
पर देखने के अलावा अब मैं कर
ही क्या सकता हूँ। बल्कि सच तो यह है कि अपनी इच्छा से मैं कभी कुछ कर ही न सका। मेडिकल
कालेज में भर्ती होते वक्त खुद मेरा ही मन कहाँ माना था। पर तब भी सभी के रोकने के
बावजूद मैं अकेला जा कर भर्ती हो गया।
उस रोज की बात है। बाहर तेज बारिश हो रही थी। गाँव से सैकड़ों मील दूर
मेडिकल कालेज की ऊपरी मंजिल के वार्ड में पलंग पर पड़ा था मैं। भीगते हुए बिजली के खम्भे
और हवा से कांपते दुकनों के साइन बोर्ड बेहद उदास लग रहे थे। दूर तक दिखाई पड़ते कई
मंजिले मकान भी तो कितने डरावने हो उठे थे। मरीजों से भरे वार्ड में मौत-का-सा गहरा
सन्नाटा छाया था। रह-रह कर ठंडी हवा की तेज खौफनाक आवाज सन्नाटे को चीरती निकल जाती।
अकेलेपन का अजीब-सा अहसास मेरे दिमाग पर छाने लगा। अनजानी-सी घबराहट
से जी भारी हो गया। उस वक्त मुझे अपने बचपन के भूल-बिसरे दिन याद हो आए, जबकि बारिश होते ही हम कपड़े उतार कर नदी की तरफ भागा करते थे। नदी किनारे जामुन
के पेडों पर बात ही बात में चढ़ जाते। भीगते ठिठुरते हुए काले-काले जामुन तोड़ कर खाते
और पूरे विश्वास के साथ एक टहनी से दूसरी टहनी पर छलांगे लगाते। जब नदी चढ़ जाती तो
कूद-कूद कर बलखाती उफनती लहरों में गायब हो जाते।...............
बीती यादें धीरे-धीरे धुंधली हो गई और मैं सोचने लगा-इस वक्त बरसाती
पहने तख्ती झुलाता अमित स्कूल से लौट रहा होगा। और उसकी माँ, अब भी धानों की गुड़ाई कर रही होगी। कितनी मेहनती है निरभाग, इतनी बारिश में भी..।
तभी अचानक एक भर्राई हुई आवाज सुनाई पड़ी-‘भइया‘।
मैं विचारों की दुनिया से छिटक कर मेडिकल कालेज के वार्ड नम्बर तीन में आ पहुँचा। मैंने चौंक कर देखा, सामने बड़े भैजी थे। मैने तुरन्त उठ कर पांव छुए। उन्होने उठा कर मुझे छाती
से लगा लिया। मैं चुपचाप उनकी भुजाओं में सिमटा उनके दिल की धड़कनें सुन रहा था। अकेलेपन
की यातना के उस टीस भरे दौर में अचानक भैजी का मिल जाना मुझे बहुत भला लगा था। धीरे
से मुझे पलंग पर बैठाते हुए उन्होंने कहा था - ‘‘आखिर तू नहीं माना न ?
कहते हुए उनकी आवाज भीग गई थी। नजर के चश्मे के पीछे धंसी आँखें सजल
हो आई। मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ फिराते व प्यार बरसाती नजरों से मुझे एकटक देखते
हुए वह कह रहे थे - आपरेशन का क्या विश्वास ? पथरी गलाने की एक-से-एक
दवाइयाँ हैं। चाहे हमें बाहर के मुल्कों से मंगानी पड़ती, पर तू
आखिर नहीं माना भइया।
बस इससे आगे वह कुछ भी न बोल सके। उनका स्नेह भरा हाथ अब भी मेरे सिर
पर मौजूद था। मेरा जी चाहा कि बारिश में ही अस्पताल छोड़कर भैजी के साथ घर को चल पडूं,
पर वही हुआ। मैं चाह कर भी पलंग से उठ न सका।
वह पलंग की बांह पर बैठ गए तो मैंने कहा –
- भैजी डाक्टर
कहते थे, बगैर खून के ऑपरेशन नहीं होगा।
- क्यों
? अस्पताल में नही हैं ?
