

करेसन के लिये मेरे भीतर सहानुभूति का अहसास और भी मजबूत होता जा रहा था। उसके अतीत के बारे में जानने की मेरे भीतर कहीं तीव्र जिज्ञासा थी। एक दिन उसके रिक्शे पर बैठ कर घर आते हुए मैंने उसके अतीत को कुरेदा। मालूम हुआ कि करेसन दूर के किसी गांव से इस शहर में आया था। प्यारा सा गांव, जहां उसका घर था। माँ-बाप, भाई-बहन व बचपन के प्यारे दोस्त थे। जिनके साथ वह चरागाहों में ढोर चराने जाया करता। जिनके साथ बारिश की धाराओं में नहाते हुए वह जामुन के ऊँचे, पेड़ों पर चढ़कर काले-मीठे जामुन खाता। धान के हरे-भरे खेतों के बीच मेंड से होते हुए जहाँ वह नदी नहाने जाया करता.............।

उस दिन करेसन बहुत भावुक था। मेरे न पूछने पर भी अपने बचपन और यौवन की स्मृतियों को वह बिना रूके बताता जा रहा था....। गाँव के बाहर एक विशालकाय बरगद भी तो उसका बाल सका था। घने पत्तों में छुप कर वह देर तक चिड़ियों का कलरव सुनता। कभी अपने साथियों के साथ उसकी घनी शाखाओं पर दौड़ते हुए लुकाछिपी का खेल खेलता.......।

-‘अब गाँव जाने का मन नहीं होता करेसन ? मैंने पूछा तो वह उदास हो गया था।

-           ‘अब वह गाँव के उजड़ गया है बाबू।’ हताशा थी करेसन की आवाज मे, ‘अब वहां बड़े-बड़े कारखाने खुल गए  हैं। हजारों हवेलियां बन गई हैं। एक बार गया तो लगा कि रास्ता भूल गया हूँ। जान ही नहीं सका कहां पर था अपना घर, कहां थे अपने खेत-खलिहान और चरागाह ? फिर अपने साथ का भी कोई नहीं दिखाई दिया। सब नये लोग थे।

करेसन की आवाज में छिपे दर्द को मैं समझ रहा था। अपनी जमीन से उखड़ कर अनजान शहर में पटक दिये जाने की उसकी पीड़ा काल्पनिक नहीं थी। शरीफ आदमियों के उसी शहर में, जहां  डाक्टर भी थे जिन्हें उसकी जेब से मतलब था। उसके बबुआ की जिन्दगी से नहीं। जहां भाड़ा मांगने की कीमत थी लात-घूंसे और भद्दी गालियाँ।

अपने प्यारे गाँव की मधुर स्मृतियों के बाद यही सब कुछ तो दिया था उसे इस शहर ने।

................... अतीत के दृश्य सहसा लुप्त हो जाते हैं। देखता हूँ करेसन अब भी उसी मनोयोग से कुर्सी बुन रहा है। उसके चेहरे पर गंभीर शान्ति है। आस-पास कुछ बच्चे आकर बैठ गए हैं और करेसन बड़े उत्साह से उन्हें कुर्सी बुनना सिखा रहा है। उसकी धीमी आवाज मेरे कानों तक आ रही है। एक बच्चे का हाथ अपने हाथ में लेकर सिखा रहा है वह, बबुआ ऐसे बुनते हैं। देखो…

 क्या अपने बबुआ की याद अब भी आती है करेसन को ? क्या वह भी मेरी तरह अतीत के दुखद क्षण नहीं भुला पाया है ? शायद वह भूल गया हो, लेकिन मैं उस दिन करेसन से हुई मुलाकात नहीं भूल सका हूँ।
.............उस दिन काफी अरसे के बाद देखा था मैंने करेसन को । उसके स्याह पड़ गये चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी-मूंछें उग आई थीं । बदन का गठीलापन अब हड्डियों के ढांचे में बदल गया था। तार-तार हो गई मैली कमीज और घुटनों तक चढ़े पायजामे से उसकी विपन्नता झांक रही थी। उसकी दांईं  टांग पर एक चौड़ी पट्टी बंधी थी। बगल में आटे की लेई का डिब्बा तथा इश्तिहारों का गट्ठर पड़ा हुआ था। मैं ठहर कर देखने लगा ।  सामने की दीवार पर कूची से लेई पोत कर उसने पोस्टर चिपकाया । पोस्टर किसी सर्कस के बारे में था। जिस पर कुछ अर्धनग्न युवतियों के चित्र थे। ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा था-दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस एक बार फिर आपके शहर में । नामी कलाकारों , जोकरों व जानवरों के हैरतअंगेज करतब अपनी आँखो से देखिए। इस बार कुछ अनोखे खेल भी दिखाये जायेंगे।

टांग पर चोट लगने के बाद रिक्शा खींच पाने में असमर्थ हो गया तो करेसन ने यह काम पकड़  लिया। उसके स्वाभिमान पर मुझे बहुत खुशी हुर्ह थी, कि जिन्दगी की हर पल बोझिल होती जा रही कूड़ा-गाड़ी को तब भी वह मजबूती से ढो रहा था। करेसन ही  क्यों, कमोबेश इसी दौर से तो मैं भी गुजरता रहा था इसी बीच। फर्क था तो सिर्फ इतना ही कि मेरे सामने भयानक जबड़े फैलाये भविष्य था और करेसन भूख की धधकती भट्टी पर बैठा ‘वर्तमान’ को जी रहा था। करेसन की समस्या शाम की रोटी थी जबकि मेरी पीठ पर अफसर का बेहद भारी बेताल लदा हुआ था। अपनी तमाम इच्छाओं का कत्ल करके, घिनौनी हिप्पोक्रेट सभ्यता ओढ कर, भीतर उबल पड़ते लावे के घूंट पीता हुआ-मैं भी तो दौड़ रहा था सुरक्षित भविष्य की तलाश में। यह जानते हुए भी कि थका कर मार डालने के लिये ही आदमखोर व्यवस्था ने यह बोझ मेरी पीठ पर लाद दिया है, और पैनी कठोर कीलों को मेरे स्वाभिमान पर जगह-जगह बर्बरतापूर्वक ठोक दिया है-मैं इस भार को लेकर दौड़ते रहने को अभिशप्त था।

