व्यंग्य – चौरासी वैष्णवन की वार्ता



 गरमियों के दिन थे. चौरासी वैष्णवों मे बहस छिड़ी थी  कि इतनी गरमी देख कर भी विष्णु भगवान कहां क्षीर सागर मे  लेटे हैं ? काहे नहीं आके गरमी से राहत दिलाते ?

तब गोकुल नाथ जी ध्यान लगा कर  बोले – हे वैष्णवो  विष्णु जी बैकुंठ छोड़ कर पृथ्वी लोक मे अवतार ले चुके हैं. ये अवतार पुराणों  के चौबीस अवतारों  से जुदा है. आजकल  गरीब खान ठंंडे वाले के रूप मे विष्णुजी जी सागर किनारे कंकरीट के जंगल बांदरा मे अपनी महरारू के संग सुख पूर्वक निवास करते  हैं.

सारे वैष्णव  गरीब खान जी के पते पर मायानगरी जा पहुंचे.

     चौरासी बैष्णव  विधि  पूर्वक प्रणाम कर  के बैठे .  फिर तनिक  सुस्ता कर  बोले, हे विष्णु जी के अवतार, आप  ठंडा बाबा के रूप मे सारे संसार मे जाने जाते हैं. आप सारे  तत्वों  के जानकार हो.  हमारी एक शंका है कि  यह ससुर झूठ क्या है ? आप ही हमारी   शंका मिटा सकते  हो.    

   इतनी सुन आचार्य ठंडे वाले  हंसे. बरफ सी धौली डाढ़ी पर  कंघा फिरा के बोले - हे मुरली वाले के इलाके से पधारे साधो, आप ठीक ही कहते हो. झूठ का स्वरूप बहुत कंप्लीकेटेड   है. कभी सच भी झूठ लगता है तो कभी निरा झूठ भी सच लगता है. लेकिन वैष्णवो ! इस कलि काल मे झूठ ही ब्रह्म है. ये संपूर्ण  चराचर जगत झूठ से उपजा है, झूठ से ही पलता -बढ़ता है और अंतत:  झूठ मे ही लय हो जाता है. 

 थोड़ा रुक कर  पुन: बोले- इस जगत मे जो जितना झूठ बोल सकता है वह उतना ही सफल है. झूठ बोलने की कला ही आज सफलता की कुंजी है. सच बोलने वाले या तो खेतों के पेड़ों पर फांसी के फंदों पर झूलते मिलेंगे या लाचारी से परेशान हो कर सल्फास की गोलियां खाते. और लबार ?  सारा धन लूट रहे हैं. जैसे कि सात जन्मों तक उन्हें और उनकी औलादों को जिंदा रहना हो !   

   यह सुन कर एक वैष्णव ने पूछा- हे आचार्य जी बात तो ठीक है मगर ये द्वैत वादी क्यों  कहते हैं कि  सृष्टि दो  तत्वों   से बनी  है-  प्रकृति और पुरुष. आप  तो कहते  हो कि सृष्टि सिर्फ - झूठ से बनी  है ?

    ठंडा  बाबा  हथेलियों  से डाढ़ी खजुआते हुए बड़बड़ाए - हे वैष्णवो, क्या तुम इत्ती सी बात भी नही जानते ? प्रकृति ही झूठ है और  पुरुष ही सत्य है. 

        इतना सुन एक वैष्णव भड़क गए -नहींं महाराज,  आपका अद्वैत वाद ही सही है. सृष्टि मे   कुछ भी सत्य  नहीं. ऊपर से नीचे तक, भीतर से बाहर तक, कहीं से कहीं तक, खालिस झूठ की माया है. चलो अगर सत्य  है  उस का नाम बतावें महाराज 

        वार्ता अभी चल ही रही थी कि ऋषि  गरीब खान जी की धर्मपत्नी कोक की छियासी चिल्ड बोतलों के साथ  प्रकट हुईं. सब वैष्णवों को उन्होने शीतल कोक अर्पित किया. ठंडा बाबा  के साथ सभी वैष्णव कोक पान करने लगे.