- ना कहते
हैं।
- तो फिर
! उनकी आवाज में घबराहट थी।
- बाहर से
मोल लेना पड़ेगा।
इस पर वह एकाएक बोल उठे थे, नहीं, नहीं, इसकी क्या जरूरत है। थोड़ा बहुत तो मुझमें भी होगा
ही। कहकर वह तेजी से खून निकलवाने चले गए। मैं उन्हें जाते हुए देखता रह गया। जी चाहा
कि दौड़कर उनका रास्ता रोक लूं पर एक बार फिर चाहते हुए भी मैं ऐसा न कर सका। एक गहरी
थकान मेरे शरीर पर छा गई। मुझे लगा कि जाते हुए भैजी जी के शरीर से ठीक वैसा ही एक
दूसरा आदमी प्रकट होकर मेरी तरफ बढ़ रहा हैं और बांहें फैलाकर धीमे से कराहते हुए कहता
है - आखिर तू नहीं माना न ?
मुँह कम्बल के भीतर छुपाकर मैं चुपचाप लेट गया। बन्द आँखों के किनारों
से गर्म आंसू टूट-टूट कर सफेद चादर पर बिखरने लगे। कितनी ही देर तक मैं उसी तरह पड़ा
रहा । बाद में भैजी ने आकर मुझे हिलाया - अरे सो
गया ?
मैं उठकर बैठ गया। आँखें अचानक भैजी के चेहरे पर जा टिकी। उनकी आँखों
में टिमटिमाती लौ धूमिल पड़ गयी थी। दाढी पर उगे बाल खूटों की तरह खड़े हो गए। उनकी चाल भी तो अब कितनी सुस्त पड़
गई थी! अपने भैजी को एकाएक इतना बूढ़ा होते देख मेरा मन भर उठा था। मुझे लगा कि जैसे भैजी की उम्र का एक लम्बा-चौड़ा हिस्सा मैंने
जबरदस्ती उनसे छीन लिया है। थकी-हारी आवाज
में भैजी बोले थे –
अच्छा, मैं और पैसे का इन्तजाम
करता हूँ जाकर, जल्दी लौटूंगा। यहाँ तो कोई अपना पराया भी नहीं
है। फिर छाते का हत्था मुट्ठी में भींच कर वह बाहर निकल गए। जाते-जाते एक बार फिर समझा
गए - ‘जी छोटा न करना।’
भैजी के चले जाने
की क्रमशः क्षीण होती पग ध्वनि धीरे-धीरे लुप्त हो गई।
अगले रोज तीन-चार डाक्टर आए। एक के कन्धे पर कैमरा लटका था तथा दूसरे
के हाथों में नोट बुक और पैंसिल थी। कैमरे का मुँह मेरी तरफ घूमा और चमचमाती फ्लैश
की तेज रोशनी चाकू की तरह भीतर तक उतर गई। इसके साथ सवालों की बौछार शुरू हो गई
- क्या नाम
है आपका ?
- जी दाता
राम।
- उमर ?
- करीब पैंतीस।
- क्या करते
है ?
- जी सप्लाई
कामदार हूँ।
यह सुनते ही उनका
बरताव एकाएक बदल गया। उस व्यक्ति ने गले पर टाई को ठीक से बिठाते हुए मुँह सिकोड़ लिया।
- क्या पहले
भी कोई आपरेशन हुआ ?
- जी हाँ
एक गुर्दे का ऑपरेशन तो दो साल पहले हो चुका है।
- तो फिर
दुबारा ऑपरेशन की सलाह तुझे किस बेवकूफ ने दी ?
उस सभ्रान्त व्यक्ति का अचानक ‘‘तू’’ पर उतर आना मुझे बहुत बुरा लगा
था। मेरा भावुक मन पीड़ा से भर उठा, पर मैं इतना ही कह सका-
इस पर वे सभी शालीन
लोग खिलखिलाकर हँस पड़े थे। काफी देर तक उनके ठहाके वार्ड में गूंजते रहे। फिर वही आदमी
बोला -
- क्या तुझे
मालूम है कि ऑपरेशन कामयाब ही रहेगा ?