सर्कस शहर में आया और यहाँ की चेतना को झकझोर कर चला गया। मुझे सर्कस के चले जाने का दुःख था। भले ही सर्कस के कलाकारों, जोकरों व जानवरों ने अपने-अपने ढंग से दर्शकों का मनोरंजन किया था लेकिन करेसन को उस शो से कोई मतलब नहीं था। उसे मतलब था तो पोस्टरों को शहर की खाली दीवारों पर चिपकाने के काम से, जो सर्कस खत्म होने के साथ खत्म हो गया था।

वह एक बेहद ठंडी शाम थी लेकिन शहर में सरगर्मियाँ तेज थी। हर कोई शहर के बीचों-बीच स्थित मैदान की तरफ  जा रहा था जहाँ किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति का भाषण होने वाला था। उसी भीड़ में करेसन दिखाई पड़ा तो मैं खुद को रोक न सका और भीड़ को चीरता हुआ उसके पास पहुंचने लगा। सर्कस जाने के बाद क्या कोई और काम मिल गया है उसे ? अपने स्वाभिमान और पेट की आग के बीच करेसन ने अब कौन सा समीकरण बनाया है- मैं जानना चाहता था। अंधेरा गिद्धों की तरह सड़कों पर उतर आया था। करेसन को पता नहीं चल सका कि मैं उसके बिल्कुल बराबर चल रहा हूं। कड़ाके की सर्दी में भी वही फटी-पूरानी कमीज और जांघियानुमा पायजामा पहने एक हाथ में खाली थैला व दूसरे में खाली शीशियां लिये वह बदहवास चला जा रहा था। उसकी लंगड़ाई चाल से मालूम होता था कि उसकी टांग पर लगा जख्म  काफी गहरा था। हजारों लोगों की भीड़ में घिर कर भी कितना अकेला होता है आदमी, यह करेसन के परेशान चेहरे पर साफ-साफ पढ़ा जा सकता था।

-‘क्या हुआ करेसन ? सब ठीक तो है’-मैंने आहिस्ते से पूछा तो उसने कातर नजरों से मुझे देखा और भावुक हो उठा।

-‘परसों से बहौत बीमार है फूलो ?’

-‘डाक्टर को दिखाया ?’

-‘हाँ बाबू। पर कहते हैं। पूरे दो हजार रूपये लगेंगे, नहीं तो बचने की कोई उम्मीद नहीं।

            करेसन ने बताया कि इस दुनिया में अब उसकी फूलो ही उसके साथ है। अपने ही गाँव की थी फूलो। लाड-प्यार में पली फूल सी सुन्दर। ब्याह से पहले वे साथ-साथ खेतों में काम करते थे। साथ-साथ खेलते थे। तब भी फूलो उसे बहुत प्यार करती थीं। फिर जब उनका ब्याह हो गया तो बचपन का प्रेम पति-पत्नी के रूप में और पक्का हो गया। वह फूलो की हर खुशी का ख्याल रखता।

            गाँव छूटने पर भी फूलो का साथ नहीं छूटा। वह अपनी फूलो के साथ शहर चला आया। तमाम परेशानियों के बावजूद वे दोनों खुश थे। उनके आँगन में बबुआ के रूप में एक कली जो खिल गई थी।


........ विचार श्रृंखला टूटी तो करेसन चौंक सा गया था। वह बहुत भयभीत और बेचैन हो था ।

-‘मेरी फूलो को बचा लो बाबू।’ कहकर उसने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया था। मानो अपनी कमजोरी मुझसे छिपाना भी चाहता हो और मुझे बताना भी चाहता हो।

-‘घबरा मत करेसन, मैं हूं तो। क्यों जी छोटा करता है। कल सबेरे फूलो को लेकर मेरे घर चले आना। हम किसी अच्छे डाक्टर से उसका इलाज, करायेंगे।

            उस रोज मुझे अपने भीतर अनोखा सुख मिला था। करेसन जैसे स्वाभिमानी इन्सान ने मुझसे मदद मांगी है-यह सोच कर ही मुझे स्वयं पर गर्व हुआ था। मुझे विश्वास था कि सबेरे करेसन आयेगा, लेकिन वह नही आया। तबसे कितनी ही सुबह बीत गई, कई बरस बीत गये, पर करेसन नहीं आया। बल्कि उसके बाद शहर के किसी कोने में भी वह दिखाई नहीं पड़ा।

………और आज कई बरस बाद अनाथ आश्रम के दरवाजे के पास वही करेसन बैठा बच्चों को कुर्सी बुनना सिखा रहा है। वही चोट खाई पैर की उंगलियाँ, वही बेतरतीब पर सफेद दाढ़ी -मूंछें, आँखों मे  चमकता वही स्वाभिमान, और वही लगन ।  कुछ भी तो नहीं बदला है।

            जी चाहा था कि दौड़ कर उसे गले लगा लूं,  लेकिन यह सोचकर कि यादों के घाव फिर हरे न हो जायें, मैं उलटे पाँव लौट गया।

(समाप्त
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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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