         कोक का एक एक घूंट सिप करते हुए तथा मंद मंद मुस्कराते हुए ठंडा बाबा बोले- हे वैष्णवो, ध्यान लगा कर सुनो  ! यह कोक  ही साक्षात सत्य है. सत्य हमारे सामने  है और हम जानते  तक नहीं ! अरे ज्यों तिल माही तेल है ज्यों माचिस मे आग, ज्यों पानी मे दूध है, ज्यों साबुन  मे झाग,  तेरा साईं तुझ मे  जाग सके तो जाग. ये  है माया का परदा ! इस ड्रिंक का पान करते  ही आप के दिव्य नेत्र खुल गए होंगे. आप समझ गए होंगे  कि इस मृत्यु लोक मे  कोक ही सत्य है. कोक सत्यं जगत मिथ्या. देव, दानव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व- सभी कोक पीते  हैं. लोग झूठ कहते  हैं कि जल ही जीवन है. साधो, कोक ही जीवन है. कोक ही इस पंचभौतिक देह का आधार है.

           जो खिलाड़ी जीवन मे  एक बार भी कोक एड कर लेता  है उसके सारे पाप देन एंड देअर क्षीण हो  जाते  हैं. जो  दुकानदार कोक  की एजेंसी लेते  हैं दुख दलिद्दर  उनके आजू बाजू नही फटकते.    जो हीरो कोक का एड नहीं ठुकराते  उनका   कैरियर हमेशा चमकता  है. उन्हें कभी काम की कमी नही सताती. लक्ष्मी जी उनकी ड्यौढ़ी पर हमेशा खड़ी  रहती  हैं. जो सरकारें  अपने यहां कुकुरमुत्तों की तरह उगती ठंडा कंपनियों को बंद करके कोक की  मार्केट प्रशस्त करती  हैं वे चिरकाल तक सत्ता सुख भोगती  हैं.

      जो प्राणी कोक की बोतल का दर्शन भी कर लेता है उसे सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हाथों हाथ  मिल जाता  है. जीवन मे एक बार भी कोक पान करने वाला  फिर  चौरासी लाख योनियों मे नहीं भटकता. यहां  से वह सीधे कोकलोक जाता  है.  इहं लोके सुखं भोक्त्वा, चांते कोकपुरीम ययो. क्या आप जानते हो कि ब्रह्मलोक का नाम अब कोकलोक हो गया  हैं? 

       इतनी सुन एक वैष्णव अपनी गोखुरी चुटिया पर हाथ फिरा कर उवाचे- हे कोक जी महाराज, इस मृत्युलोक मे   दिखाई पड़ता  है कि सब संतों  के झंडे, फंडे, डंडे अलग अलग होते हैं    सब की साड़ियों मे सफेदी की चमकार भी जुदा जुदा होती  है. फिर सबका ठंडा एक कैसे हो सकता  है ?

        ठंडा बाबा  मुस्कराए  – हे वैष्णव जी, प्रश्न बड़ा  ही उत्तम है.  ध्यान लगा कर सुनो- ये सारा ब्रह्मांड एक नूर से  ही उपजा है. सब प्राणी उसी मट्टी के बरतन हैं. कोई चोखा  तो कोई खोटा  कैसे हो  सकता  है ?
           ठीक ऐसे ही सारे ठंडों  की उत्पत्ति भी एक कोक से जरूर हुई है. सृष्टि मे जितने भी तत्व हैं  वे सभी कोक मे निवास करते हैं. जो तत्व कोक मे नहीं वे इस  सृष्टि मे ही  नहीं. कोक ही सत्य है,  कोक ही  शिव है और  कोक ही सुंदर भी. कोक के अलावा जो कुछ भी इस माया नगरी मे  भासता  है सब  झूठ  है. समझे  ?

       इतनी सुनके एक और  वैष्णव उवाचे - हे ठंडा जी महाराज, हमारे मन मे  फिर एक शंका  उठी है. हम इंटरनेट पर  देखे हैं कि अमरीका और यूरोप के ठंडा मे  कीड़े   मारने  वाली दवाई बहुत कम होती  है. पर अपने इंडिया के कोकवा मे  वह जहर जास्ती होता  है.  इंडियन कोक की बोतलों मे छिपकली, कीड़े  मकौड़े, काकरोच, मेंढक के  बच्चे  खूब मिल जाते  हैं. जबकि बाहर के कोक मे यह  कलेवा नही परोसा  जाता. फिर आप ही कहो कि सबका ठंडा  एक कैसे  हो सकता  है ? आप  त्रिकालदर्शी  हो महाराज ! हम  मूर्खों  को  बुझाय के कहो.