- मुझे डॉक्टर
साहब पर पूरा भरोसा है।
पर तभी एक भयानक दृश्य मेरी आँखों के आगे नाच उठा। मुझे लगा कि डॉक्टर
की दूधिया आँखों से दो पैने चाकू निकल कर मेरे पेट के भीतर छिपे गुर्दे की तरफ बढ़ने
लगे हैं। कंटीली पथरियों से भरा तड़पता गुर्दा चाकुओं को अपनी ओर आते देख भय से काँप
उठा है....।
माथे पर छलक आई पसीने की बूँदें पोंछते हुए मैंने आँखें डॉक्टर के चेहरे
पर टिका दीं, जो अभी तक खिलखिलाकर हँस रहा था। मैं सहम गया और
वह खौफनाक दृश्य एक बार फिर मेरी आँखों के
सामने घूम गया। मैंने देखा डॉक्टर के दांत इस्पात की चमचमाती कुल्हाड़ियों में बदल गये
हैं। उसकी आँखों से निकले हुए तेज चाकू अब मेरे गुर्दे के एकदम करीब आ गये हैं।
मैं बुरी तरह डर कर चीख उठा। मुस्कराता डॉक्टर इस पर गंभीर होकर बोला
था - घबरा मत भई, ये मेरे कैरियर का सवाल है।
भैजी अगले रोज भी नहीं पहुँच सके थे। खून और ग्लूकोज की बोतलें चढ़ा कर
मुझे ऑपरेशन के लायक बनाया जा रहा था। जैसे-जैसे ऑपरेशन का वक्त करीब आ रहा था,
मेरी घबराहट बढ़ती जाती थी। जी
करता बोतलों को झटक कर तोड़ डालूं और छलांग कर इस खौफनाक माहौल से बाहर भाग जाऊं। पर
सारी ताकत लगा कर भी मैं उठ न सका और हारे हुए सिपाही की तरह चुपचाप लेटा रहा।
आखिर वह दिन भी आ पहुँचा जबकि ऑपरेशन होने वाला था। उस रात एक मिनट के
लिए भी मेरी आँखे में नींद न आ सकी। सवेरे से ही मेरी, आँखें
अपने भैजी को खोजने लगीं पर वह कहीं नही थे। वे ही क्यों, अपने
दूसरे लोग भी कहाँ थे।
स्ट्रेचर पर लिटा कर मुझे सफेद चादर से ढक दिया गया। फिर धीरे-धीरे स्ट्रेचर
ऑपरेशन रूम की तरफ बढ़ने लगा। भीतर पहुँच कर चादर मेरे मुँह से हटा दी गई। कमरे में दो डॉक्टर, कुछ मेडिकल के छात्र, एक कैमरा मैन, तथा दो सहायक थे। सभी के मुँह पर सफेद
पट्टियाँ बंधी थीं, कैमरा स्टैंड पर कस दिया गया, दरवाजे बन्द हो गये।
धीरे-धीरे मेरे सारे कपड़े उतार दिये गये। ऑपरेशन की मेज पर चमचमाती रोशनी
में मैं नग्न पड़ा था। मैंने डॉक्टर को कुछ कहना चाहा था लेकिन इससे पहले ही मेरे मुँह
पर मजबूत टेप की कई परतें चिपका दी गई। मैंने हाथ-पांव छटपटाने चाहे तो उन्हें मजबूती
के साथ ऑपरेशन टेबल के पावों से बाँध दिया गया।
मैं चीर-फाड़ की मेज पर रखे मेंढक की तरह असहाय हो गया जिसकी हथेलियों
और पांवो की झिल्लियों पर भी इसी तरह निर्दयता से पैनी आलपिन घुसेड़ दी जाती हैं। जिसे
ठीक इसी तरह बच्चों औंर मादा से अलग करके जबरदस्ती लिटा दिया जाता है चीरने के लिए।
और तब इन्सानियत की भलाई के नाम पर उधेड़ी जाती हैं उसकी नीली शिराएं और लाल धमनियाँ।
उधेड़ दिय जाते हैं उसके निर्दोष गुर्दे और फेफड़े । और फिर देखी जाती हैं -लाल गरम खून