       ठंडा बाबा घड़ी भर चुप रहे, फिर हंसे और डाढ़ी पर हाथ फिरा कर उवाचे – हे वैष्णवों मुलुक मुलुक के हिसाब से शब्दों  के मतलब भी जुदा जुदा होते  हैं. यूरोप अमरीका मे  ठंडा  का मतबल है जो पीकर ठंडाई दे. अपने यहां ठंडा वह  है जो ठंडा कर दे.

      अब तुम्ही बताओ कितनी झंझट हैं एक सच्ची जान के वास्ते ?. बैंक से करजा लेने की फिकर ! करजा मिला तो लौटाने की फिकर ! शादी ब्याह,  बच्चों की पढ़ाई लिखाई की फिकर, नौकरी धंधे की फिकर ! सरकार और बिचौलियों  से खेत खलिहान बचाने की फिकर, बीजने से बेचने तक फिकर ही फिकर. बिका  भी  तो वाजिब भाव न  मिलने  की फिकर, तो भाई इतनी सारी चिंताओं के बावजूद ये जीवात्मा देह रूपी पिंजरेे मे निवास करे भी तो कैसे ?  जबरजस्ती भी तो नही मरा जाता ! तो फिर

         फिर गंभीर मुद्रा बना कर  बोले कोकाचार्य- इस  मुश्किल काम को आसान बनाता  है हमारा ठंडा. कुछ खास नही करना  पड़ता  ! कुछ रोज लगातार ठंडा  पीना  है. एक रोज ऐसा आता  है  कि पीने वाला ही  ठंडा   हो   जाता  है. और ठंडे होते  ही  दुनिया की सारी चिंता फिकर दूर. सिर्फ दस रुपए मे   ब्रह्म का  साक्षात्कार ठंडे   के सिवा कौन करा सकता  है भला ?

        तनिक ठहर कर बोले कोकाचार्य- माना कि ठंडा करने का  यह पुनीत काम हमारे आतंकवादी संत भी करते  हैं.  जंगलों  मे यह काम हमारे नक्सली ऋषि मुनि  बंदूकास्त्र से करते  हैं, पर वही काम हमारा ठंडा सस्ते मे और लीगल वे मे निपटाता  है. फिर भी उसे अच्छा नहीं बताते  हैं.  

        पर हे वैष्णवो ! कोक निर्माण मे   तल्लीन लोग  ब्रॉडमाइंडेड होते  हैं. वे  बुराई से नहीं घबराते.  धीरज नहीं खोते. मान अपमान, निंदा प्रशंसा के लफड़ों मे नहीं पड़ते. वे तो पीड़ितों को कोकलोक पहुंचाने के  पुनीत कार्य मे  दिन रात  लगे रहते  हैं. 

       कोक पुराण की गूढ़ व रसमयी व्याख्या श्रवण कर चौरासी वैष्णव अति प्रसन्न हुए. उनके चोखुओं  से पहले तो भ्रम की टाटी उड़ी, फिर आनंद के आंसू बहने लगे.  सभी एक साथ खड़े हो,   हाथ जोड़ कर बोले- हे परम आदरणीय कोका जी महाराज, हमारे हृदय की सभी शंकाएं  जड़ समेत नष्ट हुईं. अब हम भली भांति जान गए हैं कि इस चराचर जगत मे केवल कोक ही सत्य है. बाकी जो कुछ भी भासता है वह सफेद झूठ है.

         तभी दूर खड़े एक आदमी को देख कर ठंडा बाबा बोले - हे संतों ! कुटी के भीतर  कोक की शूटिंग का सेट तैयार है. मुझे  शॉट देनेे जाना होगा.

       सुन कर वैष्णव उदास हो गए. सभी वैष्णवों ने कोक पान के लिए कोकाचार्य जी का आभार व्यक्त किया और सामूहिक डंडौत (दंंडवत)  करके ठंडे का गुणगान करते हुए ब्रज प्रदेश से होकर जाने वाली दून एक्स्प्रेस मे आरूढ़ हो गए. 

(समाप्त)  

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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