से भरे, पीड़ा से छटपटाते उस गरीब के कलेजे की धड़कनें।
मेंढक को आंसू नहीं
आते, पर मेरी आँखों से आंसुओं की अविरल धाराएँ फूट पड़ीं। कैमरा
चलने लगा। डॉक्टर ने बांयें हाथ से पेट की खाल उठाई और दांये हाथ में पकड़ी कैंची से
खाल चीरना शरू कर दिया। मारे पीड़ा के मेरे
गले से चीख निकल गई, लेकिन होंठ बन्द थे। मेरे बंधे हुए हाथ-पावं
छटपटाने के लिए कसमसाते रहे और खाल उसी तरह दो हिस्सों में बँटती रही।
खाल को दोनों तरफ से बाहर खींच कर डॉक्टर ने मेरे पेट के भीतर हाथ डाला
और गुर्दे को बाहर खींच लिया। फिर अंगे्रजी में कुछ समझाते हुए उसने भावी डॉक्टरों
को वे पथरियां दिखाई। पर वे सब नौजवान तो इस भयंकर दृश्य को देखकर दहल गये थे। इसके
बाद तेज उस्तरे से डॉक्टर ने कई जगह गुर्दे को चीरा और चिमटी से पथरियां खीच निकालीं।
पैनी सुई से कई जगह टांके लगाये। मैं होश में था या बेहोश यह जानने कि किसी ने भी जरूरत
न समझी।
सिले हुए गुर्दे को पेट में लापरवाही से ठूंस कर डॉक्टर ने खाल के दोनों किनारे सिल डाले। कैमरा रूक गया। मेरे शरीर पर सफेद
चादर डाल दी गई। बेहोश करने के बाद मेरे हाथ-पांव खोल दिये गये। होठों पर चिपका टेप
भी बेकार समझ कर उतार दिया गया। कुछ जरूरी कपड़े पहना कर अब स्ट्रेचर पर मुझे बाहर ले
जाया गया। असह्य पीड़ा के कारण मैं होश खो बैठा।
जब मुझे होश आया, भैजी, मेरा
बेटा और पत्नी मेरे पलंग के करीब खड़े थे। पेट के भीतर सिला गुर्दा तड़प रहा था। डॉक्टर
ने मुझे आँखें खोले देखा तो मुस्करा करा बोला –
- तबीयत कैसी है अब ?
- आपकी मेहरबानी
है डॉक्टर साहब।
मैं फूट फूटकर रो
पड़ा।
और तभी अचानक दर्दं बिफर उठा। गुर्दें पर लगे टांके तड़ाक-तड़ाक कर टूट
गये। मेरा पेट अपने ही खून और माँस के टुकड़ों से भर गया। मेरी पलकें बद हो गई। होंठ
खुले रह गये और डॉक्टर की रिपोर्ट में मुझे लाश घोषित कर दिया गया।
पर अफसोस कि मैं मर न सका। हाँ ! मैं कभी नहीं मर सकूंगा। क्या हुआ अगर
कल इसी मेडिकल कॉलेज में किसी दूसरी बीमारी के लिए मैं किसी और नाम से दाखिल हो जाऊं।
क्या फर्क पड़ता है नाम बदल जाने से।
........मैं अब भी बांह से आंसू पोंछते अपने बेटे को देख रहा हूँ। उसके
कपड़े कितने मैले हो गये हैं। उसके नन्हे पांव इस दौरान कितने गन्दे और कठोर हो गये
हैं?................
इसी बीच वह डॉक्टर
सर्जन बन गया है। उसे गुर्दे के विशेषज्ञ की उपाधि और पुरस्कार मिल गया है। पर अब मैं
कुछ नहीं बोल सकता। मुझे लगता है कि कहानी शुरू होती है ठीक इस बिन्दु से जहाँ से कि
मैं सब कुछ देख सकता हूँ, लेकिन कुछ नहीं बोल सकता, कुछ भी नहीं।
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